#56 साधन-सुविधा, आराम और ऐशो-आराम !


आज बात, इन तीनों की, जैसा मैं समझ पाया हूँ । 

साधन-सुविधा, यानी जीवन की मूलभूत, अनिवार्य, जरूरतें, जिन्हें पूरा करना, किसी भी शासन व्यवस्था का आवश्यक दायित्व होता है। गरीब की सूखी रोटी, पेट भर जाये तो, धर्म निभ गया। जो मिलता है, जरूरत से कदम-दो कदम, पीछे ही चलता है, और साथ चलने की कोशिश में, लगातार। कभी मक्खन का तड़का, तो समझो त्यौहार हो गया। खाने में स्वाद, और चाव, सबसे ज्यादा इन्हीं लोगों को आता है, और पात्रता इनकी, नैसर्गिक होती है, कमा पायें, या ना कमा पायें।

श्रेणी दो, आराम की, कर्मयोगियों की, रोटी के लाले, इन्हें नहीं पड़ते। हक से मिलती हैं, नियमित और भरपेट। आराम भी, कमाने जैसी चीज़ है, काम की समानुपाती। काम करते-करते, थक के चूर हुये तो आराम का सुख, स्वर्ग से उन्नीस भी नहीं होता। रोटी भी रोज होती है, और प्रायः उस पर मक्खन भी लगता है, कभी कम, कभी ज्यादा। अपने साथ-साथ, अन्य दो वर्गों का पोषण भी, इन्हीं के कन्धों पर होता है । मध्यम वर्ग भी पुकारा जाता है, इन्हें। इनके त्यौहार, घी में तली पूड़ियों, पराठों और व्यंजनों से मनाये जाते हैं। ऐश्वर्य की दहलीज़ पर ! 

और अन्ततः ऐशो-आराम। वैसे तो लोग, मध्यम वर्ग से दहलीज पार कर भी यहाँ आते है, पर प्रायः जन्म यहीं लेते हैं। सब कुछ, सजा सजाया उपलब्ध होता है, काम करना, आवश्यक रूप से, आवश्यक नहीं होता। प्रचुर साधन, सतत उपलब्ध रहते हैं और पेट रहता है भरा-भरा। भूख लगती नहीं तो, स्वाद भी नहीं आता, भले छप्पन तरकारी और छत्तीस अचार सजे हों। त्यौहार की व्यवस्था, हमेशा रहती है, पकवान रोजाना ही बना करते है। और जो रोजाना हो, वह त्यौहार कैसा ? साधन भरपूर, पर सुख, किसी किसी को ही नसीब होता है। जैसे विष-कन्याओं से ब्याह दिये गये हों, सदा अतृप्त। भाग्यवान नजर आते हैं, मगर कोई-कोई इतना अभागा, कि मिसाल ढूँढे ना मिले।

अगली श्रेणी में जाना, उपलब्धि माना जाता है, जीवन का लक्ष्य भी। मगर मुझे लगता है, कर्म योग के चरम तक पहुँचना ही ठीक, ऐश्वर्य के दरवाजे तक। ऐसे पार किया कि परिश्रम दरवाजे पर, पीछे ही रह गया और प्रयासों पर निर्भरता जाती रही। इस कथित उपलब्धि की कीमत, इतनी ज्यादा होगी, कि जीवन बीत जायेगा, चुका ना पाओगे। 

पता  नहीं, आप मेरी बात से राजी हो भी पायेंगे, या नहीं ?

#54 मोती रास्ते के, और मौके के... दस्तूर जो है

 



