दरवाजे पर, भगवान के : ठक ! ठक !!... कोई है ?

क्या लगता है, आपको ? कोई आयेगा अन्दर से ??

अपनी आप जानें, मुझे कोई सन्देह नहीं, वरना तो मैं आता ही क्यों ? या ऐसा कहूँ, कि यहाँ तो आना जाना लगा ही रहता है, अपना ही घर तो है।

आपके साथ कभी ऐसा हुआ है, मेरे साथ तो कितनी ही बार हो चुका है, कि सारा कुछ, जैसे मुट्ठी में बन्द है, और खोलो तो खाली। या फिर बिन बादल, मौसम... आंगन पानी से लबालब  भर जाता है। कभी तमाम मेहनत और योग्यता के बावजूद सफलता नहीं मिलती, तो कभी आधी अधूरी तैयारी से भी काम बन जाता है । असाध्य रोगी, जैसे चमत्कार हो जाये, ठीक हो जाते हैं तो कभी ठीक होकर डिस्चार्ज हो रहा मरीज, सभी को हैरान छोड़ विदा हो जाता है।

कुदरत समय-समय पर अपनी ताकत, और हमारी लाचारी हमें दिखाती रहती है। कोई ऐसी शक्ति तो निश्चित है जिसके सामने हमें सर झुकाए, उसकी सत्ता को स्वीकार करना ही पड़ता है। 

मैं उसे ही भगवान कहता हूँ, शक्ल-सूरत भले गड़बड़ाये, उसके अस्तित्व पर मुझे कोई शंका नहीं। आप भाग्य कह लीजिये भले, जिसके साथ होते, सारे फल सहज प्राप्त होते हैं और जिसके बिना, सघन प्रयास भी हो जाते हैं असफल !

भगवान पर अटल विश्वास कर, या सारा कुछ भाग्य भरोसे छोड़, यदि आप अपनी कोशिशों के महत्व को कम करने का सोच रहे हैं, तो भूल  हो जायेगी। थोड़ा महीन है, ऐसा समझें कि आपके प्रयास, किसी भी प्रयोजन के लिये अनिवार्य हैं, सम्भवतः  पर्याप्त नहीं। खेत में फसल के लिये, आपका बीज और पोषण अनिवार्य है, मगर पर्याप्त नहीं अगर यथा समय-समय हवा, धूप, और पानी ना मिले। नाव के लिए समुचित दिशा में पर्याप्त हवा की आवश्यकता पूरा करना भाग्याधीन भले हो परन्तु अनिवार्य रूप से पाल तो आपको ही उठाने होंगे ।

भगवद्गीता की निम्न पंक्तियाँ भी, कर्म का अधिकार आपको देते हुए, कुछ ऐसा ही कहतीं हैं, 

कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन...

मेरी उपरोक्त चर्चा, आपको आपके भगवान से साक्षात्कार कराने में सहायक हो, ऐसी मेरी कामना है, और यह कि आपके भगवान मेरा प्रणाम स्वीकार करें 🙏 

अभी इतना ही, शेष फिर कभी ...


आगे की बात

अपनी परसों की बात, आगे लिये चलता हूँ, कुछ प्रतिक्रियाएं मिलीं, सभी कृपापूर्ण, और उत्साह जनक... आभार 🙏 किसी ने विरोध लायक भी नहीं समझा, ऐसा क्यों मानें 😜 

एक दोस्त ने पूछा है, करें क्या ? इस पर कुछ देर बाद आते हैं ।

जिंदगी से जो कुछ सीखा है, एक शब्द में कहूँ तो 'अनाति' ही शुभ है, अन+अति, अति सर्वत्र वर्जयेत ! अति का भला न बोलना, अति की भली ना चूप । अति का भला ना बरसना, अति की भली न धूप।। जिनके अन्दर दया ही दया हो, वह अच्छे प्रशासक कम हो पाते हैं, और दया बिल्कुल ना हो, तो हो जाते हैं क्रूर तानाशाह।  आदमी भला ही भला हो, तो शोषण होने लगता है और अतिनिष्ठावान का उत्पीड़न। सास बहू के बीच भी तो कुछ ऐसा ही होता है।

कहते हैं, एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा था कि भगवान ने दुख बनाया ही क्यों, सुख ही सुख बना दिया होता तो उत्तर देने, गुरु उसे नाव पर, नदी के बीचो-बीच ले गया, और लगा एक ही चप्पू चलाने। नाव अपनी ही जगह गोल गोल घूमने लगी, और फिर उसने कहा, आगे बढ़ने के लिए, दूसरा चप्पू चलाना अनिवार्य है, वह भी विपरीत। ये तो नाव है, और तुम जिन्दगी चलाना चाहते हो ? दिन के बाद रात ना आये तो अगली तारीख ना आये, जीवन तो इतना लम्बा होता है। जीवन के लिए, अतियों के बीच संतुलन बनाए रखना ही शुभ भी है, और अनिवार्य भी।

पिछली पोस्ट, सबसे पहले अपने ब्लॉग पर डाली थी। बेटी ने देहली से फोन किया, एम्स में डाक्टर है, पापा, अभी सेफ लेवल डिसाइड कैसे हो सकते हैं ?

कितने हिसाबी-किताबी हो गये हैं हम, समझना होगा कि गणित से आगे असल समाज में, एक और एक, दो ही नहीं, सिफर भी होता है, एक भी और ग्यारह भी....😀

तो प्रिय मित्र दुबे जी, आपकी जिज्ञासा से उत्तर में, फिलहाल तो इतनी अपेक्षा कि अति, फिर भले वो सुरक्षा की ही क्यों ना हो, से बचा जाये, विपरीत को भी सम्मान दिया जाये और धैर्य के साथ परस्पर  सदभाव और सदभावना बनाये रखी जाय 🙏

बनत बनत बन जाई 😀
इति। शेष फिर कभी, नमस्कार  🙏 

 

THE QUEUE....