समझें कि एक परिवार, पति, पत्नी और एक बालक, उम्र, यही कोई तीन-चार साल, अभी-अभी स्कूल जाना शुरू किया है। पिता ने, स्कूल चुना, एडमीशन कराया, सारी संबंधित व्यवस्थाएं भी कीं, रोज़ ड्राॅप करने और पिक-अप की जिम्मेदारी, उसी की। माँ, सुबह-सुबह बच्चे को तैयार करती है, और ख़ास बात, लंच-टाइम के लिए, टिफिन बनाती है।
टिफ़िन में क्या ? माँ की मान्यता है कि शुद्ध और ताज़ा होना चाहिए, तो रोजाना, सुबह-सवेरे उठ कर, पराँठा बनाती है, सब्जी के साथ। खिलाती भी है, और पैक भी करती है। स्कूल में, लंच-टाइम में, सारे बच्चे एक साथ बैठे हैं, कोई ब्रैड ऑमलेट भी लाया है, शेयर कर रहे हैं, बच्चे तक भी पहुँचा, और इतना पसन्द आया कि सब्जी पराँठा, जस का तस, घर वापस लौट आया।
माँ ने टिफिन देखा तो, पूछताछ शुरू हुई, और बच्चे ने भोलेपन से, सब-कुछ बता दिया, और ये कि, उसे भी, सब्जी पराँठे की जगह, ऑमलेट ही चाहिए। मगर एक तो अण्डा, और फिर उसके किचिन में, माँ को मंजूर ना था। धार्मिक मान्यताएं तो थी हीं, महक भी असहनीय थी। उसने सात्विक, शुद्ध और पौष्टिक भोजन के लाभ गिनाए, नित्य एक्सट्रा मेहनत का वास्ता दिया, तो भी, बच्चे की चाॅइस, वहीं की वहीं।
पिता ने जानकारों से सलाह-मशवरा किया। पता चला कि पौष्टिकता अपनी जगह, कोई खास अन्तर है भी नहीं, मनभावन होना भी, महत्वपूर्ण। मन भायेगा, तो ही तो, तन को भी लगेगा भी, वरना पौष्टिकता रखी की रखी रह जायेगी। माँ को समझाने की कोशिशें हुई कि धैर्य रखें, बच्चे को समझाने की, मनाने की कोशिश हो। कुछ दिन ऑमलेट ही सही, जहर तो नहीं है, ना ? इतने लोग खाते हैं, मगर माँ ने भी ज़िद पकड़ ली। बच्चे को, मनमानी नहीं करने दी जायेगी। माँ-बाप के अधिकार, आहूत किए जायेंगे।
बच्चे को, टिफिन में, फिर से, सब्जी पराँठा ही दिया गया, इस चेतावनी के साथ, कि अपना अपना ही खाना है। मगर, मन तो मन ही होता है, मगर, बच्चे ने सब्जी पराँठा तो खाया, ऑमलेट भी खाया। इसलिए टिफिन खाली तो हुआ, थोड़ा सा बचा भी रह गया। घर वापसी पर, माँ ने चैक किया तो पूछा, "खत्म क्यों नहीं किया ?" बच्चे ने कह दिया, "भूख नहीं थी"
अगले दिन, माँ ने थोड़ा कम रखा, उसमें भी वापसी हुई, तो शक हुआ। सख़्ती से पूछा तो बच्चे ने बताया कि थोड़ा सा ऑमलेट भी खाता है, इसीलिए बच जाता है। माँ ने खूब डाँटा, और अबकी बार, अल्टीमेटम के साथ, कि कल से ऑमलेट बन्द, केवल अपना टिफिन, कल से खाली न हुआ, तो देखना !
इन्सानी फितरत, कि अगर जबरदस्ती, हद के पार हो जाये तो विद्रोही हो जाता है। अब तो करना ही है, और बच्चे भी, हर उम्र के, अपवाद नहीं। बच्चे ने ऑमलेट नहीं छोड़ा, हाँ, टिफिन का खाना, डस्टबिन में गिराना, और झूठ-मूठ खा लिया, कह डालना शुरू कर दिया। टिफिन खाली मिलने लगा तो, माँ ने भी राहत की साँस ली। सही रास्ते पर ले ही आई, आख़िरकार।
ये खुशी, बहुत दिन चली नहीं, मगर। पीटीए में, टीचर ने, टिफिन डस्टबिन में डाले जाने की खबर, माँ-बाप को बता ही दी। माँ का गुस्सा तो, सातवें आसमान पर, माँ-बाप के आदेशों की अवहेलना, झूठ बोलना, चोरी चोरी काम करना और छुपाना, गुनाह अनगिनत, उस दिन, जम के कुटाई हुई उसकी। वो रोता भी जाता था, और सोचता भी जाता था, कब वो दिन आयेगा, जब वो, मन भर के, सिर्फ ऑमलेट ही बनवाया और खाया करेगा। माँ जमाने को कोसती जाती थी। माँ-बेटे का रिश्ता, बस नाम का, दिखाने भर का बचा था।
इस प्रसंग के, निहितार्थ, व्यापक और मूल्यवान हैं। बात केवल, बच्चे की ही नहीं, हम सभी की भी है। हम सभी के सामने, प्रायः एकाधिक विकल्प होते ही हैं। अगर हम किसी के, चयनित विकल्प नहीं हैं, किसी भी कारण से, तो हम दो काम कर सकते हैं:
एक, हम अपेक्षाओं को समझें, पहचानें और सप्रयास, खुद को, औरों से, बेहतर बनने में लग जायें । देर सबेर, आप पसंदीदा विकल्प बन ही जायेंगे, निश्चित, स्थाई और सुखद सानन्द जीवन।
दो, हम, अपनी ही जगह पर ही रहने की, जिद ठान लें, और, जो भी विकल्प हम से बेहतर हैं, उन्हें ध्वस्त करने में जुट जायें, यानी हमसे बेहतर, सब खतम, कोई बचे ही नहीं। फिर तो, झक मार के आपके ही पास आना पड़ेगा। मगर याद रहे, यह सौदा, राजी नहीं, मजबूरी का हुआ, तो मजबूरी रहने तक ही रहने वाला है, और तब तक, सुख और आनंद, ढूँढते ही रहोगे, झलक जाये, कभी-कभार, बात अलग । एक तलवार सी, सर पर, हमेशा लटकी रहेगी।
मर्जी आपकी, आख़िर लाइफ भी तो है, आपकी ही !
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