बोझ उठाये हुये फिरती है हमारा अब तक, 

ए जमीं मां, तेरी ये उमर आराम की थी।


फिर दयारे हिंद को, आबाद करने के लिये, 

झूम कर उठो, वतन आजाद करने के लिये


दिल से निकलेगी, ना मर कर भी, वतन की उल्फत, 

मेरी मिट्टी से भी, खुशबू ए वफा आयेगी।


वतन की खाक से मर कर भी हम को अंस बाकी है, 

मजा दामन ए मदार का है, इस मिट्टी के दामन में ।


वतन की ख़ाक, जरा एड़ियॉं रगड़ने दे, 

मुझे यकीन है, पानी यहीं से निकलेगा।


खुदा ए काश नाजिश, जीते जी वो वक्त भी आये, कि जब,

हिन्दोस्तान कहलायेगा, हिन्दोस्तां ए आजादी।


लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है, 

उछल रहा है, जमाने मैं नाम ए आजादी ।


खून शहीदां ए वतन का, रंग लाकर ही रहा, 

आज ये जन्नत निंशा, हिन्दुस्तां आजाद है।


ए वतन जब भी, सर ए दश्त कोई फूल खिला, 

देख कर तेरे शहीदों की निशानी रोया।


हम भी तेरे बेटे हैं, जरा देख हमें भी, 

ए खाक ए वतन, तुझसे शिकायत, नहीं करते।


ए ख़ाक ए वतन, अब तो वफाओं का सिला दे दे, 

मैं टूटी सांसों की फसीलों पे खड़ा हूं।

स्वतन्त्रता दिवस पूर्व संध्या, 14 अगस्त 2021 !







#53 रास्ते के मोती ! (2)

Happy to credit my friend, A K Agrawal, and through him, Karim Elsheikh, for this beautifully precious input.




“I am rich, fit, and have mastered almost everything, I wanted to. Why am I, still not happy and still not satisfied ?” - posted in Quora by Anonymous 

Answer by Karim Elsheikh : 

“Human happiness (as we know it) is caused by 4 basic chemicals:

- Dopamine

- Endorphins

- Serotonin

- Oxytocin

# On your journey to become rich, you probably completed many tasks and goals.

You probably bought all the things you’ve ever wanted. Nice cars, beautiful clothes, and a perfect home. This released dopamine in your brain when you achieved your goals and bought these things, which once again contributed to your happiness - temporarily.

# On your journey to become fit, your body released endorphins to cope with the pain of physical exercise. You probably began to enjoy exercise as you got into it, and the endorphins made you happy - temporarily.

So what about the other two chemicals?

It turns out that human happiness is incomplete without all 4 chemicals constantly being released in the brain. So now you need to work on releasing serotonin and oxytocin.

“How do I do that, Karim?”

# Serotonin is released when we act in a way that benefits others. When we give to causes beyond ourselves and our own benefit. When we connect with people on a deep, human level.

Writing this Quora answer is releasing serotonin in my brain right now because I’m using my precious time on the weekend to give back to others for free. Hopefully I’m providing useful information that can help other people, like yourself.

That’s why you often see billionaires turning to charity when they have already bought everything they wanted to, and experienced everything they wanted to in life. They’ve had enough dopamine from material pleasures, now they need the serotonin.

# Oxytocin on the other hand, is released when we become close to another human being. When we hug a friend, or shake someone’s hand, oxytocin is released in varying amounts.

Oxytocin is easy to release. It’s all about becoming more social !

Share your wealth with your friends and family to create amazing experiences. Laugh, love, cooperate, and play with others.

That’s it my friend!

I think it all comes down to the likelihood that you are missing two things: contribution and social connection”

(I think it’s brilliant, and I am also getting my dose of Serotonin... and Oxytocin 😊)



PS: ... & immediate credits for the infographics, to Nusra, my DIL ( Daughter-in-law)

#52 गौरव - बूढ़ा होने का, निर्भर होने का


इस बार, भरपूर समय बच्चों के साथ बिताने का अवसर हो रहा है, मीठी-खट्टी-चटपटी और स्वादहीन, मगर पौष्टिक और स्वास्थ्यप्रद, हर तरह के अनुभव। मैंने देखा कि बच्चे, भले कितने ही नाफरमान दिखते हों, अन्दर ही अन्दर, बेटा अपने बाप, और बेटी अपनी माँ जैसी ही बनने की जुगत में लगी रहती है। अवचेतन में भी। बाहर-बाहर, कभी कभार झुंझलाहट के बावजूद, स्वीकार्यता की अन्तिम और परम कसौटी।


