#58 सफरनामा !

आजकल फ्लाइट, और आरक्षित एसी से सफर करने वाले लोग भले आसानी से न समझ पायें, कि कभी हमने ही ट्रेन की साधारण बोगी में भी सफर किया है। और खूब किया है, ये कभी-कभार की बात नहीं। कभी कभी तो डिब्बे में घुस पाना ही दूभर होता था, हाथ में दरवाजे का हैण्डिल, और आधा-अधूरा पैर पायदान पर टिका हुआ, और ट्रेन चल पड़ती थी।

एक बार चल पड़ी तो लोग सैटल होते थे, जगहें बनतीं थीं। पहले दरवाजे से अन्दर होने की, और फिर खिसकते हुये गैलरी में आगे बढ़ पाने की। हम सीट पर बैठे लोगों को हसरत भरी नजरों से, और सीटों पर काबिज लोग हमें, आधी तरस, और आधी चिन्ता भरी नजरों से, देखते थे कि आ गये। देर सबेर, एडजस्ट इन्हें भी करना ही पड़ेगा।

वो तलाश, सीट पर टिकने लायक एक कोने की, और सीट पर काबिज बन्दे की उसे कवर किये रहने की, मगर कब तक ? कामयाबी, अन्ततः मिलती ही थी। अगली कवायद, कब्जा मजबूत करने की, और फैलाने की। अगर कोई सवारी उतर जाये तो मुश्किल, एकाएक आसान हो जाती थी, और अगली कोशिश शुरू हो जाती थी, खिड़की वाली सीट तक पहुँचने की।

रफ्ता-रफ्ता खिड़की तक पहुँचना, सामान मनमर्जी सेट करना, और फिर फैल-फूट कर बैठना। सब हो ही जाता था और तब, आप खुद को डिब्बे का बादशाह समझ सकते थे। खिड़की से सबसे अच्छा नजारा, आपको ही दिखता था। खिड़की बन्द रखनी है, या खुली, और कितनी, फैसला आप ही का। नये मुसाफिरों में से किसको, और कितनी जगह देनी है ? और कब ? देनी भी है ? यह सब भी आप पर।

और फिर, वो स्टेशन भी आ जाता है, जहाँ आपको उतरना है । बैठने की जगह, भले कितने मुश्किल हासिल हुई हो, कितना इन्तजार, टुकड़े टुकड़े हासिल राहत। मगर, अब घेरे रखने का कोई कारण नहीं, ना औचित्य, ना सार्थ। और इसके लिये मुसाफ़िरों से, जिन्हें आगे जाना है, गुत्थमगुत्था होने की क्या ही तुक। यादें समेटिये, और उतर जाइये। सफर का यही मतलब है !

अपने हम-उम्र दोस्तों के लिये, इस किस्से में, एक निहितार्थ भी है। यह कहानी, अपने जीवन की ही तो नहीं। दफ्तर के बाॅस हों, या घर की मालकिन, स्टेशन आ गया तो सीट का मोह त्यागिये और घर जाने को सज्ज होइये, यही योग्य !

आपका दिन शुभ हो।

THE QUEUE....