रीति-रिवाज-परम्परायें !

अगर आप से बूझें, इलैक्ट्रानिक गैजट, कौन सा लेना चाहिए, आप कहेंगे, लेटेस्ट, जितना नया, उतने फीचर, उतना पॉवर, उतना फास्ट। तो जितना नया अफोर्ड कर पाओ, उतना बढ़िया। 

मगर नया, हमेशा अच्छा ही हो, जरूरी कोनी। पुराने की भी, अपनी कीमत, हुआ करती है। पुराने चावल, पुरानी शराब, आन-बान-शान। विरासत का अनिवार्य अंग होती हैं, परम्परायें। इनहैरिटेड वैल्यूज़ !

पुरानी इमारतों के दरवाजे, अक्सर छोटे मिलते हैं। सर झुका के आना होता है, ध्यान रहे, सर झुकाने से कोई, छोटा भी नहीं होता।

"वो जिसने, सर अपना, दर पे झुकाया होगा,
कद उसका, यकीनन् बड़ा, दर से रहा होगा !"

अगर, ईगो या किसी और वजह, कर ना सको, फूटेगा सर भी, टूटेगा दरवाजा भी, और भरोसा इमारत का भी क्या ? विनम्रता, विशिष्ट सद्गुण माना गया है। इन्हीं के लिए, कहा जाता है,

"अन्दाज़ा उसके कद का लगाना, आसान न था,
था तो आसमान, मगर, झुक के चला करता था।



Life, Your's ! Choice, Your's, and Only Your's, too !!


समझें कि एक परिवार, पति, पत्नी और एक बालक, उम्र, यही कोई तीन-चार साल, अभी-अभी स्कूल जाना शुरू किया है। पिता ने, स्कूल चुना, एडमीशन कराया, सारी संबंधित व्यवस्थाएं भी कीं, रोज़ ड्राॅप करने और पिक-अप की जिम्मेदारी, उसी की। माँ, सुबह-सुबह बच्चे को तैयार करती है, और ख़ास बात, लंच-टाइम के लिए, टिफिन बनाती है।

टिफ़िन में क्या ? माँ की मान्यता है कि शुद्ध और ताज़ा होना चाहिए, तो रोजाना, सुबह-सवेरे उठ कर, पराँठा बनाती है, सब्जी के साथ। खिलाती भी है, और पैक भी करती है। स्कूल में, लंच-टाइम में, सारे बच्चे एक साथ बैठे हैं, कोई ब्रैड ऑमलेट भी लाया है, शेयर कर रहे हैं, बच्चे तक भी पहुँचा, और इतना पसन्द आया कि सब्जी पराँठा, जस का तस, घर वापस लौट आया।

माँ ने टिफिन देखा तो, पूछताछ शुरू हुई, और बच्चे ने भोलेपन से, सब-कुछ बता दिया, और ये कि, उसे भी, सब्जी पराँठे की जगह, ऑमलेट ही चाहिए। मगर एक तो अण्डा, और फिर उसके किचिन में, माँ को मंजूर ना था। धार्मिक मान्यताएं तो थी हीं, महक भी असहनीय थी। उसने सात्विक, शुद्ध और पौष्टिक भोजन के लाभ गिनाए, नित्य एक्सट्रा मेहनत का वास्ता दिया, तो भी, बच्चे की चाॅइस, वहीं की वहीं।

पिता ने जानकारों से सलाह-मशवरा किया। पता चला कि पौष्टिकता अपनी जगह, कोई खास अन्तर है भी नहीं, मनभावन होना भी, महत्वपूर्ण। मन भायेगा, तो ही तो, तन को भी लगेगा भी, वरना पौष्टिकता रखी की रखी रह जायेगी। माँ को समझाने की कोशिशें हुई कि धैर्य रखें, बच्चे को समझाने की, मनाने की कोशिश हो। कुछ दिन ऑमलेट ही सही, जहर तो नहीं है, ना ? इतने लोग खाते हैं, मगर माँ ने भी ज़िद पकड़ ली। बच्चे को, मनमानी नहीं करने दी जायेगी। माँ-बाप के अधिकार, आहूत किए जायेंगे।