बच्चे, ठीक-ठाक समय साथ रहें तो मां-बाप, अगर भाग्यवान हुये तो, बूढ़े होने लगते हैं। बोलें तो, अवसर ही नहीं मिलता, तो अभ्यास छूट जाता है। कुछ कर पाने की सामर्थ्य, गिरने लगती है, और निर्भरता बढ़ने लगती है। यह उदासी की नहीं, खुश होने की, गर्व करने की बात है। यह दिन, हर किसी को उपलब्ध नहीं होता। किसी-किसी की तो उम्र निकल जाती है, इन्तजार में। जिन्दगी की जरूरी जिम्मेदारियाँ उठाने को, कन्धा तो चाहिए ही। हर किसी को कहाँ होता है कि कन्धा भी हो, और सामर्थ्य भी, बोध भी हो, मन भी , और संकल्प भी।


बुजुर्ग, बूढ़े भी हो सकें, सामाजिक कर्तव्य बोध, और दायित्व से गौरवपूर्ण मुक्ति पा सकें, उस उपाय की डोर का एक सिरा, उनके हाथ भी होता है। जिसे छोड़ना अनिवार्य होता है। कभी देखा है, गुब्बारे का धागा छोड़े बिना, वह आसमान पहुँच पाया हो ?

#51 मर्द के दर्द !


"मर्द को...  दर्द नहीं होता !"

यह एलान, यकीनन खिलाफ पार्टी ने, किसी अक्कल के दुश्मन को, झाड़ पे चढ़ा के, और साजिशन दिलवाया होगा। अब जिस्म एक सा है तो दर्द भी तो, एक सा ही होगा, मगर तरकीब देखिये कि हँसते हँसते, कुर्बानी कब हो गई, खुद कुर्बान होने वाले को हवा नहीं होती।

गम्भीरता से देखें तो दर्द की अनुभूति, और अनुभूति की अभिव्यक्ति, दोनों अलग-अलग बातें हैं, और अगर फोकस खिसक जाये तो, हो जाता है। कौन राजा थे ? उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में, कितना बड़ी चीर-फाड़, बिना किसी एनेस्थीसिया, गायत्री मंत्र जपते-जपते, करा गये। राणा सांगा ? कितने घाव, मगर जूझते रहे । 

अपने पहलवान ? इसी ओलंपिक, भले प्रतिद्वन्दी बांह से मांस नोंच ले जाये, लड़ना नहीं छोड़ते, और जीतकर दिखाते हैं। सीमा पर डटे, अपने जवान, गोली खाकर भी लक्ष्य प्राप्ति की कोशिश, कभी  छोड़ते नहीं हैं। नहीं साहब, दर्द तो बराबर से होता है, मगर कर्तव्य बोध, और लक्ष्य भेदन की जुनूनी, जुझारू, समर्पित कोशिश, दर्द  को बौना कर देती है।

चेहरे पर शिकन ना होना, दर्द ना होने का नहीं, समर्पण और बर्दाश्त का माद्दा, दर्द से बड़ा होने की खबर देता है। लोग चुप्पी से समझ लेते हैं कि मर्द को दर्द होता ही नहीं। इससे बड़ी नासमझी, और क्रूरता और क्या होगी। और यह बात केवल पुरुषों की ही नहीं, सभी की है, नारियों की भी, जमाने का सबसे बड़ा दर्द तो मां ही, अनन्त काल से धारण करती और सहती आई है। बात संवेदना, और त्याग के सम्मान की है।

कोई मोहतरमा, किसी अस्पताल में दाँत निकलवाने की फीस पर मोल-भाव कर रही थीं, फीस करने के लिए। उन्होंने एनेस्थीसिया भी बेहिचक हटवा दिया तो, डाक्टर को भी झुकना ही पड़ा। चेयर पर बैठने को कहा तो बोलीं, दाँत मेरा नहीं, पति का निकलना है, बाहर ही बैठे हैं, अभी बुलाती हूँ। 

मजाक से आगे, बात संवेदना की है। दर्द की अनुभूति की है, उससे खुद ना भी गुजरना हो, तो भी । यह बात समझने की है कि दर्द, मर्द को भी होता है, और आह पर पहरे, हर तरफ से, कौन से जमाने से। स्वार्थी निष्कर्ष, दर्द होता ही नहीं। बात ही खत्म। 

