परिवार की बात, बात की बात !




"रानी रूठेंगी, तो, सुहाग, अपना ही, तो लेंगी !"

यह लोकोक्ति, राजा दशरथ के समय से, या शायद, और पहले से, चली आती है। मगर आज भी, उतनी ही सटीक, उतनी ही प्रासंगिक, कीमती और महत्वपूर्ण है।

दो अपवाद भी हैं, इसे, या तो पति निकम्मा हो, या/तथा, पत्नी आत्मनिर्भर हो । सामान्यतः संयोग से, सौभाग्य से, पति पत्नी के दायरे, प्रायः लगभग स्पष्ट होते हैं, अपनी बात कहिये, जरूर, फ़रमान नहीं ना सुनायें, मजबूर नहीं ना, करें। 

मनमानी ही होती हो, तो जो भी कहो, ये परिवार तो, नहीं । परिवार में, अहं नहीं होता, छोटा बड़ा नहीं होता, अहसान नहीं होता, मजबूरी भी नहीं होती, अपना, अपना तो ख़ैर, होता ही नहीं। साथ तैरना, साथ ही डूबना, इतर, सब रास्ते, बर्बादी की और। 

माँ-बाप, भाई बहन, अपने ही बच्चे, हमदर्द सहकर्मी, सब अपनी जगह, मगर पति, या पत्नी की जगह, कोई नहीं लेता, ले सकता ही नहीं। फौरी बात और !

कि रिश्तों में, समझदारी, बहुत होना, जरूरी है !
बुरा, दोनों को लगता है, समझना, ये जरूरी है !
हों गैर, तो ख़ैर, वास्ता कैसा, बुरा, अपनों का लगता है,
जरा सी बात है, लेकिन, समझना भी, जरूरी है !!




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