परिवर्तन !

कुछ, आप होते हैं, तो कुछ, आप नहीं होते। किसी में पारंगत, तो किसी की, हवा भी नहीं। और ये कोई अजूबा, कोई अनहोनी बात नहीं, हम सबकी, प्रायः यही कहानी है। गलत-सही, बहुत महत्वपूर्ण नहीं है, इसलिए कि आकलन होता है, दृष्टिकोण, और परिप्रेक्ष्य आधारित, नितान्त व्यक्तिगत। 

अच्छा, जो भी आप हैं, लोग ध्यान भी नहीं देते, कितने ही ख़ास हों, हुआ करें, तलाशा जाता है, आप में, वही, जो आप में, नहीं हैं। बदलना, हमेशा, आसान नहीं होता, और फिर फ़ायदा भी कोनी, इसलिए कि जब बदल ही गये, आप, तो जो हो गये, सो हो गये, तलाशा जायेगा, आप में, वह, जो आप, अब नहीं रहे।

यानी कि, तलाश तो रुकती नहीं, आप बदला करिये, आपकी मर्जी। अब शादी हुई नहीं, कि आप को सिरे से बदलने में लग जाते हैं, लोग, आप बदल भी, जाते ही हैं, समझौतावादी हुए तो जल्दी, स्वाभिमानी हुए तो, देर-सबेर। और फिर, शिकवा, "तुम ना, पहले, जैसे नहीं रहे !"

आशय यह नहीं, कि बदलना गलत। बेहतरी के लिए बदलना, प्रगति की निशानी, लेकिन फैसला, आपका खुद का ही हो, और रास्ता, ईमानदार आत्मावलोकन का, और गुजरे कल के मुकाबिल, बेहतरी का इरादा। चार लोगों के, कहने भर से, बदला करना ? अन्तहीन सिलसिला। चले जीवन भर, कितना ? अढ़ाई कोस 🤗

आमना-सामना, मृत्यु से, मृत्योत्तर !


"न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ, 
इतनी सी सिर्फ, ये बात है, 
किसी की आँख, खुल गयी, 
किसी को नींद, आ गयी !"
 - गोपाल दास "नीरज"

अधो-अंकित प्रस्तुति, मुझे मुक्त नैट पर दिखी। नहीं जानता कि ये, कितनी सच्ची, कितनी काल्पनिक, ये महत्वपूर्ण भी नहीं, इसलिए कि, अधिकांशतः से, मैं, राजी भी हूँ। इतना तक कि, अन्तिम समय, यदि तब, मैं, कुछ कह भी पाऊँ, तो इसी को, मेरी तत्कालीन अभिव्यक्ति, और इच्छा, माना जाये। इस समय, सुविचारित, स्थिर चित्त, होश-औ-हवास में, अधि-घोषित।

प्रो. डॉ. लोपा मेहता, मुंबई के, जी.एस. मेडिकल कॉलेज में, प्रोफेसर रहीं, और उन्होंने वहाँ, प्रमुख, एनाटॉमी विभाग, के रूप में, कार्य किया। 78 वर्ष की उम्र में उन्होंने, यह लिविंग विल (जीवन-कामना) बनाई। 

"जब शरीर साथ देना बंद कर देगा, और सुधार की कोई संभावना नहीं रहेगी, तब मुझ पर इलाज न किया जाए। ना वेंटिलेटर, ना ट्यूब, ना अस्पताल की, व्यर्थ भाग-दौड़। मेरे अंतिम समय में, शांति हो, इलाज पर ज़ोर से ज़्यादा, समझदारी को, प्राथमिकता दी जाए।"

डॉ. लोपा ने, सिर्फ यह दस्तावेज़ ही नहीं लिखा, बल्कि, मृत्यु पर, एक शोध-पत्र भी, प्रकाशित किया। उसमें, उन्होंने मृत्यु को, एक प्राकृतिक, निश्चित और जैविक प्रक्रिया के रूप में, परिभाषित किया। उनका तर्क था कि, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने, मृत्यु को, कभी भी, एक स्वतंत्र अवधारणा के रूप में, देखा ही नहीं। चिकित्सक का आग्रह, सदैव, यही रहा कि, मृत्यु, किसी ना किसी, रोग के कारण ही, होती है, और यदि, रोग का इलाज हो जाए, तो मृत्यु को, अनन्त तक, टाला जा सकता है। 

