दुर्दिन !


समझो, नदिया है जीवन; नाव है, भरण-पोषण की, जो भी व्यवस्था; इसमें भरते रहने वाला पानी है, आये दिन की चुनौतियाँ; माँझी है, परिवार का/की मुखिया; और साथ में, उसका सहारा, सहयोगी, सहभागी और प्रायः उसी पर आश्रित, हमसफ़र।

समय के साथ-साथ, नाव जर्जर होती जाती है, यहाँ वहाँ से आकर, नाव में भरने वाला, नाव का तैर पाना, कठिन बनाने वाला, पानी बढ़ता जाता है, और उसे अनिवार्यतः निकाल बाहर फेंकने की, माँझी की क्षमता, घटती जाती है। 

यानी,
कैपेसिटी हाफ़, ते मुसीबतें डबल ! राहत की बात, कि इनमें तीन-चौथाई, परिहार्य होती हैं, खाँम-खाँ। उनसे बचा जा सकता है, मगर दुर्भाग्य कि आती वहाँ से हैं, जहाँ से बाधाओं की जगह, उनका सामना करने का सहयोग, संबल और प्रोत्साहन आना चाहिए। 

मूढ़मति को, इसी नाव, इसी मांझी के भरोसे, बलबूते, पार भी उतरना है, यह मूलभूत बात, बहुधा देर बाद समझ आती है, जब किसी और नाव पर सवार हो नहीं पाते, हो भी जायें, तो उतार दिए जाते हैं। और, आपकी, आपकी अपनी नाव तो, डूब चुकी, कब की, किसी और के नहीं, आपके ही करमों से।

अब, दिल में हो दर्द, तो दवा लीजै,
दर्द, दवा से ही हो, तो फिर क्या कीजै ? 
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