कोई तो जबान दे कर, मुकर गया होगा !
जीवन, अपने आप में, सहज सरल ही है, इसमें उलझनें तो, हम खुद लेकर आते हैं, अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह के चलते । छोड़िए औरों को, आप, खुद भी, कितने ही आगे, क्यों ना आ गये हों, पलट पड़ें, अगर। जैसे भीड़ में, एक आदमी तो, वापस मुड़ा, चल पड़ा, सही दिशा की ओर, प्रकाश की ओर ! अँधेरा, कितना ही घना हो, एक दिया ही बहुत होता है। छोटा सा, नन्हा सा हो, तो भी।
यही "तमसो-मा, ज्योतिर्गमय" !
मैं, अकेला, ही चला था, जानिब-ए-मंजिल, मगर,
लोग साथ आते गये, और कारवाँ बनता गया।

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