जानिये जनाब, ऐसा बिल्कुल नहीं है। आप जानते हैं ना, कि मर्द जल्दी खर्च हो रहे हैं, दिल के दौरे, मर्दों को ज्यादा पड़ते हैं। दर्द पहचानिए भी, अनुभव और कारण अलग-अलग हो सकते हैं, होंगे ही, मर्द जो है। किसी किसी दर्द को जानने को, खास कोशिश करनी पड़ सकती है, चुप्पी पढ़ना भी सीखना पड़ेगा।

और मर्द महोदय, आप ! अरे, दर्द के रास्ते से थोड़ा सा दायें-बायें हो जायें, डायरेक्ट हिट ना हों, या ना हो पायें तो जरा मरा रो गा लें, जज़्बात बाहर आ जायें तो हमदर्दी मिले, ना मिले, राहत जरूर मिलती है, ऐसा साइंसदां कहते हैं, मगर पहले मान लें कि दर्द आपको भी होता है, स्वाभाविक है, कुदरती है, शरम की बात कोनी  !

वैसे, कमाल के खालिस हिम्मती लोग, आधे हिम्मती और आधे समझदार और खालिस समझदार, सारे अपनी अपनी जगह सही हैं, और ये मेरी अपनी बात है। 

आपकी ? आप जानें, आप की अन्तरात्मा की, वो जाने, आज पूछना जरूर 👍

#50 परमात्मा और आप !

अगर गंतव्य से ज्यादा महत्व, रास्ते को मिल रहा हो तो, भटकना तो हो चुका। 

यही कारण, कि कोई भगवान के दरवाजे पहुँच कर भी, खाली हाथ लौटता है, और कोई रहता वहीं है, उसी के, निरन्तर सान्निध्य में। 

ऐसे प्रज्ञावान को, घर से कहीं जाना नहीं होता। सोचा, और हो गया... तत्क्षण !

अगर रास्ता ही मंजिल हो, तो अलग बात 😀

#49 शेयर के भाव, जिन्दगी के बाजार !



जिन्दगी के बाजार में, दो सिद्धांतों पर मुझे तो कोई संशय नहीं, दोनों ही महत्वपूर्ण और आधारभूत। एक, कोई चीज मुफ्त नहीं मिलती, और जबरन हथिया भी ली जाय तो ना शुभ होती है, ना हितकर । और दो, अगर गांठ में हो पूंजी भरपूर,  तो कुछ भी तो नहीं दूर !

कीमत की बात करें, तो उपलब्धि की कीमत, यानी उसके लिए किये गये प्रयास। जितना परिश्रम, जितना धैर्य, जितना समर्पण, फल में मिठास और पौष्टिकता, उतना ही समझना। जो मुफ्त हासिल हो, जुगत से, या विरासत में, अपने-आप, फिर वो खालिस सोने की ही क्यों ना हो, उपयोगी और सुखदायिनी, हो नहीं सकती ।

यह बात, बच्चों को बचपन से ही सिखाने जैसी है, होता यही है, होना चाहिए भी। कुदरत के इस कायदे की अनदेखी  घातक भी हो सकती है। मां-बाप, बड़े-बुजूर्गों के लाड़-प्यार की कीमत तो, शिशु भी चुकाते हैं, अपनी भोली, बाल सुलभ, मनमोहक लीलाओं से। थोड़े बड़े हुये तो जीवन मूल्यों को सीखने के लिये, अपने समर्पित, ईमानदार, निष्ठा और परिश्रम से परिपूर्ण, अनवरत प्रयासों सै। 