बच्चे को, टिफिन में, फिर से, सब्जी पराँठा ही दिया गया, इस चेतावनी के साथ, कि अपना अपना ही खाना है। मगर, मन तो मन ही होता है, मगर, बच्चे ने सब्जी पराँठा तो खाया, ऑमलेट भी खाया। इसलिए टिफिन खाली तो हुआ, थोड़ा सा बचा भी रह गया। घर वापसी पर, माँ ने चैक किया तो पूछा, "खत्म क्यों नहीं किया ?" बच्चे ने कह दिया, "भूख नहीं थी"

अगले दिन, माँ ने थोड़ा कम रखा, उसमें भी वापसी हुई, तो शक हुआ। सख़्ती से पूछा तो बच्चे ने बताया कि थोड़ा सा ऑमलेट भी खाता है, इसीलिए बच जाता है। माँ ने खूब डाँटा, और अबकी बार, अल्टीमेटम के साथ, कि कल से ऑमलेट बन्द, केवल अपना टिफिन, कल से खाली हुआ, तो देखना !

इन्सानी फितरत, कि अगर जबरदस्ती, हद के पार हो जाये तो विद्रोही हो जाता है। अब तो करना ही है, और बच्चे भी, हर उम्र के, अपवाद नहीं। बच्चे ने ऑमलेट नहीं छोड़ा, हाँ, टिफिन का खाना, डस्टबिन में गिराना, और झूठ-मूठ खा लिया, कह डालना शुरू कर दिया। टिफिन खाली मिलने लगा तो, माँ ने भी राहत की साँस ली। सही रास्ते पर ले ही आई, आख़िरकार।

ये खुशी, बहुत दिन चली नहीं, मगर। पीटीए में, टीचर ने, टिफिन डस्टबिन में डाले जाने की खबर, माँ-बाप को बता ही दी। माँ का गुस्सा तो, सातवें आसमान पर, माँ-बाप के आदेशों की अवहेलना, झूठ बोलना, चोरी चोरी काम करना और छुपाना, गुनाह अनगिनत, उस दिन, जम के कुटाई हुई उसकी। वो रोता भी जाता था, और सोचता भी जाता था, कब वो दिन आयेगा, जब वो, मन भर के, सिर्फ ऑमलेट ही बनवाया और खाया करेगा। माँ जमाने को कोसती जाती थी। माँ-बेटे का रिश्ता, बस नाम का, दिखाने भर का बचा था।

इस प्रसंग के, निहितार्थ, व्यापक और मूल्यवान हैं। बात केवल, बच्चे की ही नहीं, हम सभी की भी है। हम सभी के सामने, प्रायः एकाधिक विकल्प होते ही हैं। अगर हम किसी के, चयनित विकल्प नहीं हैं, किसी भी कारण से, तो हम दो काम कर सकते हैं:

एक, हम अपेक्षाओं को समझें, पहचानें और सप्रयास, खुद को, औरों से, बेहतर बनने में लग जायें देर सबेर, आप पसंदीदा विकल्प बन ही जायेंगे, निश्चित, स्थाई और सुखद सानन्द जीवन।

दो, हम, अपनी ही जगह पर ही रहने की, जिद ठान लें, और, जो भी विकल्प हम से बेहतर हैं, उन्हें ध्वस्त करने में जुट जायें, यानी हमसे बेहतर, सब खतम, कोई बचे ही नहीं। फिर तो, झक मार के आपके ही पास आना पड़ेगा। मगर याद रहे, यह सौदा, राजी नहीं, मजबूरी का हुआ, तो मजबूरी रहने तक ही रहने वाला है, और तब तक, सुख और आनंद, ढूँढते ही रहोगे, झलक जाये, कभी-कभार, बात अलग एक तलवार सी, सर पर, हमेशा लटकी रहेगी।

मर्जी आपकी, आख़िर लाइफ भी तो है, आपकी ही !

Happy Republic Day !


