एक घिसा पिटा मज़ाक है, एक पढ़े-लिखे, और एक अनपढ़ में, बहस होती थी। पढ़ा-लिखा, जाहिर है, भारी पड़ता था, और अनपढ़ के पास, कोई फौरी उपाय नहीं था। कई बार की लानत मलानत के बाद, उसे भी, उपाय, सूझ ही गया।
उसने पढ़े लिखे को, सार्वजनिक मंच पर शर्त लगाकर बहस की चुनौती दे डाली, कि एक दूसरे से सवाल पूछें, और जो उत्तर ना दे पाये, विपक्षी को तत्काल, अनुतोष का भुगतान करे। एक शर्त और भी, कि पढ़े-लिखे के पास संसाधन अधिक हैं तो पारिता के लिए, विफलता की स्थिति में, अनपढ़ का अनुतोष अधिक हो। जैसे अनपढ़ के पास, जवाब ना हो तो 1,000 ₹, अगर पढ़ा-लिखा निरुत्तर हो, मगर, तो अनुतोष, 1,00,000 ₹। अति आत्मविश्वास में, पढ़ा-लिखा, राज़ी भी हो गया।
यही, भारी भूल साबित हुई कि भैंस का वज़न, अकल से नाप लिया। अनपढ़ ने, पहले सवाल की बारी भी, बड़ी आसानी से, पा ली, और पूछा,"वो चिड़िया, जिस का सिर एक, मगर आँखें, चार ?" पढ़े-लिखे का तो दिमाग़ घूम गया। ना कभी देखा, ना सुना, थोड़ी-बहुत मगज़मारी के बाद, 1,00,000 ₹, चुपचाप, अनपढ़ के हवाले कर दिए।
अब बारी, पढ़े लिखे की थी, तो उसने अपने ज्ञानवर्धन को वही सवाल, अनपढ़ से पूछ लिया। अनपढ़ ने बिना कोई समय लगाये, 1,000 ₹, चुपचाप, पढ़े लिखे को थमा दिए।
आजकल, प्रेरणा यही है, या कुछ और, यही तरकीब बहुत लोकप्रिय भी है, कारगर भी। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर, आप कोई भी सवाल पूछ सकते है, जवाब हो ही, आपको इससे क्या ? यह दायित्व तो पढ़े लिखों को, कर्ता-धर्ताओं का, कि वो कहीं से भी लायें, जवाब देना तो, पड़ेगा ही। और ये काम आसान नहीं, खासकर, जवाब पूछने वाले को ही, संतुष्ट करने वाला भी, होने का चाही।
इसलिए कि सोये हुए को जगा भी लें, आँख ही बन्द कर रखी हो, जिसने, किसी ना किसी स्वार्थ में, उपाय कोई बचता नहीं। तो ये, प्रायः बे-मतलब के, सवाल-जवाब, चलते ही रहने वाले हैं, जब तक सवाल पूछने वाले को, खुद जवाब, और यथार्थ-परक, पता होने की पूर्व-शर्त, अनिवार्य ना कर दी जाये। तब तक, जन-धन का तो, अपव्यय हो ही रहा है, हुआ करे !
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