गिनती की शरीर वैज्ञानिक बाध्यताओं से इतर, शायद ही कोई ऐसा काम हो जो, पुरुष तो कर सकता हो, और स्त्री ठान ले, फिर भी कर ना सके। साथ-साथ, शायद ही कोई काम, ऐसा होता है, जो पुरुष उपलब्ध हो, तो भी स्त्री से करवाना, उसे अच्छा लगता हो।
फिर काम को लेकर विवाद कैसे ? आपने प्रायः ऐसा, कहीं कहीं, लिखा देखा होगा, हम आपकी मदद कर सकें, इसमें कृपया हमारी मदद करें।
Help us to, let us help you, please !
आशय क्या हुआ ? दरअसल, आप किसी की कोई भी मदद, तब तक कर ही नहीं सकते जब तक वो स्वीकार करने को सज्ज ना हो। मुट्ठी बन्द रही आये तो आपका दिया, ग्रहण हो ही नहीं सकता, वह फिर कोहिनूर ही, क्यों ना हो। हाथ फैलाना, और उसे दाता के हाथ से नीचे ही रखा जाना, सम्मान-असम्मान से इतर, प्रक्रियात्मक अनिवार्यता भी हुआ करती है।
हाथ फैलाना, प्रायः असम्मान-जनक मान लिया जाता है, ऐसा अनिवार्य नहीं। केवल तभी होता है, जब भीख माँगी जाये, याचना हो। कभी अर्पण भी करके देखिये, अनुसरण इसी व्यवस्था का ही, करना पड़ेगा।
केवल लेना ही लेना, निकम्मापन, केवल देना ही देना, अगर साशय हो तो उदारता, अन्यथा नादानी, कभी लेना भी, कभी देना भी, व्यावहारिक सामाजिकता। दुनियादारी। और ये परस्पर, द्विपक्षीय ही हुआ करती है। अनेक काम ऐसे भी होते हैं, जो प्रायः केवल स्त्रियाँ ही किया करती हैं, आ ही पड़े तो पुरुष भी, कर ही लेंगे मगर कोई भी स्त्री, ऐसा देखकर, गौरवान्वित अनुभव तो नहीं ही करेगी।
मदद देना भी, और मदद लेना भी, सामाजिकता का महत्वपूर्ण आयाम, अपेक्षित भी, क्यों कि अपनी पीठ, आप स्वयं स्क्रैच नहीं ना कर सकते, और इचिंग का क्या ? किसी को भी हो सकती है, कभी भी, और होती ही है।
गलत तो नहीं ?
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