आँधियों की माफ़ियाँ !

तमसो मा ज्योतिर्गमय !





कुछ लोग होते है, जो बस आराम करते हैं, काम कुछ, करते ही नहीं, इसीलिए उन्हें, कुछ आता भी नहीं, वो कोशिश भी नहीं करते, फिर भी, काम करने वालों से, खुद को, बेहतर साबित करने की, तरकीब अच्छे से पता है, उन्हें। 

तुरत-फुरत, किए हुए काम में, कमियाँ निकालने लग जाते हैं, अब, अगर कमी निकालनी ही हो तो, कुछ ना कुछ तो, झूठा सच्चा ही सही, मिल ही जायेगा। इसके आगे, "भई, काम खराब करने से तो, अच्छा है, जब तक आता ना हो, दूर रहो। हमने काम ना किया हो, कम से कम, नुकसान तो नहीं किया"

यही विकल्प, दूसरे के पास भी है, वह भी, इनके किये काम में, जब भी करें, कमियाँ निकाल सकता है। दोनों पक्ष, एक दूसरे की कमियाँ, तलाश करते रहेंगे, एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशों में, लगे रहेंगे, हतोत्साहित करते रहेंगे। इस खींच-तान में, कम से कम, काम तो कोई, होने से रहा। 

सकारात्मक रहो तो, खराब से खराब काम में भी, अच्छाई, निश्चित ही मिलेगी। आप, प्रोत्साहित भी कर सकते हैं, अगली बार, पिछला अनुभव होगा तो, कमियाँ घटेंगी, और गुणवत्ता बढ़ेगी, इसमें श़क कोनी। यही, प्रगतिशीलता का मूल मंत्र है।

आप, मेरे घर का, दिया बुझायें, मैं, आपके घर का, तो अंधेरा, और घना हो जायेगा, कटेगा नहीं। कटेगा तभी, जब मैं, आपका दिया, बुझाने की जगह, अपना दिया जलाऊँ, धीमा हो, मद्धम हो, तो भी, अंधेरा, कुछ तो कम होगा ही। सम्भव है, आप भी प्रेरित हों, सद्बुद्धि आये तो, दिया जलायें, घर का कोना कोना रोशन होते, देर ना लगेगी।

तमसो मा ज्योतिर्गमय ! यही सार है 🤗

तमाम, काम-तमाम !

Reaching out !

If, You're, throwing, a pool party, 
to a thirsty struggler, It's not generosity, my dear !

It's insensitive inconsideration, 
gross humiliation, utter insult.

It, better be, simple, natural water,
Not RO, not Mineral, not Kangen,
Just adequate, drinkable water.
AND, in time, as much, as required. 🤗

रायते की दावत !



ठेठ, देसी भाषा में, 

रायता वही फैलायें, और उत्ता ही फैलायें, 
जो खुद, समेट लेने का, 
इरादा भी रखते हों, और माद्दा भी। ☝️

रायता पहले ही, बहुतेरा फैला हुआ है, 
इसे और फैलाने, और, 
औरों के लिए, समेटने को छोड़ देने की, 
कृपा करें, कोई जरूरत नहीं 🙏

जहाँ तक, हमारा खुद का सवाल है, 
ऐसे फैले पड़े हैं, 
कि सिमटना, आसान कहाँ ? 
शायद बटोरे ही जायें, किसी दिन 🤗



किं-कर्तव्य-विमूढ़ !


