Happy Birthday, 75th !


23 जनवरी 1950, समय सुबह कोई 5 बजकर 20 मिनट, सूरज भी बाद में ही उगा होगा, जब दीदी, इस नश्वर संसार में, अवतरित हुईं।
वैसे, ये आँखों देखी नहीं है, मैं मौजूद, थोड़े ही था। दीदी ने, खुद बताया था, पंडित जी को, और पंडित जी ने, मुस्कराते हुए कहा था, "अगर आप बीस मिनट, केवल बीस मिनट, और इन्तजार कर लेतीं तो, ग्रहों की ब्रांड न्यू दशा में, विराजतीं। मगर यहाँ आने-जाने पर, किसका ही बस ?
मैं ख़ुद आया, कोई साढ़े सात साल बाद। सान्निध्य नापें तो कोई, सिक्सटी सिक्स एन्ड ए हॉफ साल (आज के बच्चे भी समझ लें, इसलिए ), शायद सबसे ज्यादा। विशेषाधिकार भी बनता है, उत्तरदायित्व भी, कुछ ऐसा भी, कह लेने का, जो किसी और के, बस की बात नहीं।
बड़ी बहन, आधी माँ, कही जाती है। माँ बोलें तो, कान पकड़ने का अधिकार, आपके भले-बुरे, हित-अहित के विचार का अधिकार, लाड़-प्यार के साथ, टोका-टाकी का भी, नाराजगी का भी। मगर, महत्वपूर्ण ये भी, कि बच्चे, कम देखभाल से ही नहीं, अत्यधिक देखभाल से भी, खूब परेशान होते हैं, ख़ासकर आजकल।
वापस, दीदी के बचपन में चलें, तो दीदी पीढ़ी की अगुआ थीं, सबसे बड़ी। दादी से दबंगई आई, प्रिंसिपल, तीसरी कक्षा में एडमीशन करने को राजी नहीं हुआ, तो दादी ने, अपने गाँव के स्कूल में, सीधे पाँचवी में, करा दिया। पाँच का एक्जाम, बड़ा एक्जाम होता था उन दिनों, बोर्ड कराता था, दूर-दराज, किसी सेन्टर पर, अनेक स्कूलों के छात्र, और दीदी ने सेन्टर ही टॉप कर डाला। यह पहचान जो बनी, शादी के बाद तक भी, साथ-साथ चली।
पढ़ाई को प्रोत्साहन, संसाधनों, और समर्थन की कमी, ना मायके में रही, ना ससुराल में। फिर नौकरी भी चुनी, तो टीचर की। यानी एक तो करेला था ही, नीम पर और चढ़ गया। माना, जूस हैल्दी होता है, मगर जो पिये, वही जाने। और पिलाने वाले का दिल तो, भरता ही नहीं, पिलाता ही जाता है, मोर ही मोर !
दीदी की ससुराल, रूढ़िवादी सोच की थी। जीजाजी की सुदूर तैनाती, उनके व्यापक सामाजिक दायित्व, प्रायः स्वतः आमंत्रित, ऊपर से, और फिर, असमय निधन। पूरा परिवार दीदी ने, अकेले, परिस्थितियों से जूझते हुये, संभाला। सभी बच्चों के शादी-ब्याह, और सैटिलमेन्ट, उन्हीं का संघर्ष का परिणाम। मायके में भी, जरूरत के समय, उन्हें बुलाने की, या ढूंढने की नौबत, कभी नहीं आई।
समीक्षा, जितनी आसान होती है, सम्पादन उतना ही मुश्किल। कुछ कमियाँ भी निश्चित ही मिलेगी, पर वे उन्हें कोई अपराधी नहीं, आम, सामान्य इन्सान ही बनाती हैं, जो गलत हो सकने का, कल कोई क्या कहेगा, का भी जोखिम उठाते हुए, साहसिक फैसले तो लेता ही है, उन पर चलने की हर-मुमकिन कोशिश भी करता है। गलती भी हो सकती है, इन्सान, हो ही नहीं सकती तो फ़रिश्ता।
अब तो 75 साल, किनारा नजदीक ही है। फर्ज की नदी, अब भी बहती ही जा रही है, मगर वक्त के साथ, रफ़्तार कम हो ही जाती है। एक और ख़ास बात, तली ऊँची हो जाये तो नदी आगे नहीं जाती, वापस लौट लेती है। बोलें तो, बच्चों की सामर्थ्य, ग़र आपसे अधिक हो तो समझो तली ऊपर हो गई। देखभाल, अब आप, बच्चों की नहीं, बच्चे, आपकी करेंगे।
समझो, गाड़ी के नाव पर आने का समय आ गया। गाड़ी, अब भी हाथ-पैर मारेगी तो नाव का संतुलन ही बिगाड़ेगी। यह नियम कुदरत का है, शाश्वत है, परे इससे, कोई नहीं।
मगर माँ का दिल है, और दो-तिहाई जीवन की आदत, इतना आसान नहीं है। शरीर साथ ना दे पाये, तो भी। फिर फ्रस्ट्रेशन, और क्रोध, और सब गुड़-गोबर। ऐसी ऐसी बातें मुँह से निकल जातीं हैं कि याद करो तो ख़ुद को शर्म आये। सारी साॅरियाँ, और पुचकार, समझो बैन्ड एड की तरह, घाव ढक तो लेती हैं, भर नहीं सकतीं। रिसता ही, टीसता ही रहता है, अन्दर ही अन्दर, कभी कभी ज़िन्दगी भर।
करें क्या ? हर बूढ़े की, यही बीमारी है, और लाइलाज है। और जो भी लाइलाज है, उससे लड़ने का फायदा कोनी, स्वीकारने में ही भलाई। यह समय, वानप्रस्थ का है। प्रभु से जान पहचान बढ़ाइये, आगे काम आयेगी, आख़िर में, वहीं तो जाना है। बच्चों को जरूरत हो, वो ख़ुद माँगे तो ही, सलाह दीजिये, केवल सलाह, फैसले नहीं। उनके सामर्थ्य पर, विवेक पर भरोसा रखिये और याद ये भी रखिये,
"जलो वहीं, और तब, जब वाकई जरूरत हो,
दिन के उजाले में, चरागों के मायने नहीं होते !"
उपरोक्त सम्बोधन का पूर्वार्ध, तो मेरा ही है, अर्धांगिनी को कैसे ही मालूम होगा। मगर उत्तरार्ध में भी, भाभियाँ, अपनी तरफ, अभी भी ननद पर, सीधे बोलने से बचना पसन्द करती हैं, परन्तु जो भी मैंने कहा, विरोध उसका कहीं कोई नहीं। तो, वक्तव्य हम दोनों का ही माने जाने में, जोखिम कोई ख़ास नहीं।
जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाइयाँ ! आप सौ साल जियें, स्वस्थ जियें और सानन्द जियें। बच्चों पर, हम लोग भी उन्हीं में आते हैं, प्यार और आशीर्वाद बरसाती रहें। और रोशन तभी हों, जब लाइट चली जाये, और लाइट कभी ना जाये, भगवान करे !

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