पूजा वाली बिल्ली !


एक कहानी से, अपनी बात कहूँ, एक गाँव, गाँव का एक परिवार, गृह स्वामी, स्वामिनी, एक बालक ..और एक बिल्ली। बिल्ली को घर के अन्य सदस्यों, जितने ही अधिकार प्राप्त थे, शायद, थोड़े ज्यादा ही। आने जाने पर, कोई रोक-टोक नहीं, घर का वही खाना, बाकियों जैसा ही, खाती थी, हर जगह पहुँच, दिन अच्छे गुजर रहे थे।

मगर, समय इन्सान को बूढ़ा, और बच्चों को युवा, बनाता ही है। एकाएक, गृहस्वामी चल बसा, और एक साल बाद, उसकी बरसी का दिन, भी आया। किसी ने चेताया कि, और कोई दिन तो, कोई नहीं, मगर बरसी का दिन, यानी पूजा का दिन। भोजन सामग्री की पूजा से पहले, बिल्ली कहीं झूठा ना कर दे, इन्सान जितना कहाँ समझेगी ?

उपाय हुआ कि, बिल्ली को, एक डलिया से ढक दिया जाये। साँस बराबर मिलती रहेगी, आना जाना कन्ट्रोल में। पूजा पूरी होते ही, टोकरी हटा देंगे, फिर से आजाद, घूमेगी फिरेगी, कुछ देर की तो बात। उपाय काम कर गया, और पूजा निर्विघ्न सम्पन्न हो गई। अब तो ये तरकीब, साल-दर-साल, आजमाई जाने लगी, बोलें तो, रस्म जैसी हो गई। 

बेटे की शादी हो गई, नई बहू ने, शुरू से ही, ससुर जी की बरसी का आयोजन, ऐसे ही होते देखा, और सीखा, और समझा। फिर सास भी, सिधार गईं। बहू ने, अबकी खुद से, ससुर जी की बरसी, उसी रीति रिवाज के साथ, पूरी की। कुछ साल चला, फिर एक दिन, बिल्ली भी चल बसी। अबकी बरसी, बहू टेंशन में थी, उपाय सूझता ना था। 

आखिर वह जा पहुँची, पड़ोसी चाची के यहाँ, मदद की विनती लेकर, "चाची जी, आपकी मदद चाहिए। ससुर जी की बरसी है, माताजी भी नहीं हैं, अकेली रह गई हूँ, बाकी सब तो इन्तजाम कर लिया, मगर बिल्ली का कैसे करूँ ? अगर थोड़ी देर को, आपकी बिल्ली, मिल जाती ?

चाची का हृदय, उदार था, खुशी-खुशी, अपनी बिल्ली, बहू के हवाले कर दी। साल, दो साल काम चला, फिर वो बिल्ली भी नहीं रही। मोहल्ले में, और किसी ने बिल्ली पाली नहीं थी। बच्चे भी बड़े, और सयाने हो गये थे, तो माँ को समझाया, कि बिल्ली पूजा में, कुछ करती थोड़े ना है, बस सांकेतिक ही तो है। उसकी जगह, नकली रख दें, असली जैसी ही, तो कौन फरक पड़ेगा ? रस्म ही तो पूरी होनी है ? 

और कोई, विकल्प ना देख, यही प्रस्ताव मान लिया गया। फिर माँ की भी उमर हो गई, तो बच्चों की सोच ही, मायने रखने लगी। बिल्ली का आकार, और महत्व, दोनोः कम ही होते गये। अब बच्चों के भी, बच्चों की चलने लगी है। बिल्ली को भूल, सारा ध्यान टोकरी पर आ गया है। सही भी है, वही तो दिखती है, उसके नीचे, कुछ भी हो, या ना भी हो, कौन देखता है ?

मगर, रीति रिवाजों का, बहुत ध्यान रखते हैं, बच्चे। अच्छी-अच्छी डिजाइन की, मँहगी सै मँहगी, टोकरी लाते हैं, चाव से, उत्साह से, सजाते हैं। आपस में, कम्पिटीशन, भी होता है, टोकरी किसकी, सबसे अच्छी ? टोकरी के नीचे, अब कोई बिल्ली नहीं होती, बस। और, जरूरत भी क्या ? 🤗

संघर्ष भरा जीवन !


ये लिखा-पढ़ी, ये गवाही, ऐसे ही नहीं है,
कोई तो जबान दे कर, मुकर गया होगा !

जीवन, अपने आप में, सहज सरल ही है, इसमें उलझनें तो, हम खुद लेकर आते हैं, अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह के चलते । छोड़िए औरों को, आप, खुद भी, कितने ही आगे, क्यों ना आ गये हों,  पलट पड़ें, अगर। जैसे भीड़ में, एक आदमी तो, वापस मुड़ा, चल पड़ा, सही दिशा की ओर, प्रकाश की ओर ! अँधेरा, कितना ही घना हो, एक दिया ही बहुत होता है। छोटा सा, नन्हा सा हो, तो भी।

यही "तमसो-मा, ज्योतिर्गमय" ! 

