आज बात, इन तीनों की, जैसा मैं समझ पाया हूँ ।
साधन-सुविधा, यानी जीवन की मूलभूत, अनिवार्य, जरूरतें, जिन्हें पूरा करना, किसी भी शासन व्यवस्था का आवश्यक दायित्व होता है। गरीब की सूखी रोटी, पेट भर जाये तो, धर्म निभ गया। जो मिलता है, जरूरत से कदम-दो कदम, पीछे ही चलता है, और साथ चलने की कोशिश में, लगातार। कभी मक्खन का तड़का, तो समझो त्यौहार हो गया। खाने में स्वाद, और चाव, सबसे ज्यादा इन्हीं लोगों को आता है, और पात्रता इनकी, नैसर्गिक होती है, कमा पायें, या ना कमा पायें।
श्रेणी दो, आराम की, कर्मयोगियों की, रोटी के लाले, इन्हें नहीं पड़ते। हक से मिलती हैं, नियमित और भरपेट। आराम भी, कमाने जैसी चीज़ है, काम की समानुपाती। काम करते-करते, थक के चूर हुये तो आराम का सुख, स्वर्ग से उन्नीस भी नहीं होता। रोटी भी रोज होती है, और प्रायः उस पर मक्खन भी लगता है, कभी कम, कभी ज्यादा। अपने साथ-साथ, अन्य दो वर्गों का पोषण भी, इन्हीं के कन्धों पर होता है । मध्यम वर्ग भी पुकारा जाता है, इन्हें। इनके त्यौहार, घी में तली पूड़ियों, पराठों और व्यंजनों से मनाये जाते हैं। ऐश्वर्य की दहलीज़ पर !
और अन्ततः ऐशो-आराम। वैसे तो लोग, मध्यम वर्ग से दहलीज पार कर भी यहाँ आते है, पर प्रायः जन्म यहीं लेते हैं। सब कुछ, सजा सजाया उपलब्ध होता है, काम करना, आवश्यक रूप से, आवश्यक नहीं होता। प्रचुर साधन, सतत उपलब्ध रहते हैं और पेट रहता है भरा-भरा। भूख लगती नहीं तो, स्वाद भी नहीं आता, भले छप्पन तरकारी और छत्तीस अचार सजे हों। त्यौहार की व्यवस्था, हमेशा रहती है, पकवान रोजाना ही बना करते है। और जो रोजाना हो, वह त्यौहार कैसा ? साधन भरपूर, पर सुख, किसी किसी को ही नसीब होता है। जैसे विष-कन्याओं से ब्याह दिये गये हों, सदा अतृप्त। भाग्यवान नजर आते हैं, मगर कोई-कोई इतना अभागा, कि मिसाल ढूँढे ना मिले।
अगली श्रेणी में जाना, उपलब्धि माना जाता है, जीवन का लक्ष्य भी। मगर मुझे लगता है, कर्म योग के चरम तक पहुँचना ही ठीक, ऐश्वर्य के दरवाजे तक। ऐसे पार किया कि परिश्रम दरवाजे पर, पीछे ही रह गया और प्रयासों पर निर्भरता जाती रही। इस कथित उपलब्धि की कीमत, इतनी ज्यादा होगी, कि जीवन बीत जायेगा, चुका ना पाओगे।
पता नहीं, आप मेरी बात से राजी हो भी पायेंगे, या नहीं ?