बोझिल जीवन !

अपने, सबसे बड़े चाचा, एक कुंतल, यानी एक सौ किलो की बोरी को भी, बहुत सहजता के साथ, उठा लिया करते थे, आम आदमी से तो, हिला पाना भी मुश्किल। थोड़ी ताकत, थोड़ी तरकीब, मैं तरकीब ज्यादा कहूँ, इसलिए कि तरकीब तो, ताकत बढ़ाने के काम भी, आती है।

तो किसी आदमी को, एक कुंतल की बोरी, हँसते हँसते उठाये देखो, तो याद रखना, वजन तो उसकी बोरी का भी, सौ ही किलो है, राई रत्ती कम नहीं, सिर्फ उसे आती है, तरकीब भी। ऐसे ही, आपकी बोरी, कोई स्पेशल भारी नहीं, फ़कत तरकीब, बोलें तो, ठीक से उठाना, नहीं सीख पाये। बोरियाँ, हल्की भारी, तकरीबन, एक सी !

ये भी, कि कुछ लोग ये समझ जाते हैं कि रोने-धोने से, शिकवे-शिकायतों से, किसी और पर दोषारोपण से, वज़न, कम थोड़े ही होता है, अलबत्ता, उठाने की ताकत, जरूर कम हो जाती है। संयम-संतुलन-साहस से सामना करें तो भी, वजन तो उतना ही रहता है, मनोवैज्ञानिक सपोर्ट से, ताकत इक्कीस लगने लगती है।

वैसे वज़न जो मिला, सो मिल गया, इस पर, जोर, किसी का है भी नहीं 🤔

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