मैं, अकेला, ही चला था, जानिब-ए-मंजिल, मगर, 
लोग साथ आते गये, और कारवाँ बनता गया।

असीमित का सीमांकन !


तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा ! 
(He gets it, who's prepared to give it up) 
यह वेदोक्ति है !

यह भी कि "सबसे अधिक, वही जानता है, जो जानता है कि, वो जानता, कुछ भी तो नहीं।" 

"हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता", सुना है ना ?

यह, इस अस्तित्व, और आस्था की, विराटता का, अनादर और अस्वीकार है कि हम इसे, मापने की, परिभाषित करने का प्रयास करें। भक्ति, वैसे भी भावना-प्रधान होती है, और भावना की, केवल अनुभूति ही हुआ करती है, अभिव्यक्ति नहीं। हो ही नहीं सकती, इसलिए कि शब्दों की, कितने ही सारे, कितने ही सुन्दर कहे जायें, होती है सीमा।

दृश्य देखे हैं, पृकृति के, कोई ओर, ना छोर, विस्तार असीमित। आपने कैमरे में कैद कर लिया, और जड़ दिया फ्रेम में। अब कितना ही बड़ा, कितना ही सुन्दर हो ये फ्रेम, मगर दृश्य की सीमा बन गया। अब दृश्य की यह छवि, फ्रेम से बड़ी, नहीं हो पाएगी। दृश्य प्राकृतिक नहीं रहा, छाया-प्रति बन कर रह गया।

भगवान के साथ भी, हम यही कर रहे हैं। उसे भजनों में, पूजा विधियों में, कृत्य-अकृत्य में समेटना, परिभाषित करना, उसे सीमाओं में बाँधना ही तो हुआ । उदार, सुसज्जित, कितना भी हो। एक तस्वीर हो, फिर तो फोटो-कॉपी भी बनेगी, फोटो शापिंग भी होगी, मगर कागज केवल, रह गये हाथ में, मूल तो जाने कहाँ ? और कब का छूट गया ?? 🤗

तमसो मा ज्योतिर्गमय !


कुछ लोग होते है, जो बस आराम करते हैं, काम कुछ, करते ही नहीं, इसीलिए उन्हें, कुछ आता भी नहीं, वो कोशिश भी नहीं करते, फिर भी, काम करने वालों से, खुद को, बेहतर साबित करने की तरकीब, अच्छे से पता है, उन्हें। 

तुरत-फुरत, किए हुए काम में, कमियाँ निकालने लग जाते हैं, अब, अगर कमी निकालनी ही हो तो, कुछ ना कुछ तो, झूठा सच्चा ही सही, मिल ही जायेगा। इसके आगे, "भई, काम खराब करने से तो, अच्छा है, जब तक आता ना हो, दूर रहो। हमने काम ना किया हो, कम से कम, नुकसान तो नहीं किया"

यही विकल्प, दूसरे के पास भी है, वह भी, इनके किये काम में, जब भी करें, कमियाँ निकाल सकता है। दोनों पक्ष, एक दूसरे की कमियाँ, तलाश करते रहेंगे, एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशों में, लगे रहेंगे, हतोत्साहित करते रहेंगे। इस खींच-तान में, कम से कम, काम तो कोई, होने से रहा। 

सकारात्मक रहो तो, खराब से खराब काम में भी, अच्छाई, निश्चित ही मिलेगी। आप, प्रोत्साहित भी कर सकते हैं, अगली बार, पिछला अनुभव होगा तो, कमियाँ घटेंगी, और गुणवत्ता बढ़ेगी, इसमें श़क कोनी। यही, प्रगतिशीलता का मूल मंत्र, भी है
 
आप, मेरे घर का, दिया बुझायें, मैं, आपके घर का, तो अंधेरा, और घना हो जायेगा, कटेगा नहीं। कटेगा तभी, जब मैं, आपका दिया, बुझाने की जगह, अपना दिया जलाऊँ, धीमा हो, मद्धम हो, तो भी  अंधेरा, कुछ तो कम होगा ही। सम्भव है, आप भी प्रेरित हों, सद्बुद्धि आये तो, दिया जलायें, घर का कोना कोना रोशन होते, देर ना लगेगी।

तमसो मा ज्योतिर्गमय ! यही सार है 🤗

ओपन पैराशूट्स !


यह प्रसंग, ओशो के प्रवचनों से आता है। 

वह, ध्यान से होने वाले, सम्भावित लाभों पर चर्चा करते थे। कहने लगे, लाभ तो अनेक, अकल्पनीय, आशातीत, परन्तु यह अपेक्षा, साथ रख कर, अगर ध्यान किया, तो फिर ध्यान हुआ ही कहाँ ? कैसे लाभ ??