आज गणतंत्र दिवस है, एक दूसरे की तरफ से, और सबकी तरफ से, सभी को बधाई, और शुभकामनायें भी !👏👏👏👍

गणतन्त्र दिवस, यानी खुद अपना ही बनाया संविधान, अपने ही ऊपर लागू करने का, संकल्प लेने का दिन। संविधान बोलें तो, सामाजिक मर्यादाओं का संकलन। क्या करना है, क्या नहीं करना है, का अभिलेख। आपके अधिकार, मगर उनसे पहले, आपके कर्तव्यों का लेखा जोखा।

मर्यादाओं के बिना कोई समाज, एक दिन भी नहीं चलता । ये रोकती नहीं, नियंत्रित करती हैं, उड़ती हुई पतंग की डोरी की तरह। इससे मुक्ति की कोशिश, आत्म हत्या से, किसी तरह भी  कम नहीं। डोरी खोल दी जाये, तो पंतग, आसमान नहीं छुआ करती, जमीन पर आ गिरती है, पलक झपकते।

एक अपेक्षा, हम सभी यह बात समझें, सोचें और अनुसरण भी करें। आज के दिन, भारत की जय, बोलते तो हर साल आये हैं, इस बार कुछ अलग कर के देखें । भारत की जय, बोलने के साथ-साथ, थोड़ी-बहुत, करें भी, अपने सक्रिय योगदान के माध्यम से। शुरुआत, भले छोटी सी हो मगर, ईमानदार हो, मजबूत हो।

जय हिन्द ! 

Reluctant to marry


It deserves to be noted, however, that player may excel or fumble, the glory of the game stays, ever !

Getting Over Guilt




  1. तुलसी, या संसार में, तान चंदरिया सोय, होनी सो होकर रहे, अनहोनी ना होय ।
  2. किसी का मिलना-जुलना, नियति नियत, पूर्व निर्धारित, समय भी, प्रयोजन भी।
  3. समय से पहले, और भाग्य से अधिक, किसी को कभी भी, कुछ भी मिलता नहीं।
  4. जो हुआ, सो हो चुका, अच्छा हुआ, या बुरा, इतिहास हुआ, रात गई, बात भी गई।
मगर, एक स्पष्टीकरण भी ! पौधा बनेगा, या नहीं, आपके हाथ नहीं, परन्तु बीजारोपण, काम आप ही का, और अनिवार्य !


Advice, unsolicited !


वो सब की सब, सोहणी कुड़ियाँ,
जिन्हें घमंड है कि, उन पर तो, सैकड़ों जान देते हैं, जमीन पर ही रहें, और ये अच्छे से जान लें कि, वे सैकड़ों, करीब-करीब, हर कुड़ी पर, जान दिया करते हैं।
दरअसल, उनकी जान में, जान ही इतनी होती है कि जान में जान, जब से आती है, यहाँ, और वहाँ, और कहाँ-कहाँ नहीं, छिटकती ही रहती है, शादी से पहले भी, शादी के बाद भी ! अक्सर कफ़न दफ़न तक भी !!
उनका तो ये, लाइफ-स्टाइल हुआ, कुदरती, और फितरती, ना 'रस्मी' डेडीकेशन, ना कमिटमेंट !
अब अगर, आप कर बैठें, तो आप जानें।
फिर ना कहना... 😁

सवाल ट्यूनिंग का


वो, परम्परावादी लोग थे, और अपनी बेटी के लिए, सुयोग्य वर तलाश रहे थे। एक जगह बात चली तो वहाँ, गुण मिलान के लिये जन्म पत्री माँग ली गई। जन्म पत्री देते समय, उन्होंने लगे हाथ, वर की भी जन्म पत्री ले ली और अपने पंडित जी से मिलान करा लिया। 36 गुण, साहब, 36 के 36 गुण, समान मिले। दुर्लभ संयोग, 'रधुनन्दन, फूले ना समाय' ! लगा कि अब कोई कैसे ही मना करेगा, रिश्ता पक्का हुआ ही समझो।
मगर हैरानी की बात, रिश्ता पक्का होना तो दूर, लड़के वालों ने दरवाजा भी नहीं खोला। अन्दर से ही कहलवा दिया कि रिश्ता नहीं करना है, इसलिए अब इधर आने का कष्ट ना करें। घोर अपमान के साथ-साथ, अचरज की बात, 36 गुण मिलने के बाद भी ? तो सफाई आई, "हमारा लड़का तो लफंगा है, ये हमें मालूम है, तो क्या लड़की भी, लफंगी ही ले आयें, जानते बूझते ?"
इतना तो मजाक है, और मुझे लगता है भ्रांति है बहुत बड़ी कि ग़र लड़का लड़की एक विचार के होंगे तो कल्याण होगा। अरे, बण्टाढार होगा साहब, अन्यथा सगोत्रीय सम्बन्धों को, वरीयता ना दी जाती। जैसे गड्ढा बनायें, पौधे के लिए, एक समान विचार का आशय, कुदाल का, ठीक एक जगह चलना, गड्ढा गहरा होता जायेगा, मगर विस्तार, चौड़ाई कहाँ से आयेगी। कोई पौधा रोप ना सकेंगे।
दोनों कुदालें, साथ-साथ चलें, मगर एक ही जगह नहीं, आस-पास, सामंजस्य के साथ, तो ही काम बनेगा। समझदार लोग, समान नहीं, कम्पैटिबिल की तलाश करते हैं, जैसे कि नट और बोल्ट। चूड़ियाँ मिलाई जाती हैं। कामयाब हो जायें, तो जोड़ बने, ऐसा कि हिलाए ना हिले। परम मूढ़ता में, बोल्ट बोल्ट, या फिर नट और नट की, शादी करा दी, तो जीते जी, उम्र भर के नरक का इंतजाम कर गये, जाने अनजाने।
और ये कि, बोल्ट और नट की, संयुक्त उपयोगिता है, दोनों बिल्कुल अलग-अलग हैं मगर, इसीलिये तुलना और प्रतिस्पर्धा की बात ही निपट मूर्खता, और इसी बात पर जिन्दगियाँ तबाह हो रही हैं। बेहतर साबित करने को, बीच चौराहे, एक दूसरे के, कपड़े फाड़े जा रहे हैं, बेख़बर, कि दोनों ही निर्वस्त्र हो रहे हैं, शर्म, मगर, किसी को नहीं आती !
अरे, कोई तो सोचो ! 👐