वाह-वाही, या प्रभुताई तलाशते, ऐसे लोग, आपको बड़ी आसानी सा दिख जायेंगे कि साहब, मरते मर जायेंगे, कितना ही दुख, तकलीफ, नुकसान हो, गलत काम को हाथ भी नहीं लगायेंगे। अंग्रेजी से एमए पास, मगर एक वाक्य, ता-उम्र ना बोल पाने वाले लोग, इसी कैटेगरी में मानें।

लाख बेहतर हैं, वह लोग, जो गलत सही की परवाह बगैर, यथापेक्षित काम, ससमय करते हैं। जानते हैं कि सही-गलत का अन्ततः निर्धारण तो समय करता है, परिणाम के माध्यम से, तब तक, किसी का सही, किसी का गलत, यह व्यक्ति-परक, परिस्थिति-परक और तत्कालीन भी हुआ करता है। दोषी, आप गलत काम कर डालने के लिए ही नहीं, अपेक्षित कार्य, समय पर ना कर पाने के लिये भी, अकृत-कार्य, माने जाते हैं।

आशय, यह नहीं, कि प्रकटतः गलत कार्य भी आप, लोभ में, लालच में, राग में, या द्वेष में, या भयातुर होकर, करने से पहले विचार ना करें। अन्तर्मन, अगर आप के साथ है, तो अपेक्षित काम, बिना समय गंवाए, करना ही उचित। ये भी कि, अन्ततः तो-

"हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश, विधि हाथ !"

और विधि के आगे, हमारी, या आपकी, खास चलती नहीं। काम समय पर होना ही सार्थक, आगे भगवान की इच्छा 🙏

बोझिल जीवन !

अपने, सबसे बड़े चाचा, एक कुंतल, यानी एक सौ किलो की बोरी को भी, बहुत सहजता के साथ, उठा लिया करते थे, आम आदमी से तो, हिला पाना भी मुश्किल। थोड़ी ताकत, थोड़ी तरकीब, मैं तरकीब ज्यादा कहूँ, इसलिए कि तरकीब तो, ताकत बढ़ाने के काम भी, आती है।

तो किसी आदमी को, एक कुंतल की बोरी, हँसते हँसते उठाये देखो, तो याद रखना, वजन तो उसकी बोरी का भी, सौ ही किलो है, राई रत्ती कम नहीं, सिर्फ उसे आती है, तरकीब भी। ऐसे ही, आपकी बोरी, कोई स्पेशल भारी नहीं, फ़कत तरकीब, बोलें तो, ठीक से उठाना, नहीं सीख पाये। बोरियाँ, हल्की भारी, तकरीबन, एक सी !

ये भी, कि कुछ लोग ये समझ जाते हैं कि रोने-धोने से, शिकवे-शिकायतों से, किसी और पर दोषारोपण से, वज़न, कम थोड़े ही होता है, अलबत्ता, उठाने की ताकत, जरूर कम हो जाती है। संयम-संतुलन-साहस से सामना करें तो भी, वजन तो उतना ही रहता है, मनोवैज्ञानिक सपोर्ट से, ताकत इक्कीस लगने लगती है।

वैसे वज़न जो मिला, सो मिल गया, इस पर, जोर, किसी का है भी नहीं 🤔

सवाल-जवाब


एक
घिसा पिटा मज़ाक है, एक पढ़े-लिखे, और एक अनपढ़ में, बहस होती थी। पढ़ा-लिखा, जाहिर है, भारी पड़ता था, और अनपढ़ के पास, कोई फौरी उपाय नहीं था। कई बार की लानत मलानत के बाद, उसे भी, उपाय, सूझ ही गया।

उसने पढ़े लिखे को, सार्वजनिक मंच पर शर्त लगाकर बहस की चुनौती दे डाली, कि एक दूसरे से सवाल पूछें, और जो उत्तर ना दे पाये, विपक्षी को तत्काल, अनुतोष का भुगतान करे। एक शर्त और भी, कि पढ़े-लिखे के पास संसाधन अधिक हैं तो पारिता के लिए, विफलता की स्थिति में, अनपढ़ का अनुतोष अधिक हो। जैसे अनपढ़ के पास, जवाब ना हो तो 1,000 ₹, अगर पढ़ा-लिखा निरुत्तर हो, मगर, तो अनुतोष, 1,00,000 ₹ अति आत्मविश्वास में, पढ़ा-लिखा, राज़ी भी हो गया।