तुरन्त प्रश्न हुआ, अगर अपेक्षा ना रखें, फिर तो होना, निश्चित है, ना ? अरे भाई, अपेक्षा गई ही कहाँ ? वहीं की वहीं, और भी अन्दर, तो जा बैठी ☝️

उन दिनों, बरेली में था, बच्चों के खेलने के लिए, बतौर सरप्राइज, पिंजरे में कैद, एक तोता खरीद लाया, मगर पत्नी की सहमति नहीं हुई। फौरन तोते को आजाद करना, तय हुआ। 

अब पिंजरे का दरवाजा खोल दिया गया, मगर तोता, बाहर आने को, उड़ जाने को, राजी नहीं। बाहर लाने की, जबरन कोशिश की, तो हिंसक हो उठा। चोंच मार मार, उँगलियाँ लहू-लुहान कर दीं। जैसे-तैसे... पिंजरे से तोता निकालना, फिर भी साध्य है, पर तोते के अन्दर से, पिंजरा निकाल पाना, प्रायः असम्भव ! 

हम सभी, परम्पराओं के, आदतों के इतने ही बन्दी होते हैं। समाधान हो जाये, तो भी, गलत रास्ते पर ही, यथावत, चलते ही रहेंगे। इस जड़त्व को पुकारा, चाहे जिस नाम से भी, जाये।

उड़ते जहाज से, कूदना ही पड़े तो, पैराशूट, उपयोगी साधन होता है, जीवन बचा सकने वाला। मगर उसका, केवल साथ होना भर, पर्याप्त नहीं, उसे खोलना भी पड़ता है। वर्ना हो तो, ना हो तो, फरक कोनी।

मानव, बुद्धि-विवेक का हाल भी, कुछ-कुछ पैराशूट जैसा ही होता है 🤗। आपका ?

Collaboration !


अभी हाल ही में, आमिर ख़ान की "सितारे ज़मीन पर", देखने का संयोग हुआ। एक डायलॉग, जो दिल के बहुत नजदीक पहुँचा, पर आपसे चर्चा करना चाहूँगा :

हर व्यक्ति का नार्मल, यानी सामान्य परिस्थितियाँ, भिन्न भिन्न होती हैं, और अपनी अपनी होती हैं, महत्वपूर्ण मगर, एक जैसी ही होती हैं, प्रासंगिकता के अनुरूप, कभी थोड़ा कम, कभी थोड़ा ज्यादा। इसे उदाहरण से समझते हैं। 

कोई युवा, पढ़ाकू टाइप का, उसका नार्मल हुआ, जैसे 95% नम्बर। 90 से 100 की कोई भी परसेन्टेज, उसे सहज रखेगी, इससे कम होगी तो विचलित, और कम, तो चिन्तित, उच्चतर कोई भी परसेन्टेज, इस व्यक्ति के लिए, अप्रत्याशित नहीं।

कोई मनमौजी होगा, पास होने भर से, काम बन जाने लायक, तो उसका नार्मल, 35 से पैंतालीस। कम रह गये तो टेन्शन, 50 से ऊपर, तो मोहल्ले भर में मिठाई बंटनी तय। पहले वाले के, दस और भी ज्यादा आए होते, यानी 60, तो घर में मातम छाया होता। 

नार्मल, अलग-अलग, अपना अपना ! नार्मल, यानी शान्ति और सन्तोष। दायरे भी, नार्मल हुआ करते है, किसी को पढ़ना पढ़ाना नार्मल, तो किसी को कसरत, तो किसी को भजन कीर्तन, किसी को कुछ और। सब प्रासंगिकता, और स्वभाव की बात, क्या सही, क्या गलत।

अपने समाज में, प्रयास और उपलब्धि, सामूहिक हुआ करती है, अनेक लोगों के संयुक्त प्रयास से। योजना के साकार होने के लिए, नियन्त्रण क्रमानुक्रम (control hierarchy) अनिवार्य होती है। आसान भाषा में, एक मुखिया, जिसके पास अधिकार भी हो, जवाबदेही भी, और बाकी सब सहयोगी। अगर सबके नार्मल, एक से ना हों, तो ?

जैसे, पिता गुजर गये, तीन बेटे, बड़े की नार्मल फसल, धान, मँझले की मक्का और छोटे की जायद, यानी कि फल सब्जी वगैरह। एक ही खेत में, सब अपने अपने हिसाब से खाद और बीज सहित, संगत तैयारी करें, तो खेत में कुछ और नहीं, चरस ही उगेगी, यानी तैयारियाँ सब आपस में, उलझ कर रह जायेंगी, सार्थक कुछ भी उगना नहीं, लड़ाई झगड़े ऊपर से।

समाधान एक ही है, सब अपने अपने विचार, गलत-सही, दरकिनार कर, मुखिया का अनुसरण करें। मुखिया का निर्धारण, युक्तियुक्त हो, अनुभव, सबसे ज्यादा हो, या योग्यता, या स्वीकार्यता, जो भी हो, एक बार मुखिया निश्चित हो जाये तो सभी, मुखिया का ही अनुसरण, सहयोग करें, बात तभी बनेगी। अपात्र, अक्षम सिद्ध हो, या विश्वसनीयता ही खो बैठे, तो पहले मुखिया बदलें, फिर रास्ता, और फिर रणनीति।

इस वक्तव्य के निहितार्थ व्यापक हैं, और मेरे नार्मल के अनुसार उपयोगी भी। विचार करने में तो, बुराई कोनी !

THE QUEUE....