प्रगतिशील परम्पराएंं !


अपनी तो, विरासतें ही हुआ करती हैं, तरक्कियाँ तो हुईं मेहमान। आईं, तो आईं, टिकीं तो टिकीं।

तो अतिथियों का स्वागत, दिल खोलकर, बाहें फैलाये, उन्हें अपनायें, अपना ही बना लें, परन्तु इसके निमित्त, उपेक्षा, अपनों की, आवश्यक, कतई नहीं। संरक्षण इन का भी, महत्वपूर्ण, और मूल्यवान, कम नहीं।

परम्परायें, यदि अंशतः समयबाह्य हो रही हैं, रुग्ण और क्षीण-शक्ति हो रही हैं तो उपचार का, स्वस्थ और प्रासंगिक बनाये रखने का, और यथा-संभव संवर्धन, समृद्धीकरण का, उत्तरदायित्व भी हमारा, बल्कि हमारा ही।

"जैसे, उड़ि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पे.. ", 
वाला जहाज, यही तो है !

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