और जब खुद, बच्चे वाले होने लायक हो गये, तो कृतज्ञ भाव की निरंतर अभिव्यक्ति, और पालकों की  इच्छाओं-अपेक्षाओं के यथा सम्भव, आदर अनुपालन के ईमानदार प्रयासों के से । जिस बुजुर्ग ने ये बेशकीमती और असरदार नेमत, लापरवाही में, या नासमझी में, नाहक लुटा दी। अपने लाड़ले को, कमाना और फिर खाना, सिखाया ही नहीं, तो जैसे जिन्दगी भर, उसे इन्तजार के लिए मजबूर कर दिया कि कोई तरस खाये, और उसकी झोली कुछ तो डाल दे, या तो मौका मिले छीन-झपट का। 

पुरुषार्थ से तो जान पहचान ही नहीं हुई, फिर और करे भी तो क्या, और कैसे ? अपने ही हाथों, बर्बाद कर दिया, बेशक ! राहत की बात कि, कि वापस लौटने की, और हुई गलती ठीक करने की, कोशिश कभी समय बाह्य नहीं होती। यह सवेरा, जागते ही होता है, तुरन्त ! एक बात और, आदर सम्मान की कीमत, अपने मर्यादित और उदाहरणीय आचरण से, बड़े बुजुर्गों द्वारा चुकाया जाना भी उतना ही उचित है, और आवश्यक भी 😀

उदाहरण तो और भी हैं, और रोचक, मगर और कभी। बात खरीदारी की करें तो, पूंजी पर ध्यान जाता है, गांठ पूरी होनी ही चाहिये । इसकी मुद्रा को व्यापक नजरिये से देखें तो, आपका आत्मविश्वास, आपके संकल्प की मजबूती, आपका परिश्रम, अनथक और निरन्तर प्रयास, सब कुछ शामिल होता है इसमें, और धैर्य भी।

कीमत चुका चुकने के बाद भी सफल होते ना दिखें तो, उसका एक ही मतलब, पानी गर्म तो हो रहा है, मगर सौ डिग्री पहुँचने, और पकने तक, टिके रहने में, अभी समय बाकी है। समय को कुछ समय और दें, घटना घटना तो इतना ही निश्चित है, जितना कि सुबह-सुबह सूरज का निकलना।

कहते हैं, कोशिश अपनी जगह, मिलता उतना ही है जितना किस्मत में होता है, और मैं कहता हूँ  कि उद्यम असीम और जीवट लवालब हो तो खुद किस्मत ही बदल जाये, कौन जाने, क्या पता ? 👍

#48 Memoirs



And this happened, in the last week of May, this year. Corona at it's peak. This story was narrated to kids, meaning thereby, "Mummy" means their mummy, my BETTER half 😀

"कहानी कुछ ऐसी है कि एक एक दिन भारी हो रहा था, बाल थे कि बढ़ते ही जा रहे थे और बर्दाश्त चुक गई थी, मगर, बच्चों की बन्दिशें। एक हफ्ते पहले भी मम्मी से कोशिश हुई थी, तब बात बन नहीं पाई थी ।

आज सुबह, लगा चान्स है तो फिर से कोशिश हुई, तैयारी हुई। लगा, ट्रिमर, और कन्घी से काम चल जायेगा, मगर मम्मी से हुआ नहीं। सामने से थोड़ा कर के दिखाया, फिर भी नहीं । दुकान उठा दी गई। 

मुसीबत, यह हुई कि डीमो कुछ ज्यादा ही गहरे निशान छोड़ गया था, और बाल कराना हो गई थी, मजबूरी। हेयर कटिंग सैलून बन्द निकला, और मम्मी के अलावा कोई रास्ता बचा नहीं।

फिर से दुकान सजी, कितनी हौसला अफजाई , तरह तरह की कन्घियां ट्राई हुई, अलग अलग एन्गिल, बदल बदल के पोजीशन, काटने वाले की भी, और कटने वाले की भी।

बाल काटने में, इतनी इन्जीनियरिंग लगती है, कभी सोचा नहीं था, और कहीं इतना सूखा भी हो सकता है, इसका अन्दाजा भी नहीं था। बड़ा मुश्किल है ये सवाल, कि पसीना पसीना कौन ज्यादा हुआ। जब ट्रिमर काम आ चुका, तो फिर कैंची, तब कहीं जाके ये फिनिश मिली।

मगर मेहनत बहुत हुई, जी जान लगा के, उसकी तो कद्र करनी ही पड़ेगी। और फिनिश जैसी भी हुई, परिस्थिति भी तो देखनी पड़ेगी। पुण्ढीरों में काटने का रिवाज, थोड़े ही है।

हम तो ज़िन्दगी भर के एहसानमंद हो गये। सोचो, अगर इतनी रिकवरी ना होती, तो किसी को मुँह दिखा पाते ? 😀"

#47 समस्या और समाधान, मगर कैसा ?