Heritage




Not my generation, either. One, or two older, perhaps !
 

Engineer's Magic !


 

त्रिमूर्ति


त्रिमूर्ति की अवधारणा, अर्वाचीन है, मगर शाश्वत है, या कि हम सभी के अन्दर, चिर-स्थापित रहती है।

त्रिमूर्ति, बोलें तो, तीन स्वरूप। एक, जो आप, स्वयं को समझते हैं, दो, जो और लोग, आपको समझते हैं, और तीन, जो दर-असल, आप हैं।

एक, जो शादी से पहले, प्रेमी-प्रेमिका दोनों, एक दूसरे में देखते हैं, दो, जो शादी, थोड़ी पुरानी हो जाने के बाद एक दूसरे में, देखने लगते हैं, तीसरे जो, वस्तुतः होते हैं, ईगो से बाहर पायें तो, देख भी सकते है, और तो और, सुख-शान्ति से, साथ-साथ, रह भी सकते हैं।

आभार 🙏, आलोक खन्ना जी !

Happy Birthday, 75th !


23 जनवरी 1950, समय सुबह कोई 5 बजकर 20 मिनट, सूरज भी बाद में ही उगा होगा, जब दीदी, इस नश्वर संसार में, अवतरित हुईं।
वैसे, ये आँखों देखी नहीं है, मैं मौजूद, थोड़े ही था। दीदी ने, खुद बताया था, पंडित जी को, और पंडित जी ने, मुस्कराते हुए कहा था, "अगर आप बीस मिनट, केवल बीस मिनट, और इन्तजार कर लेतीं तो, ग्रहों की ब्रांड न्यू दशा में, विराजतीं। मगर यहाँ आने-जाने पर, किसका ही बस ?
मैं ख़ुद आया, कोई साढ़े सात साल बाद। सान्निध्य नापें तो कोई, सिक्सटी सिक्स एन्ड ए हॉफ साल (आज के बच्चे भी समझ लें, इसलिए ), शायद सबसे ज्यादा। विशेषाधिकार भी बनता है, उत्तरदायित्व भी, कुछ ऐसा भी, कह लेने का, जो किसी और के, बस की बात नहीं।
बड़ी बहन, आधी माँ, कही जाती है। माँ बोलें तो, कान पकड़ने का अधिकार, आपके भले-बुरे, हित-अहित के विचार का अधिकार, लाड़-प्यार के साथ, टोका-टाकी का भी, नाराजगी का भी। मगर, महत्वपूर्ण ये भी, कि बच्चे, कम देखभाल से ही नहीं, अत्यधिक देखभाल से भी, खूब परेशान होते हैं, ख़ासकर आजकल।
वापस, दीदी के बचपन में चलें, तो दीदी पीढ़ी की अगुआ थीं, सबसे बड़ी। दादी से दबंगई आई, प्रिंसिपल, तीसरी कक्षा में एडमीशन करने को राजी नहीं हुआ, तो दादी ने, अपने गाँव के स्कूल में, सीधे पाँचवी में, करा दिया। पाँच का एक्जाम, बड़ा एक्जाम होता था उन दिनों, बोर्ड कराता था, दूर-दराज, किसी सेन्टर पर, अनेक स्कूलों के छात्र, और दीदी ने सेन्टर ही टॉप कर डाला। यह पहचान जो बनी, शादी के बाद तक भी, साथ-साथ चली।
पढ़ाई को प्रोत्साहन, संसाधनों, और समर्थन की कमी, ना मायके में रही, ना ससुराल में। फिर नौकरी भी चुनी, तो टीचर की। यानी एक तो करेला था ही, नीम पर और चढ़ गया। माना, जूस हैल्दी होता है, मगर जो पिये, वही जाने। और पिलाने वाले का दिल तो, भरता ही नहीं, पिलाता ही जाता है, मोर ही मोर !
