बात कर्म, और उसके फल की !


"कर्मण्ये वाधिकारस्ते, मा फलेषु, कदाचनः"

यह श्रीमद् भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का, एक प्रसिद्ध श्लोक है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन को कर्मयोग का, उपदेश देते बताए गए हैं। 


इसका अर्थ है, "तुम्हारा अधिकार, केवल कर्म करने तक ही सीमित है, उसके फल पर नहीं। इसीलिए, कर्म का प्रयोजन, फल की इच्छा नहीं होना चाहिए, और न ही, फल की आशा, कर्म करने में, तुम्हारी आसक्ति का आधार"


इस श्लोक का गूढ़ार्थ यह, कि मनुष्य को अपने कर्तव्यों का वहन, निष्काम भाव से करना चाहिए, अर्थात् बिना किसी स्वार्थ, या फल की अपेक्षा के, क्यों कि जब हम कर्म करते हैं, तो उसका परिणाम, हमारे नियंत्रण में, हो नहीं सकता, वह अनेकानेक कारकों पर निर्भर करता है, जो हमारे अधीन नहीं। अस्तु, हमें केवल अपने कर्म पर ही ध्यान देना चाहिए, फल पर नहीं। 


कोई परीक्षार्थी, स्वयं, अपना मूल्यांकन, कैसे करेगा ? इसलिए कि कृत कर्म के, स्वयं पर, प्रभाव का अनुमान तो सम्भवतः वह कर भी ले, समग्र और व्यापक प्रभाव, उसकी क्षमता से, परे की बात, और सम्यक दृष्टि में तो, समूची सृष्टि ही, प्रासंगिक हुआ करती है। तो कृत-कर्म का व्यक्तिगत मूल्यांकन, और कर्मफल पर अधिकार, युक्तियुक्त नहीं।


कर्म-फल, अनिवार्य होता है, मगर। इसे, मूल सिद्धांत ही, समझें। एक, कर्म-फल, कर्ता का अधिकार नहीं, कर्ता के अधीन नहीं, और दो, कर्म-फल, जो भी, जभी भी, नियत हो, इससे भागने का उपाय, कोई होता नहीं, ये अनिवार्य है, भोगना ही पड़ता है। ये भी, कि कृत के साथ-साथ, अकृत, यानी, करने योग्य, परन्तु उपेक्षित, कर्म भी विचारे जाते हैं। ये, हमेशा याद रखने, जैसी बात है।


संतोष की, सुख की बात, यह कि आकलन न्यायपूर्ण, पूर्वाग्रह रहित, और सकारात्मक होता है। भोलेपन में, निराशय, अज्ञानता, या विवशता, यानी परिस्थितियों का भी, संज्ञान लिया जाता है, किये गये प्रयासों का भी, भले उनकी परिणति, परिणामों में, ना हो पाई हो।निर्णय पृकृति का, स्वयं परमपिता का, सटीक, और सही समय। ना देर, ना अन्धेर, आप जो चाहे, सोचें।

गम्भीर बात, सतर्कता की बात, ये कि दण्डाधिकारी, कठोर है, दृढ़ निश्चयी है, उससे छुपा कुछ भी नहीं, सब कुछ जानता है, वह, उसे भी, जिसे छुपाने के, लाख उपाय करते हो, आप। कोई चालाकियाँ, कोई षडयंत्र काम नहीं आते, सब बल, पद-बल, प्रतिष्ठा-बल, बाहु-बल, धन-बल बौने हो जाते हैं, और कर्म-फल वैयक्तिक होता है, भले लाभ के अंशाधिकारी, कितने ही, क्यों ना रहे हों। 


कर्म खुद किया हो, या करवाया हो, निमित्त बने हों, कर ना पाये हों, योजना ही बनाई हो, मनस: वाचा कर्मणा, लिप्त तो हो ही गये। बैंक खाते की तरह, मोक्ष तक, जन्म जन्मांतर, डेबिट क्रैडिट होता ही रहता है, सदाचरण से क्रैडिट स्कोर, आपके ही हाथ। लोन बहुत बार, आमन्त्रण के साथ, सुलभ होता है तो कभी बैंक के चक्कर पे चक्कर लगाकर भी नहीं। सौभाग्य हो, या दुर्भाग्य, अप्रत्याशित हो तो, यही आधार, यही हेतुक 🤗


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