Collaboration !


अभी हाल ही में, आमिर ख़ान की "सितारे ज़मीन पर", देखने का संयोग हुआ। एक डायलॉग, जो दिल के बहुत नजदीक पहुँचा, पर आपसे चर्चा करना चाहूँगा :

हर व्यक्ति का नार्मल, यानी सामान्य परिस्थितियाँ, भिन्न भिन्न होती हैं, और अपनी अपनी होती हैं, महत्वपूर्ण मगर, एक जैसी ही होती हैं, प्रासंगिकता के अनुरूप, कभी थोड़ा कम, कभी थोड़ा ज्यादा। इसे उदाहरण से समझते हैं। 

कोई युवा, पढ़ाकू टाइप का, उसका नार्मल हुआ, जैसे 95% नम्बर। 90 से 100 की कोई भी परसेन्टेज, उसे सहज रखेगी, इससे कम होगी तो विचलित, और कम, तो चिन्तित, उच्चतर कोई भी परसेन्टेज, इस व्यक्ति के लिए, अप्रत्याशित नहीं।

कोई मनमौजी होगा, पास होने भर से, काम बन जाने लायक, तो उसका नार्मल, 35 से पैंतालीस। कम रह गये तो टेन्शन, 50 से ऊपर, तो मोहल्ले भर में मिठाई बंटनी तय। पहले वाले के, दस और भी ज्यादा आए होते, यानी 60, तो घर में मातम छाया होता। 

नार्मल, अलग-अलग, अपना अपना ! नार्मल, यानी शान्ति और सन्तोष। दायरे भी, नार्मल हुआ करते है, किसी को पढ़ना पढ़ाना नार्मल, तो किसी को कसरत, तो किसी को भजन कीर्तन, किसी को कुछ और। सब प्रासंगिकता, और स्वभाव की बात, क्या सही, क्या गलत।

अपने समाज में, प्रयास और उपलब्धि, सामूहिक हुआ करती है, अनेक लोगों के संयुक्त प्रयास से। योजना के साकार होने के लिए, नियन्त्रण क्रमानुक्रम (control hierarchy) अनिवार्य होती है। आसान भाषा में, एक मुखिया, जिसके पास अधिकार भी हो, जवाबदेही भी, और बाकी सब सहयोगी। अगर सबके नार्मल, एक से ना हों, तो ?

जैसे, पिता गुजर गये, तीन बेटे, बड़े की नार्मल फसल, धान, मँझले की मक्का और छोटे की जायद, यानी कि फल सब्जी वगैरह। एक ही खेत में, सब अपने अपने हिसाब से खाद और बीज सहित, संगत तैयारी करें, तो खेत में कुछ और नहीं, चरस ही उगेगी, यानी तैयारियाँ सब आपस में, उलझ कर रह जायेंगी, सार्थक कुछ भी उगना नहीं, लड़ाई झगड़े ऊपर से।

समाधान एक ही है, सब अपने अपने विचार, गलत-सही, दरकिनार कर, मुखिया का अनुसरण करें। मुखिया का निर्धारण, युक्तियुक्त हो, अनुभव, सबसे ज्यादा हो, या योग्यता, या स्वीकार्यता, जो भी हो, एक बार मुखिया निश्चित हो जाये तो सभी, मुखिया का ही अनुसरण, सहयोग करें, बात तभी बनेगी। अपात्र, अक्षम सिद्ध हो, या विश्वसनीयता ही खो बैठे, तो पहले मुखिया बदलें, फिर रास्ता, और फिर रणनीति।

इस वक्तव्य के निहितार्थ व्यापक हैं, और मेरे नार्मल के अनुसार उपयोगी भी। विचार करने में तो, बुराई कोनी !

किं-कर्तव्य-विमूढ़ !


कौन फ़रमाइश करूँ, पूरी, कौन सी रहने दूँ,
अपनी तनख्वाह, कई बार तो, गिन ली मैंने !

तनख़्वाह ही नहीं, सामर्थ्य भी सीमित ही होती है, हर इन्सान की, वैसे तो जरूरतें भी सीमित ही होती हैं, मगर हसरतों की, सीमा नहीं। ये थैला, भगवान जाने काहे से बना होता है, जितना भरता है, उतना ही फैलता जाता है, हमेशा मिलेगा, खाली का खाली।

आदमी एक, भूमिकाएं अनेक, बेटा भी, भाई भी, पति भी, बाप भी, दोस्त भी, पड़ोसी भी, बाॅस भी, मातहत भी, सामन्जस्य तो, अनिवार्यतः बिठाना ही पड़ता है। थोड़ा इसका, थोड़ा उसका, किसी का कम, किसी का थोड़ा ज्यादा। किसी का अभी कर दिया, कुछ अगली बार के लिये, कभी-कभार, कुछ नहीं भी हो पाता। 

अनगिनत ख्वाहिशों को, नपी तुली तनख्वाह में, फिट करने जैसी बात।

प्रायः घर-घर की ऐसी ही कहानी है। सौभाग्यशाली हैं वो, जिनके पाल्य, हासिल की कद्र करते हैं, सीमाओं को समझते हैं, और उपकृत ना सही, संतुष्ट रहते हैं, सहयोग की सतत सज्ज भी रहते हैं। ऐसे परिवार दिखेंगे, कभी कभार ही, अपवाद स्वरूप।

इसका विपरीत, केवल उसे ही गिनते जाने वाला, जो हर कोशिश के बाद भी, हो नहीं पाया, या थोड़ा-बहुत कम रह गया। जो हो गया, उसका महत्व कोई नहीं, जो कम रहा, उसी का हिसाब-किताब, उलाहना, ताने और असम्मान। बहुत बार तो, हो जाये तो भी किसी अन्य से, तुलनात्मक, कम होने के कारण, असंतोष बना ही रहता है।

मजे की बात, जिससे तुलना में, शिकायत है, सोचता वह भी यही है, इसलिए कि, हासिल तो कोई गिनता ही नहीं, सारी बात, बाकी की है, और बाकी हमेशा बना ही रहता है। तनख्वाह, कई बार तो गिनी जा चुकी। 

ये करमजले, जिन्दगी भर खटते हैं, अपयश भोगते हैं, यही लेकर जाते हैं, यही छोड़कर जाते हैं। अपने कर्तव्य, कितनी ही निष्ठा, कितनी ही सच्चाई से पूरे क्यों ना किये हों,

हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, विधि हाथ 🤗

THE QUEUE....