दीदी की ससुराल, रूढ़िवादी सोच की थी। जीजाजी की सुदूर तैनाती, उनके व्यापक सामाजिक दायित्व, प्रायः स्वतः आमंत्रित, ऊपर से, और फिर, असमय निधन। पूरा परिवार दीदी ने, अकेले, परिस्थितियों से जूझते हुये, संभाला। सभी बच्चों के शादी-ब्याह, और सैटिलमेन्ट, उन्हीं का संघर्ष का परिणाम। मायके में भी, जरूरत के समय, उन्हें बुलाने की, या ढूंढने की नौबत, कभी नहीं आई।
समीक्षा, जितनी आसान होती है, सम्पादन उतना ही मुश्किल। कुछ कमियाँ भी निश्चित ही मिलेगी, पर वे उन्हें कोई अपराधी नहीं, आम, सामान्य इन्सान ही बनाती हैं, जो गलत हो सकने का, कल कोई क्या कहेगा, का भी जोखिम उठाते हुए, साहसिक फैसले तो लेता ही है, उन पर चलने की हर-मुमकिन कोशिश भी करता है। गलती भी हो सकती है, इन्सान, हो ही नहीं सकती तो फ़रिश्ता।
अब तो 75 साल, किनारा नजदीक ही है। फर्ज की नदी, अब भी बहती ही जा रही है, मगर वक्त के साथ, रफ़्तार कम हो ही जाती है। एक और ख़ास बात, तली ऊँची हो जाये तो नदी आगे नहीं जाती, वापस लौट लेती है। बोलें तो, बच्चों की सामर्थ्य, ग़र आपसे अधिक हो तो समझो तली ऊपर हो गई। देखभाल, अब आप, बच्चों की नहीं, बच्चे, आपकी करेंगे।
समझो, गाड़ी के नाव पर आने का समय आ गया। गाड़ी, अब भी हाथ-पैर मारेगी तो नाव का संतुलन ही बिगाड़ेगी। यह नियम कुदरत का है, शाश्वत है, परे इससे, कोई नहीं।
मगर माँ का दिल है, और दो-तिहाई जीवन की आदत, इतना आसान नहीं है। शरीर साथ ना दे पाये, तो भी। फिर फ्रस्ट्रेशन, और क्रोध, और सब गुड़-गोबर। ऐसी ऐसी बातें मुँह से निकल जातीं हैं कि याद करो तो ख़ुद को शर्म आये। सारी साॅरियाँ, और पुचकार, समझो बैन्ड एड की तरह, घाव ढक तो लेती हैं, भर नहीं सकतीं। रिसता ही, टीसता ही रहता है, अन्दर ही अन्दर, कभी कभी ज़िन्दगी भर।
करें क्या ? हर बूढ़े की, यही बीमारी है, और लाइलाज है। और जो भी लाइलाज है, उससे लड़ने का फायदा कोनी, स्वीकारने में ही भलाई। यह समय, वानप्रस्थ का है। प्रभु से जान पहचान बढ़ाइये, आगे काम आयेगी, आख़िर में, वहीं तो जाना है। बच्चों को जरूरत हो, वो ख़ुद माँगे तो ही, सलाह दीजिये, केवल सलाह, फैसले नहीं। उनके सामर्थ्य पर, विवेक पर भरोसा रखिये और याद ये भी रखिये,
"जलो वहीं, और तब, जब वाकई जरूरत हो,
दिन के उजाले में, चरागों के मायने नहीं होते !"
उपरोक्त सम्बोधन का पूर्वार्ध, तो मेरा ही है, अर्धांगिनी को कैसे ही मालूम होगा। मगर उत्तरार्ध में भी, भाभियाँ, अपनी तरफ, अभी भी ननद पर, सीधे बोलने से बचना पसन्द करती हैं, परन्तु जो भी मैंने कहा, विरोध उसका कहीं कोई नहीं। तो, वक्तव्य हम दोनों का ही माने जाने में, जोखिम कोई ख़ास नहीं।
जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाइयाँ ! आप सौ साल जियें, स्वस्थ जियें और सानन्द जियें। बच्चों पर, हम लोग भी उन्हीं में आते हैं, प्यार और आशीर्वाद बरसाती रहें। और रोशन तभी हों, जब लाइट चली जाये, और लाइट कभी ना जाये, भगवान करे !

