अपनी तनख्वाह, कई बार तो, गिन ली मैंने !
तनख़्वाह ही नहीं, सामर्थ्य भी सीमित ही होती है, हर इन्सान की, वैसे तो जरूरतें भी सीमित ही होती हैं, मगर हसरतों की, सीमा नहीं। ये थैला, भगवान जाने काहे से बना होता है, जितना भरता है, उतना ही फैलता जाता है, हमेशा मिलेगा, खाली का खाली।
आदमी एक, भूमिकाएं अनेक, बेटा भी, भाई भी, पति भी, बाप भी, दोस्त भी, पड़ोसी भी, बाॅस भी, मातहत भी, सामन्जस्य तो, अनिवार्यतः बिठाना ही पड़ता है। थोड़ा इसका, थोड़ा उसका, किसी का कम, किसी का थोड़ा ज्यादा। किसी का अभी कर दिया, कुछ अगली बार के लिये, कभी-कभार, कुछ नहीं भी हो पाता।
अनगिनत ख्वाहिशों को, नपी तुली तनख्वाह में, फिट करने जैसी बात।
प्रायः घर-घर की ऐसी ही कहानी है। सौभाग्यशाली हैं वो, जिनके पाल्य, हासिल की कद्र करते हैं, सीमाओं को समझते हैं, और उपकृत ना सही, संतुष्ट रहते हैं, सहयोग की सतत सज्ज भी रहते हैं। ऐसे परिवार दिखेंगे, कभी कभार ही, अपवाद स्वरूप।
इसका विपरीत, केवल उसे ही गिनते जाने वाला, जो हर कोशिश के बाद भी, हो नहीं पाया, या थोड़ा-बहुत कम रह गया। जो हो गया, उसका महत्व कोई नहीं, जो कम रहा, उसी का हिसाब-किताब, उलाहना, ताने और असम्मान। बहुत बार तो, हो जाये तो भी किसी अन्य से, तुलनात्मक, कम होने के कारण, असंतोष बना ही रहता है।
मजे की बात, जिससे तुलना में, शिकायत है, सोचता वह भी यही है, इसलिए कि, हासिल तो कोई गिनता ही नहीं, सारी बात, बाकी की है, और बाकी हमेशा बना ही रहता है। तनख्वाह, कई बार तो गिनी जा चुकी।
ये करमजले, जिन्दगी भर खटते हैं, अपयश भोगते हैं, यही लेकर जाते हैं, यही छोड़कर जाते हैं। अपने कर्तव्य, कितनी ही निष्ठा, कितनी ही सच्चाई से पूरे क्यों ना किये हों,
हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, विधि हाथ 🤗
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