ओपन पैराशूट्स !


यह प्रसंग, ओशो के प्रवचनों से आता है। 

वह, ध्यान से होने वाले, सम्भावित लाभों पर चर्चा करते थे। कहने लगे, लाभ तो अनेक, अकल्पनीय, आशातीत, परन्तु यह अपेक्षा, साथ रख कर, अगर ध्यान किया, तो फिर ध्यान हुआ ही कहाँ ? कैसे लाभ ??

तुरन्त प्रश्न हुआ, अगर अपेक्षा ना रखें, फिर तो होना, निश्चित है, ना ? अरे भाई, अपेक्षा गई ही कहाँ ? वहीं की वहीं, और भी अन्दर, तो जा बैठी ☝️

उन दिनों, बरेली में था, बच्चों के खेलने के लिए, बतौर सरप्राइज, पिंजरे में कैद, एक तोता खरीद लाया, मगर पत्नी की सहमति नहीं हुई। फौरन तोते को आजाद करना, तय हुआ। 

अब पिंजरे का दरवाजा खोल दिया गया, मगर तोता, बाहर आने को, उड़ जाने को, राजी नहीं। बाहर लाने की, जबरन कोशिश की, तो हिंसक हो उठा। चोंच मार मार, उँगलियाँ लहू-लुहान कर दीं। जैसे-तैसे... पिंजरे से तोता निकालना, फिर भी साध्य है, पर तोते के अन्दर से, पिंजरा निकाल पाना, प्रायः असम्भव ! 

हम सभी, परम्पराओं के, आदतों के इतने ही बन्दी होते हैं। समाधान हो जाये, तो भी, गलत रास्ते पर ही, यथावत, चलते ही रहेंगे। इस जड़त्व को पुकारा, चाहे जिस नाम से भी, जाये।

उड़ते जहाज से, कूदना ही पड़े तो, पैराशूट, उपयोगी साधन होता है, जीवन बचा सकने वाला। मगर उसका, केवल साथ होना भर, पर्याप्त नहीं, उसे खोलना भी पड़ता है। वर्ना हो तो, ना हो तो, फरक कोनी।

मानव, बुद्धि-विवेक का हाल भी, कुछ-कुछ पैराशूट जैसा ही होता है 🤗। आपका ?

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