#62 The Day of Retirement

 समधी साहब, आज (31-03-2023) सेवा निवृत्त हो गये।



नौकरी, ख़ासकर सरकारी, जैसे हवाई जहाज़ का सफर। टेक ऑफ कभी भी किया हो, कहीं से भी किया हो, दूरी कितनी ही रही हो, ऊँचाई कोई भी पकड़ ली हो, मौसम ख्रराब भी हुआ ही होगा कभी-कभार तो, डरावना टर्बुलेन्स, सीट बैल्ट, अब लगाओ, अब खोल सकते हो, सार किसी का, अब कोई भी नी।

सार है तो इतना कि लैण्ड, हर फ्लाइट होती है, एक ना एक दिन, देर-सबेर बात अलग । खुशकिस्मत हैं कि लैण्डिंग सेफ हुई है, हैप्पी हुई है। इतने सारे लोग रिसीव करने आये हैं, सी ऑफ करने भी। अब वक्त, घर लौटने का है, अपनी मर्जी की ज़िन्दगी जीने का है। सफर का कचरा, साथ ले जाने का नी। शुक्रिया उसका, जिसने सहूलियतें दी, सफर खुशनुमा और आसान बनाया, उसका भी जो मुश्किलों का सबब बना, और आपको सबक दे गया, मजबूत और समझदार बना गया।

सफर के गिले-शिकवे-शिकायत होंगे तो, मगर सब कचरा है, साथ ले भी जाना, काए को ? अच्छी यादें, कीमती अनुभव, जगह-जगह खरीदा हुआ, पसन्दीदा सामान, सुनहरे सपने, यही सब साथ ले जाने लायक है। घर सजाइये, संवारिये, और आराम से रहने लायक बनाइये, बनाये रहिये, और भूलिए मत, कि उस घर में, आप ख़ुद भी आते हैं

तो ढेर बधाइयाँ, सारी शुभकामनायें और हार्दिक स्वागत,

"ठलुआ क्लब" में ! 😀👍

#61 रूबरू, एक अर्से बाद 😀

'मुुर्शिद', हमारे साथ, बड़ा हादसा हुआ, हम रह गये, हमारा, ज़माना चला गया !


आभार, उद्धृत पंक्ति, और छायाचित्र के लिये, उनके स्वामियों के 🙏
ये तो है, आपकी शक्ति, आपकी क्षमता, आपकी सुपीरियरिटी पहले जैसी नहीं रही, आपकी ईगो को मिलने वाला दाना पानी कम हो गया, मगर सिर्फ आपका ही नहीं, सभी का, हर किसी का, ज़माना, एक ना एक दिन तो, जाता ही जाता है। किसी का, पहले ही चला गया था, किसी का जाने को तैयार बैठा है, और किसी के पास टाइम, अभी बाकी है, मगर जाना हर किसी का तय है, निश्चित है। देर-सबेर तो हो सकती है, मगर छूटेगा कोई नी, ना तो कोई स्कोप ही है।
आइये, ठीक से समझते हैं।
एक तो ये, कि 'इन्सान' नाम की, जो बेहद काॅम्लीकेटेड मशीन है ना, उसे बनाने की टेक्नीक, यहाँ तो किसी के पास है नहीं, और जहां कहीं, जिसके भी पास है, मोनोपोली है उसकी, उसे जिस भी नाम से पुकारें, डिलीवरी उसी की मर्जी से, उसी के तय समय पर और इस पर, निगोशियेट नहीं कर सकते आप। केवल दरवाजा, खटखटाते, रह सकते हैं। डिलीवरी अनपेक्षित भी हो जाया करती है, कभी-कभार, वैसे ।
ये मशीन आती है, इनबिल्ट लाइफ-लाॅन्ग बैट्री के साथ। चार्ज ये, रोजाना की रोजाना करनी पड़ती है, मगर रिप्लेसमेंट का कोई प्रोविजन नहीं। शुरू का रनिंग इन, मेरा तो विश्वास है, अधिकतम छः सात साल, कानून कहता है 18 साल, फिर कोई चालीस एक साल ठीक-ठाक। उसके बाद तो, प्राब्लम दर प्राब्लम, और ये प्राब्लम बढ़ती ही जाती हैं। बैट्री, अव्वल तो चार्ज पकड़ती ही नहीं, पकड़ ले भी, तो होल्ड नहीं करती। अन्ततः डिस्चार्ज, और फिर स्क्रैप, मतलब जिसका, कोई है ही नहीं !
यह व्यवस्था सतत, सनातन, और एक समान है, पीढ़ी दर पीढ़ी, अन्तर कोई नहीं, चाहे आपके पुरखे हों, या वंशज। मशीनें आकार-प्रकार में, प्रायः एक जैसी ही हुआ करती हैं, और उपयोगी जीवन काल सीमित। जो काम किया करती हैं, या कर सकती हैं वह बदलता रहता है, अलबत्ता, या ऐसा लगता है, बा-वजह कि संसाधन, सुविधायें बेहतर, और बेहतर होती जाती हैं, हम तरक्की कर रहे हैं, इवोल्व हो रहे हैं ना ?
जैसे, अपने पिता को याद करें तो, उन्हें शिक्षा दीक्षा के लिये, पैदल जाना होता था, हमें साइकल उपलब्ध हुई, और बेटे को मोटर साइकिल, उसके बेटे को, शायद कार। संसाधन बेहतर हों तो, जिन्दगी आसान होती जाती है, क्षमतायें बढ़ती जाती हैं। अन्तर यही है, अन्दर खाते, ख़ास कोई नहीं।
तुलना करना, जरूरी ही हो तो मैदान एक सा होना, अनिवार्य है । मेरे एक शिक्षक थे, वजन कोई अस्सी किलो, जबकि हमारा कोई पचास। स्वाभाविक है, उनमें फुर्ती कम पड़ती थी, जल्दी थकने लगते थे। हम उपहास करते तो, वह कहते, तीस किलो वजन, लाद लो पीठ पर, फिर बताना। उनकी बात, अब याद भी आती है, समझ भी, और यही समझना जरूरी भी है।
हममें से कितने ही हैं जिन्होंने पढ़ाई के समय, रिकॉर्ड तोड़ नम्बर प्राप्त किये थे, तहलका मचाया था, पर आज के दौर से तुलना करें तो नई पीढ़ी को, इतने नम्बर, उपहास के लायक ही लगते हैं। मोटर साइकिल चला रहे हैं ना, साइकिल चलाने वाले की कोशिश, समर्पण और परिश्रम कैसे समझ पायेंगे ? आपको भी, इसकी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए । खेल का मैदान, एकसार जो नहीं है।
वक्त वक्त की बात है, मौसम बिल्कुल बदल चुका है। ऊपर से आपकी बैट्री पुरानी हो चुकी है, और नई पीढ़ी की टिप टाॅप। तुलना युक्तियुक्त है ही नहीं, साथ-साथ, चल नहीं पाओगे, तो क्या हुआ ? माँ-बाप, हर जमाने में, खुद अपने पैर जमा कर ही, अपनी सन्तान को आगे भेजते आये हैं। ये बात त्याग की है, उपकार की है, गौरव की है, फर्ज की है, शर्म की नहीं । अब अगर... अगर आपकी यही सन्तान, पीछे मुड़कर, देखना भी गवारा ना करे, तो ये बात कृतघ्नता की, शर्म की, कम से कम, आपके लिये तो, कतई नहीं ?