लेकिन, शरीर का विज्ञान, इससे कहीं गहरा है, ऐसा उनका तर्क है, कि  शरीर, कोई अनन्त तक, चलने वाली, मशीन नहीं है। यह, एक सीमित प्रणाली है, जिसमें, एक निश्चित, जीवन-ऊर्जा होती है। यह ऊर्जा, किसी टंकी से नहीं, बल्कि सूक्ष्म शरीर के माध्यम से, और अज्ञात से आती है। वही सूक्ष्म शरीर, जिसे हर कोई, महसूस तो करता है, पर देख नहीं सकता। मन, बुद्धि, स्मृति, और चेतना, इन सबका सम्मिलन ही, यह प्रणाली बनाता है।

यह सूक्ष्म शरीर, जीवन-ऊर्जा का, प्रवेशद्वार है। यह ऊर्जा, पूरे शरीर में फैलती है, और शरीर को जीवित रखती है। हृदय की धड़कन, पाचन क्रिया, सोचने की क्षमता, सब. उसी के आधार पर, चलते हैं। और, यह ऊर्जा असीमित नहीं है। हर शरीर में, इसकी एक निश्चित आपूर्ति होती है, जैसे किसी यंत्र में लगी हुई, फिक्स्ड बैटरी। ये न तो, बढ़ाई जा सकती है, न ही घटाई जा सकती है।

"जितनी चाबी, भरी राम ने, उतना चले, खिलौना"  कुछ-कुछ, वैसा ही।

आगे, डॉ. लोपा लिखती हैं, जब शरीर की, यह ऊर्जा, समाप्त हो जाती है, तब, सूक्ष्म शरीर, देह से, अलग हो जाता है। वही क्षण होता है, जब शरीर स्थिर हो जाता है, और हम कहते हैं, "प्राण चले गए"। यह प्रक्रिया, न किसी रोग से जुड़ी होती है, न किसी की गलती से। यह तो, शरीर की आंतरिक लय है, जो गर्भ में शुरू होती है, और पूरी होकर, मृत्यु तक पहुँचती है। 

इस ऊर्जा का व्यय, हर पल, पल-पल, होता रहता है, हर कोशिका, एक एक अंग, अपना, जीवन-काल, पूरा करता है। और, जब पूरे शरीर का "कोटा", समाप्त हो जाता है, तब शरीर, शांत हो जाता है। मृत्यु का क्षण, घड़ी से, नहीं मापा जा सकता। वह एक जैविक समय होता है, हर किसी का अपना, और अलग-अलग, होता है। किसी का जीवन, 35 साल में, पूरा हो जाता है, तो किसी का, 90 साल में, और दोनों ही, अपनी-अपनी, संपूर्ण यात्रा करते हैं। 

अगर, हम उसे, पराजय, या विवशता न मानें, तो कोई भी अधूरा, नहीं मरता। डॉ. लोपा के अनुसार, जब, आधुनिक चिकित्सा, मृत्यु को टालने का, कु-हठ करती है, तब, न सिर्फ, मरीज़ का, शरीर, थकता है, बल्कि पूरा परिवार ही, टूट जाता है। ICU में, चन्द अतिरिक्त, अनिश्चित, साँसों की भारी कीमत, बहुधा, जीवन भर की जमा-पूँजी, खत्म कर देती है। 

रिश्तेदार कहते रहते हैं, "अभी, आशा शेष है", पर मरीज़ का शरीर, पहले ही कह चुका होता है, "अब बस"। इसीलिए, वे लिखती हैं, और मैं भी, कि, "जब मेरी बारी आए, तो बस, मुझे ऐसे अस्पताल ले जाइए, जहाँ कोई अनावश्यक हस्तक्षेप न हो। इलाज के नाम पर, कोई दीर्घकालिक कष्ट नहीं दिया जाए। मेरे शरीर को रोका नहीं जाए, उसे जाने दिया जाए।"

पर सवाल यह है, क्या हमने, अपने लिए, ऐसा कुछ तय किया है ? क्या हमारा परिवार उस इच्छा का सम्मान करेगा? और जो करेंगे, क्या उन्हें, समाज में स्वीकार, मिलेगा ? क्या हमारे अस्पतालों में, ऐसी इच्छाओं का, सम्मान होता है, या अब भी, हर साँस पर, बिल बनेगा और हर मृत्यु पर दोष ? उत्तर, इतना आसान नहीं है। तर्क, और भावना का, संतुलन साधना, शायद सबसे कठिन कार्य है। 

अगर हम, मृत्यु को, शांत, नियत, और शरीर की आंतरिक गति से आई प्रक्रिया, मानना सीख जाएँ, तो शायद, मृत्यु का भय कम होगा, और डॉक्टरों से, हमारी अपेक्षाएँ अधिक यथार्थ-परक हो पायेंगी। मेरे अनुसार, मृत्यु से लड़ना, बंद करना चाहिए और उससे अगले, जीवन के लिए, तैयारी करनी चाहिए। और, जब वह क्षण आए, तो शांति से, सम्मान के साथ, उसका स्वागत करना चाहिए। बुद्ध की भाषा में कहें तो,


"मृत्यु, जीवन की यात्रा का, अगला चरण ही तो है।"

मासूम !


