तो साहब, टाइटल तो था केवल आपको आकर्षित करने के लिये, काम खतम, रोल खतम। मैं ना तो ज्ञानी हूँ, ना एसा कोई दावा ही करता हूँ, राजी वाजी कभी करूँगा भी नहीं । मैं बुद्धू ही भला।
ज्ञान के नाम पर कुछ है ही नहीं, तो बांटू क्या, हाॅ, अनुभव है। कामयाबियों का भी, निपट बेवकूफियों का भी ... और वो मैं, ईमानदारी से साझा करने को राजी हूँ । अनुभव को मथकर, अगर आप ज्ञान जैसा कुछ निकाल सकें तो, यह परिश्रम आप ही का, कामना आप ही की और उपलब्धि, यानी ज्ञान भी आप ही का, निस्संदेह, फुल क्रेडिट के साथ ।
अगर, अपने पास ज्ञान जैसा कुछ मान भी लें, चर्चा के लिये, तो इसे वाकई बांटा भी जा सकता है क्या ? व्यक्तित्व की तरह, ज्ञान भी वैयक्तिक ही होता है, एक ही विचार, किसी का ज्ञान हो सकता है, तो किसी और के लिये निपट बकवास । पृकृति तो जाते जाते बदलती है, तो आना जाना होगा कैसे। टोपो तो सम्भव है, मगर मूलता पीछे ही छूट जाती है, आपको हवा भी नहीं लगेगी। टोकरी, खाली की खाली ।
फिर, आपको क्यों लगता है कि मैं हमेशा सही ही होऊंगा, मुझे तो खुद नहीं लगता। ऐसा कोई प्रयास या कामना है भी नहीं । टेढ़ा मेढ़ा है तो क्या हुआ, अपनाने में मुझे कोई संकोच नहीं । फिर दृष्टिकोण, ये भी तो व्यक्तिगत गुण है । किसी का टेढ़ा, किसी को अद्वितीय कलाकृति लगे तो क्या करियेगा ?
सर्वमान्यता, एक अनावश्यक कामना है,अतार्किक, व्वयाहारिक रूप से लगभग असंभव !
मेरी छोटी बेटी पूछ रही थी, पापा टाॅपिक क्या रखेंगे ? जवाब, स्पेक्ट्रम की तरह सारे के सारे, मेरी पसंद या आप की, या रिशफल्ड ! कुछ भी हो सकता है, समयपरक या परमप्रेरित । गीत फरमाइशी भी हो सकते हैं... जो मन भाये ! सार्वजनिक प्रासंगिकता के अधीन, त्याज्य कुछ भी नहीं ।
बहुत हुआ, फिर आते हैं, अभी फीड बैक मिलने लगे तो मदद मिले.... ये काम तो आप ही का है 🙏
2 comments:
U r great guru ji
प्रसंग का अंदाज़ काफी आकर्षक है..मज़ा आया पढ़ कर।
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