बात भोजन की : जुटाना, बनाना, खाना-खिलाना !


इस प्रसंग के निहितार्थ, बहुत मूल्यवान हैं कि घर में खाद्यान्न की व्यवस्था करने वाला अधिक महत्वपूर्ण है, या उस खाद्यान्न को, सुरुचिपूर्ण खाद्यपदार्थ में, बदलने वाला ?

वैसे, सबसे पहले तो यह प्रश्न उठना ही दुर्भाग्यपूर्ण है, इसलिए कि भोजन की व्यवस्था, एक सामूहिक प्रक्रम होता है, होना चाहिए, सर्व-सहयोग से, बिना योगदान कम-ज्यादा होने के, किसी विवाद के। 

खाने के स्वाद, और शरीर को लगने में, मन की भूमिका अद्वितीय होती है, मूलभूत भी। विवादों में उलझकर, मन ही खराब हो जाये, तो अच्छे से अच्छा पकवान भी, ना स्वाद आता है, ना तन को लगता है। भूख ही मर जाती है, तो खाया क्या, ना खाया क्या ?

मगर अगर निर्णय लेना ही हो तो खाद्यान्न की व्यवस्था, पहली अनिवार्यता है। यही ना हुआ तो पाक कला, धरी की धरी रह जाती है, अप्रासंगिक। खाद्यान्न की व्यवस्था है, अच्छा नहीं भी बन पाया, तो स्वाद भले ही ना आये, पेट तो कच्चे पक्के से भी, भर ही जाता है। भूख शान्त तो हो ही, जाती है। 

इन्सान जब कभी, विपरीत परिस्थितियों में उलझा है, अकल्पनीय, साधन प्रयोग कर के भी, जिन्दा बना रहा है। जैसी भी हो, पर जान रहती है। और जब तक जान है, जहान की उम्मीद, कायम रहती है। 🤗

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