प्रतिबन्धित इलाके में, वो केवल इसीलिए गये कि पता तो रहे, क्या नहीं देखना है, कहाँ नहीं जाना है 🤗

भगवान जाने, धर क्यों लिए गये ? 🤔

जान-पाण !


निपट मूरख़, अनपढ़, गँवार, कभी स्कूल कॉलेज गया होता, गूगल शूगल सर्च करना आता होता, तो शायद जानता भी, कि जो काम, वो अनायास ही, करे बैठा है, वो तो घोषित, जड़-असम्भव, सूची में शामिल है। करना तो दूर, कोशिश भी, निधेष, वक्त की बर्बादी !

मगर अब तो, हो गया, सो हो गया।
माफ़ी माँगने के सिवा, और करे भी क्या ? 🤗

Happy "शिक्षक दिवस" !


आज शिक्षक दिवस है, यानी शिक्षित करने वालों का, सिखाने वालों का, दिन। इसलिए, यह उक्ति, सर्वथा प्रासंगिक प्रतीत होती है:

"कमाया करो, खर्च करने से पहले, और,
सीखा करो, कुछ सिखाने से पहले ☝️"

शिक्षक, सच में होना, आसान बात नहीं, उत्सुक शिष्य, खुद और पहले, होना अनिवार्य होता है। आप, पहले स्वयं अनुभव करें, मनन करें, थोथा-थोथा उड़ा दें, सार-सार बचायें और तभी, इष्टतम को, समर्पित शिष्यों को, उपलब्ध करायें।

आजकल, टाइम है, किसके पास, मगर ? कौन झंझट पाले, यहाँ-वहाँ से, "AI" से, इकट्ठा करो, और फारवर्ड कर दो, अगला समझा करे। आप तो, गरिमा को, उपलब्ध हो ही गये। 

वैसे, इतना निश्चित है कि अगले ने भी, पढ़ना समझना कोनी, ऐसे ही आगे फारवर्ड कर देना है। हैरान ना हों, अगर आपकी, फाॅरवार्डेड पोस्ट, घूम फिर कर, आपके ही पास लौट आये, बिना ओपन हुए 😂

इसीलिए, आजकल चैक हवा में, हर तरफ तैरते दिखेंगे, कैश कोई कराता नहीं, खाते में पैसा है किसके पास ? तथापि, वास्तविक शिक्षकों की, तेजी से विलुप्त होती प्रजाति का, श्रद्धापूर्वक नमन, और अभिनन्दन ! 🙏



सात्विक भी, व्यावहारिक भी !


सच्चाई और ईमानदारी, सात्विक गुण हैं, और समझदारी व्यावहारिक। उतना सात्विक नहीं, मगर महत्वपूर्ण बहुत, संरक्षण देता है, सार्थक बनाता है, इसीलिए ! रीढ़ की हड्डी की तरह !!

पहचान भी पायेंगे, सम्मान भी, पर खड़े भी रह पायें, तभी ना ? 🤗

मूल्यांकन !


वो जो कहते हैं कि भगवान है, भी ? दिखता तो है ही, नहीं ! जान लें कि सिर्फ वही दिखता है, जब कोई और दिखना, बन्द हो जाता है । ये भी कि, वही देख भी लेता है, जब आप पक्का इन्तजाम कर लेते हो कि कोई और तो, नहीं देख रहा।

आपके, और आपके भगवान के बीच, किसी तीसरे को, लाना ही लाना, ना कोई मजबूरी, ना कतई जरूरी। ये चॉयस से ज्यादा, कुछ भी नहीं। भगवान के साथ, आपका यह सीधा संवाद, प्रायः आपके अन्तर्मन, या अन्तरात्मा के माध्यम से होता है।

तो अगली बार, जब आपका अन्तर्मन, किसी काम को करने को कहे, या तो करने से रोके, और आप फिर भी विपरीत करें, कि चार लोग क्या कहेंगे ? समझ लें कि अन्यथा सीधे सरल जीवन में गाँठ, आपने खुद लगा ली।अब पूरे मनोयोग से, ना तो आप कुछ भी कर पायेंगे, ना करे बिना, रह पायेंगे। और मज़े की बात, चार लोग, वहीं के वहीं, कुछ ना कुछ तो कहने पर तुले, चाहे कुछ भी करो 🤗

और, जो भी आप करें, ग़र स्वान्त: सुखाय से इतर, किसी से अनुमोदन लेकर, प्रशंसा पाने के लिये, या आलोचना से बचने के लिए किया तो, जाने-अनजाने, अपने संतोष, और कार्य समुचित संपन्न करने के आनन्द का नियंत्रण, किसी और के हाथ दे बैठे। अब, मर्ज़ी, मूड, मोटिव, सब फ्रंट सीट पर, आपका किया-धरा, सब पिछली सीट पर ? जी नहीं, डिक्की में। चांस की बात, चार लोग कृपालु हुए, तो बल्ले बल्ले, ईर्ष्यालु हुए तो ? बण्टाढार 😂

पूजा वाली बिल्ली !


