अगर गंतव्य से ज्यादा महत्व, रास्ते को मिल रहा हो तो, भटकना तो हो चुका।
यही कारण, कि कोई भगवान के दरवाजे पहुँच कर भी, खाली हाथ लौटता है, और कोई रहता वहीं है, उसी के, निरन्तर सान्निध्य में।
ऐसे प्रज्ञावान को, घर से कहीं जाना नहीं होता। सोचा, और हो गया... तत्क्षण !
अगर रास्ता ही मंजिल हो, तो अलग बात 😀
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