इस बार, भरपूर समय बच्चों के साथ बिताने का अवसर हो रहा है, मीठी-खट्टी-चटपटी और स्वादहीन, मगर पौष्टिक और स्वास्थ्यप्रद, हर तरह के अनुभव। मैंने देखा कि बच्चे, भले कितने ही नाफरमान दिखते हों, अन्दर ही अन्दर, बेटा अपने बाप, और बेटी अपनी माँ जैसी ही बनने की जुगत में लगी रहती है। अवचेतन में भी। बाहर-बाहर, कभी कभार झुंझलाहट के बावजूद, स्वीकार्यता की अन्तिम और परम कसौटी।
बच्चे, ठीक-ठाक समय साथ रहें तो मां-बाप, अगर भाग्यवान हुये तो, बूढ़े होने लगते हैं। बोलें तो, अवसर ही नहीं मिलता, तो अभ्यास छूट जाता है। कुछ कर पाने की सामर्थ्य, गिरने लगती है, और निर्भरता बढ़ने लगती है। यह उदासी की नहीं, खुश होने की, गर्व करने की बात है। यह दिन, हर किसी को उपलब्ध नहीं होता। किसी-किसी की तो उम्र निकल जाती है, इन्तजार में। जिन्दगी की जरूरी जिम्मेदारियाँ उठाने को, कन्धा तो चाहिए ही। हर किसी को कहाँ होता है कि कन्धा भी हो, और सामर्थ्य भी, बोध भी हो, मन भी , और संकल्प भी।
बुजुर्ग, बूढ़े भी हो सकें, सामाजिक कर्तव्य बोध, और दायित्व से गौरवपूर्ण मुक्ति पा सकें, उस उपाय की डोर का एक सिरा, उनके हाथ भी होता है। जिसे छोड़ना अनिवार्य होता है। कभी देखा है, गुब्बारे का धागा छोड़े बिना, वह आसमान पहुँच पाया हो ?
2 comments:
Maa baap ke bina jeevan arth viheen hai, jiske paas nahi hai unse pucchiye
है तो सही,मगर साथ, हमेशा, रहते किसके हैं ? मैं शरीर की बात कर रहा हूँ। मन से तो, तब तक,जब तक रखने वाला चाहे। उसे कौन रोकेगा,और कैसे ? कोई उपाय ही नहीं 😀
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