लेन-देन


गिनती की शरीर वैज्ञानिक बाध्यताओं से इतर, शायद ही कोई ऐसा काम हो जो, पुरुष तो कर सकता हो, और स्त्री ठान ले, फिर भी कर ना सके। साथ-साथ, शायद ही कोई काम, ऐसा होता है, जो पुरुष उपलब्ध हो, तो भी स्त्री से करवाना, उसे अच्छा लगता हो।

फिर काम को लेकर विवाद कैसे ? आपने प्रायः ऐसा, कहीं कहीं, लिखा देखा होगा, हम आपकी मदद कर सकें, इसमें कृपया हमारी मदद करें। 

Help us to, let us help you, please !

आशय क्या हुआ ? दरअसल, आप किसी की कोई भी मदद, तब तक कर ही नहीं सकते जब तक वो स्वीकार करने को सज्ज ना हो। मुट्ठी बन्द रही आये तो आपका दिया, ग्रहण हो ही नहीं सकता, वह फिर कोहिनूर ही, क्यों ना हो। हाथ फैलाना, और उसे दाता के हाथ से नीचे ही रखा जाना, सम्मान-असम्मान से इतर, प्रक्रियात्मक अनिवार्यता भी हुआ करती है।

हाथ फैलाना, प्रायः असम्मान-जनक मान लिया जाता है, ऐसा अनिवार्य नहीं। केवल तभी होता है, जब भीख माँगी जाये, याचना हो। कभी अर्पण भी करके देखिये, अनुसरण इसी व्यवस्था का ही, करना पड़ेगा।

केवल लेना ही लेना, निकम्मापन, केवल देना ही देना, अगर साशय हो तो उदारता, अन्यथा नादानी, कभी लेना भी, कभी देना भी, व्यावहारिक सामाजिकता। दुनियादारी। और ये परस्पर, द्विपक्षीय ही हुआ करती है। अनेक काम ऐसे भी होते हैं, जो प्रायः केवल स्त्रियाँ ही किया करती हैं, आ ही पड़े तो पुरुष भी, कर ही लेंगे मगर कोई भी स्त्री, ऐसा देखकर, गौरवान्वित अनुभव तो नहीं ही करेगी।

मदद देना भी, और मदद लेना भी, सामाजिकता का महत्वपूर्ण आयाम, अपेक्षित भी, क्यों कि अपनी पीठ, आप स्वयं स्क्रैच नहीं ना कर सकते, और इचिंग का क्या ? किसी को भी हो सकती है, कभी भी, और होती ही है।

गलत तो नहीं ?


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Welcome !




अंधेरा, कितना भी सघन क्यों ना कर लो, अंधेरा मिटेगा नहीं। ये बस की बात, रोशनी की है, जरा सी भी !
 

सुप्रभात् ! 😀

असार, ही भड़भड़ा रहा है, मेरे दोस्त ! ये सुख का, खुशियों का, संतोष का दरवाजा, अन्दर की तरफ़, तेरे ही अन्दर की तरफ खुलता है। बाहर तो है, कुछ भी नहीं !


Absolutely delighted to resume !


 After more than a year, I return, with an intent to stay here only, and wind up everywhere, else. Some favorites will be brought in, and fresh blooming will happen, right here, now on.

THE QUEUE....