वैसे बच्चे फर्माबदार हों, बेइन्तहा प्यार करते हों, छोटी-छोटी बातों का भी ध्यान रखते हों तो भी क्या ? आप अजर-अमर तो होने से रहे ? मंजिल भी, और रास्ते भी, सब पहले से तय हैं, शायद वक्त भी। बाकी सब तो, समझाना है मन का। काम की बात इतनी सी है कि आपका ध्यान जरूरतों पर ही हो, ये कम से कम हों, जितना भी अफोर्ड कर सकें, आकर्षण कम हो जाये, तो भी चलेगा । आपकी जरूरतें, घर की बात होती हैं, ये हालात देखकर थोड़ा-बहुत एडजस्ट भी कर लेतीं हैं। ख्वाहिशें बाजारू, बन सँवर कर आती हैं, बला की कशिश, मगर इन्तहा इनकी कोई नहीं, ये कभी पूरी नहीं होतीं।
कुल मिलाकर, घर वापसी का कोई कन्ट्रोल, आपके हाथ में, है ही नहीं, और जो हाथ में ही नहीं, वो दिमाग में क्या रखना, और काए को ? जाना है, इतना पक्का है, कब जाना है, कैसे जाना है, आराम से, या संघर्ष करते हुये, कौन जाने ? और सबकी दशा एक, अमीर हो, पहलवान हो, लोकप्रिय नेता हो, बड़े से बड़ा अफसर हो, चलती यहाँ किसी की नहीं। फिर डर कर ही, क्या हासिल ? जियो ऐसे कि कभी जाना ही नहीं, सज्ज इतने कि अगले ही पल भी, गिला कोनी।

"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।"

अर्थात्‌, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर, दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा, पुराने शरीरों को त्याग कर, दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।
इस परम सत्य को, स्वीकार कर लेना ही, बुद्धिमानी । करो, या ना भी करो, जाने की प्रक्रिया पर असर, राई रत्ती नहीं। स्वीकार कर लोगे, राजी रहोगे, सज्ज रहोगे तो दर्द थोड़ा कम हो जायेगा, अफसोस भी, और गिला शिकवा-शिकायत भी।

अब मर्जी आपकी ! 😀👍

THE QUEUE....