एक कहानी से, अपनी बात कहूँ, एक गाँव, गाँव का एक परिवार, गृह स्वामी, स्वामिनी, एक बालक ..और एक बिल्ली। बिल्ली को घर के अन्य सदस्यों, जितने ही अधिकार प्राप्त थे, शायद, थोड़े ज्यादा ही। आने जाने पर, कोई रोक-टोक नहीं, घर का वही खाना, बाकियों जैसा ही, खाती थी, हर जगह पहुँच, दिन अच्छे गुजर रहे थे।

मगर, समय इन्सान को बूढ़ा, और बच्चों को युवा, बनाता ही है। एकाएक, गृहस्वामी चल बसा, और एक साल बाद, उसकी बरसी का दिन, भी आया। किसी ने चेताया कि, और कोई दिन तो, कोई नहीं, मगर बरसी का दिन, यानी पूजा का दिन। भोजन सामग्री की पूजा से पहले, बिल्ली कहीं झूठा ना कर दे, इन्सान जितना कहाँ समझेगी ?

उपाय हुआ कि, बिल्ली को, एक डलिया से ढक दिया जाये। साँस बराबर मिलती रहेगी, आना जाना कन्ट्रोल में। पूजा पूरी होते ही, टोकरी हटा देंगे, फिर से आजाद, घूमेगी फिरेगी, कुछ देर की तो बात। उपाय काम कर गया, और पूजा निर्विघ्न सम्पन्न हो गई। अब तो ये तरकीब, साल-दर-साल, आजमाई जाने लगी, बोलें तो, रस्म जैसी हो गई। 

बेटे की शादी हो गई, नई बहू ने, शुरू से ही, ससुर जी की बरसी का आयोजन, ऐसे ही होते देखा, और सीखा, और समझा। फिर सास भी, सिधार गईं। बहू ने, अबकी खुद से, ससुर जी की बरसी, उसी रीति रिवाज के साथ, पूरी की। कुछ साल चला, फिर एक दिन, बिल्ली भी चल बसी। अबकी बरसी, बहू टेंशन में थी, उपाय सूझता ना था। 

आखिर वह जा पहुँची, पड़ोसी चाची के यहाँ, मदद की विनती लेकर, "चाची जी, आपकी मदद चाहिए। ससुर जी की बरसी है, माताजी भी नहीं हैं, अकेली रह गई हूँ, बाकी सब तो इन्तजाम कर लिया, मगर बिल्ली का कैसे करूँ ? अगर थोड़ी देर को, आपकी बिल्ली, मिल जाती ?

चाची का हृदय, उदार था, खुशी-खुशी, अपनी बिल्ली, बहू के हवाले कर दी। साल, दो साल काम चला, फिर वो बिल्ली भी नहीं रही। मोहल्ले में, और किसी ने बिल्ली पाली नहीं थी। बच्चे भी बड़े, और सयाने हो गये थे, तो माँ को समझाया, कि बिल्ली पूजा में, कुछ करती थोड़े ना है, बस सांकेतिक ही तो है। उसकी जगह, नकली रख दें, असली जैसी ही, तो कौन फरक पड़ेगा ? रस्म ही तो पूरी होनी है ? 

और कोई, विकल्प ना देख, यही प्रस्ताव मान लिया गया। फिर माँ की भी उमर हो गई, तो बच्चों की सोच ही, मायने रखने लगी। बिल्ली का आकार, और महत्व, दोनोः कम ही होते गये। अब बच्चों के भी, बच्चों की चलने लगी है। बिल्ली को भूल, सारा ध्यान टोकरी पर आ गया है। सही भी है, वही तो दिखती है, उसके नीचे, कुछ भी हो, या ना भी हो, कौन देखता है ?

मगर, रीति रिवाजों का, बहुत ध्यान रखते हैं, बच्चे। अच्छी-अच्छी डिजाइन की, मँहगी सै मँहगी, टोकरी लाते हैं, चाव से, उत्साह से, सजाते हैं। आपस में, कम्पिटीशन, भी होता है, टोकरी किसकी, सबसे अच्छी ? टोकरी के नीचे, अब कोई बिल्ली नहीं होती, बस। और, जरूरत भी क्या ? 🤗

THE QUEUE....