आमना-सामना, मृत्यु से, मृत्योत्तर !


"न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ, 
इतनी सी सिर्फ, ये बात है, 
किसी की आँख, खुल गयी, 
किसी को नींद, आ गयी !"
 - गोपाल दास "नीरज"

अधो-अंकित प्रस्तुति, मुझे मुक्त नैट पर दिखी। नहीं जानता कि ये, कितनी सच्ची, कितनी काल्पनिक, ये महत्वपूर्ण भी नहीं, इसलिए कि, अधिकांशतः से, मैं, राजी भी हूँ। इतना तक कि, अन्तिम समय, यदि तब, मैं, कुछ कह भी पाऊँ, तो इसी को, मेरी तत्कालीन अभिव्यक्ति, और इच्छा, माना जाये। इस समय, सुविचारित, स्थिर चित्त, होश-औ-हवास में, अधि-घोषित।

प्रो. डॉ. लोपा मेहता, मुंबई के, जी.एस. मेडिकल कॉलेज में, प्रोफेसर रहीं, और उन्होंने वहाँ, प्रमुख, एनाटॉमी विभाग, के रूप में, कार्य किया। 78 वर्ष की उम्र में उन्होंने, यह लिविंग विल (जीवन-कामना) बनाई। 

"जब शरीर साथ देना बंद कर देगा, और सुधार की कोई संभावना नहीं रहेगी, तब मुझ पर इलाज न किया जाए। ना वेंटिलेटर, ना ट्यूब, ना अस्पताल की, व्यर्थ भाग-दौड़। मेरे अंतिम समय में, शांति हो, इलाज पर ज़ोर से ज़्यादा, समझदारी को, प्राथमिकता दी जाए।"

डॉ. लोपा ने, सिर्फ यह दस्तावेज़ ही नहीं लिखा, बल्कि, मृत्यु पर, एक शोध-पत्र भी, प्रकाशित किया। उसमें, उन्होंने मृत्यु को, एक प्राकृतिक, निश्चित और जैविक प्रक्रिया के रूप में, परिभाषित किया। उनका तर्क था कि, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने, मृत्यु को, कभी भी, एक स्वतंत्र अवधारणा के रूप में, देखा ही नहीं। चिकित्सक का आग्रह, सदैव, यही रहा कि, मृत्यु, किसी ना किसी, रोग के कारण ही, होती है, और यदि, रोग का इलाज हो जाए, तो मृत्यु को, अनन्त तक, टाला जा सकता है। 

लेकिन, शरीर का विज्ञान, इससे कहीं गहरा है, ऐसा उनका तर्क है, कि  शरीर, कोई अनन्त तक, चलने वाली, मशीन नहीं है। यह, एक सीमित प्रणाली है, जिसमें, एक निश्चित, जीवन-ऊर्जा होती है। यह ऊर्जा, किसी टंकी से नहीं, बल्कि सूक्ष्म शरीर के माध्यम से, और अज्ञात से आती है। वही सूक्ष्म शरीर, जिसे हर कोई, महसूस तो करता है, पर देख नहीं सकता। मन, बुद्धि, स्मृति, और चेतना, इन सबका सम्मिलन ही, यह प्रणाली बनाता है।

यह सूक्ष्म शरीर, जीवन-ऊर्जा का, प्रवेशद्वार है। यह ऊर्जा, पूरे शरीर में फैलती है, और शरीर को जीवित रखती है। हृदय की धड़कन, पाचन क्रिया, सोचने की क्षमता, सब. उसी के आधार पर, चलते हैं। और, यह ऊर्जा असीमित नहीं है। हर शरीर में, इसकी एक निश्चित आपूर्ति होती है, जैसे किसी यंत्र में लगी हुई, फिक्स्ड बैटरी। ये न तो, बढ़ाई जा सकती है, न ही घटाई जा सकती है।

"जितनी चाबी, भरी राम ने, उतना चले, खिलौना"  कुछ-कुछ, वैसा ही।

आगे, डॉ. लोपा लिखती हैं, जब शरीर की, यह ऊर्जा, समाप्त हो जाती है, तब, सूक्ष्म शरीर, देह से, अलग हो जाता है। वही क्षण होता है, जब शरीर स्थिर हो जाता है, और हम कहते हैं, "प्राण चले गए"। यह प्रक्रिया, न किसी रोग से जुड़ी होती है, न किसी की गलती से। यह तो, शरीर की आंतरिक लय है, जो गर्भ में शुरू होती है, और पूरी होकर, मृत्यु तक पहुँचती है। 

इस ऊर्जा का व्यय, हर पल, पल-पल, होता रहता है, हर कोशिका, एक एक अंग, अपना, जीवन-काल, पूरा करता है। और, जब पूरे शरीर का "कोटा", समाप्त हो जाता है, तब शरीर, शांत हो जाता है। मृत्यु का क्षण, घड़ी से, नहीं मापा जा सकता। वह एक जैविक समय होता है, हर किसी का अपना, और अलग-अलग, होता है। किसी का जीवन, 35 साल में, पूरा हो जाता है, तो किसी का, 90 साल में, और दोनों ही, अपनी-अपनी, संपूर्ण यात्रा करते हैं। 

अगर, हम उसे, पराजय, या विवशता न मानें, तो कोई भी अधूरा, नहीं मरता। डॉ. लोपा के अनुसार, जब, आधुनिक चिकित्सा, मृत्यु को टालने का, कु-हठ करती है, तब, न सिर्फ, मरीज़ का, शरीर, थकता है, बल्कि पूरा परिवार ही, टूट जाता है। ICU में, चन्द अतिरिक्त, अनिश्चित, साँसों की भारी कीमत, बहुधा, जीवन भर की जमा-पूँजी, खत्म कर देती है। 

रिश्तेदार कहते रहते हैं, "अभी, आशा शेष है", पर मरीज़ का शरीर, पहले ही कह चुका होता है, "अब बस"। इसीलिए, वे लिखती हैं, और मैं भी, कि, "जब मेरी बारी आए, तो बस, मुझे ऐसे अस्पताल ले जाइए, जहाँ कोई अनावश्यक हस्तक्षेप न हो। इलाज के नाम पर, कोई दीर्घकालिक कष्ट नहीं दिया जाए। मेरे शरीर को रोका नहीं जाए, उसे जाने दिया जाए।"

पर सवाल यह है, क्या हमने, अपने लिए, ऐसा कुछ तय किया है ? क्या हमारा परिवार उस इच्छा का सम्मान करेगा? और जो करेंगे, क्या उन्हें, समाज में स्वीकार, मिलेगा ? क्या हमारे अस्पतालों में, ऐसी इच्छाओं का, सम्मान होता है, या अब भी, हर साँस पर, बिल बनेगा और हर मृत्यु पर दोष ? उत्तर, इतना आसान नहीं है। तर्क, और भावना का, संतुलन साधना, शायद सबसे कठिन कार्य है। 

अगर हम, मृत्यु को, शांत, नियत, और शरीर की आंतरिक गति से आई प्रक्रिया, मानना सीख जाएँ, तो शायद, मृत्यु का भय कम होगा, और डॉक्टरों से, हमारी अपेक्षाएँ अधिक यथार्थ-परक हो पायेंगी। मेरे अनुसार, मृत्यु से लड़ना, बंद करना चाहिए और उससे अगले, जीवन के लिए, तैयारी करनी चाहिए। और, जब वह क्षण आए, तो शांति से, सम्मान के साथ, उसका स्वागत करना चाहिए। बुद्ध की भाषा में कहें तो,


"मृत्यु, जीवन की यात्रा का, अगला चरण ही तो है।"

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