यही, भारी भूल साबित हुई कि भैंस का वज़न, अकल से नाप लिया। अनपढ़ ने, पहले सवाल की बारी भी, बड़ी आसानी से, पा ली, और पूछा,"वो चिड़िया, जिस का सिर एक, मगर आँखें, चार ?" पढ़े-लिखे का तो दिमाग़ घूम गया। ना कभी देखा, ना सुना, थोड़ी-बहुत मगज़मारी के बाद, 1,00,000 ₹, चुपचाप, अनपढ़ के हवाले कर दिए।

अब बारी, पढ़े लिखे की थी, तो उसने अपने ज्ञानवर्धन को वही सवाल, अनपढ़ से पूछ लिया। अनपढ़ ने बिना कोई समय लगाये, 1,000 ₹, चुपचाप, पढ़े लिखे को थमा दिए।

आजकल, प्रेरणा यही है, या कुछ और, यही तरकीब बहुत लोकप्रिय भी है, कारगर भी। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर, आप कोई भी सवाल पूछ सकते है, जवाब हो ही, आपको इससे क्या ? यह दायित्व तो पढ़े लिखों को, कर्ता-धर्ताओं का, कि वो कहीं से भी लायें, जवाब देना तो, पड़ेगा ही। और ये काम आसान नहीं, खासकर, जवाब पूछने वाले को ही, संतुष्ट करने वाला भी, होने का चाही।

इसलिए कि सोये हुए को जगा भी लें, आँख ही बन्द कर रखी हो, जिसने, किसी ना किसी स्वार्थ में, उपाय कोई बचता नहीं। तो ये, प्रायः बे-मतलब के, सवाल-जवाब, चलते ही रहने वाले हैं, जब तक सवाल पूछने वाले को, खुद जवाब, और यथार्थ-परक, पता होने की पूर्व-शर्त, अनिवार्य ना कर दी जाये। तब तक, जन-धन का तो, अपव्यय हो ही रहा है, हुआ करे !

लोक-लाज, और आयोजन !


क्या होना चाहिए, इस पर वाद-विवाद भी हो सकते हैं, मतभेद भी। अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि, आपकी क्षमतायें क्या हैं ? सामर्थ्य कितनी है ? कितना स्वयं, और कितना सहज, सुलभ, बाहरी मदद से। निर्णय, तब ही तनावमुक्त रह सकते हैं, और सफल निष्पादित भी।

क्षमताओं से बड़ा, और बिना सोचे-विचारे आयोजन, उपहास, अपमान, और पछतावा भी ला सकता है। अवसर तो, तात्कालिक, मगर भावनात्मक ठेस, लम्बे समय तक चुभने वाली, बात।

और चलते चलते,

कहने वाले तो कहने की वजह ढूँढ ही लेते हैं, हर सावधानी, हर कवच को, दरकिनार कर। लोग क्या कहेंगे, निर्णय का आधार, यह ही बने, तो ही ठीक !

प्रगतिशील परम्पराएंं !


अपनी तो, विरासतें ही हुआ करती हैं, तरक्कियाँ तो हुईं मेहमान। आईं, तो आईं, टिकीं तो टिकीं।

तो अतिथियों का स्वागत, दिल खोलकर, बाहें फैलाये, उन्हें अपनायें, अपना ही बना लें, परन्तु इसके निमित्त, उपेक्षा, अपनों की, आवश्यक, कतई नहीं। संरक्षण इन का भी, महत्वपूर्ण, और मूल्यवान, कम नहीं।

परम्परायें, यदि अंशतः समयबाह्य हो रही हैं, रुग्ण और क्षीण-शक्ति हो रही हैं तो उपचार का, स्वस्थ और प्रासंगिक बनाये रखने का, और यथा-संभव संवर्धन, समृद्धीकरण का, उत्तरदायित्व भी हमारा, बल्कि हमारा ही।

"जैसे, उड़ि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पे.. ", 
वाला जहाज, यही तो है !

THE QUEUE....