एक गांव की कहानी है, दो कुंए थे, एक समर्थों के पास, अहाते के अन्दर, केवल विशेष के लिये, और दूसरा, थोड़ा कम समर्थों के पास, बाहर, खुले में, जो सभी को सुलभ और उपलब्ध। 

हुआ ऐसा कि, सार्वजनिक कुंए का पानी दूषित हो गया, ऐसा कि लोग पीते तो पागल हो जाते। लोग भागे भागे समर्थों के पास गये, इस विनती के साथ, कि उन्हें भी साफ पानी लेने दिया जाय। समर्थों के पास, पता नहीं पानी कम पड़ा, या दिल में जगह, बहुमत को साफ पानी मिल नहीं पाया। पानी जैसी चीज, सबको दूषित ही पीना पड़ा और सब पागल भी हो गये।

समस्या समर्थों के सामने भी, साथ ही, आ खड़ी हुई। अहाते से बाहर, उठना बैठना, लेन-देन, काम-काज, रोज मर्रा का इन्तजाम, सब तो बाहर वालों के सहारे ही चलता आया था, मगर अब तो सब पागल हो चुके थे, सुनना समझना दूभर । जीवन लगभग असंभव हो गया।

भागे-भागे, गाँव के सयाने के पास गये। सुनकर पहले तो बहुत हंसा, और फिर उपाय बताया, "अब सोचने विचारने का समय जाता रहा। कोई विकल्प नहीं, एक ही रास्ता। दौड़ते हुये जाना बाहर के कुंए, और फौरन वही पानी, तुम भी पी लेना। फिर समस्या न रहेगी।

प्रज्ञा जाती है तो समस्या साथ ले जाती है, एक रास्ता ये भी ?


#46 मौन की भाषा


सोचता हूँ, आज मौन रह कर बात करूँ, निःशब्द ! 

देखें, समझना छोड़, सुन कौन-कौन पाता है। हर किसी के बस की बात नहीं, छटे तल जाना पड़ता है। और, फिर सब बरसने लगता है, बिना लाग-लपेट। अनछुआ, ना श्र॔गार, ना जुगाड़, ना दुराव-छिपाव। 

अभिव्यक्ति का सर्वोत्कृष्ट रूप। चीखें भले दो-चार मंजिल ऊपर तक पहुँचती हों, मौन बुदबुदाहट, सहज ही सात आसमान पार जाती है। 

भगवान से वार्तालाप, इसी भाषा में हो पाता है 🙏

#45 Exercise - the purpose refreshed up



A friend of mine, so dear, so respectable, actively propagating 'heartfulness' in this region, asked me yesterday:

"Sir, I have read your few heart touching stories, they are welcome, but what is the sole purpose of your blog ?🙏"


And thus I replied:

"Nothing ! स्वान्तः सुखाय !! If anybody happens to be benefited, It's bonus, and my ultimate fortune 😀.

... BTW, Nothing is more difficult than finding nothing. It could be everything too. In disguise 😜"


Indeed. I'm experimenting. Exploring inwards, looking for me, myself, a version better than yesterday. And, doing it everyday. No standard, firm, binding schedules. No targets, no control deadlines either. Just a direction. 

Moving, ahead or back, but just as much, as easy, comfortable, enjoyable. Just retaining in memory, when movements can't be physical. To draw happiness, pleasure, containment SUPREME. And you know, you're the judge, yourself !

No wonder, destination is the journey itself. Never incomplete, the Sun may set anywhere 😀. How's that ? Wanta join ? Hop on up, Pronto ! It's always fun, when in company, even if moving individually, on path, your own.


You've been invited 😀

THE QUEUE....