रीति-रिवाज-परम्परायें !
Life, Your's ! Choice, Your's, and Only Your's, too !!
समझें कि एक परिवार, पति, पत्नी और एक बालक, उम्र, यही कोई तीन-चार साल, अभी-अभी स्कूल जाना शुरू किया है। पिता ने, स्कूल चुना, एडमीशन कराया, सारी संबंधित व्यवस्थाएं भी कीं, रोज़ ड्राॅप करने और पिक-अप की जिम्मेदारी, उसी की। माँ, सुबह-सुबह बच्चे को तैयार करती है, और ख़ास बात, लंच-टाइम के लिए, टिफिन बनाती है।
टिफ़िन में क्या ? माँ की मान्यता है कि शुद्ध और ताज़ा होना चाहिए, तो रोजाना, सुबह-सवेरे उठ कर, पराँठा बनाती है, सब्जी के साथ। खिलाती भी है, और पैक भी करती है। स्कूल में, लंच-टाइम में, सारे बच्चे एक साथ बैठे हैं, कोई ब्रैड ऑमलेट भी लाया है, शेयर कर रहे हैं, बच्चे तक भी पहुँचा, और इतना पसन्द आया कि सब्जी पराँठा, जस का तस, घर वापस लौट आया।
माँ ने टिफिन देखा तो, पूछताछ शुरू हुई, और बच्चे ने भोलेपन से, सब-कुछ बता दिया, और ये कि, उसे भी, सब्जी पराँठे की जगह, ऑमलेट ही चाहिए। मगर एक तो अण्डा, और फिर उसके किचिन में, माँ को मंजूर ना था। धार्मिक मान्यताएं तो थी हीं, महक भी असहनीय थी। उसने सात्विक, शुद्ध और पौष्टिक भोजन के लाभ गिनाए, नित्य एक्सट्रा मेहनत का वास्ता दिया, तो भी, बच्चे की चाॅइस, वहीं की वहीं।
पिता ने जानकारों से सलाह-मशवरा किया। पता चला कि पौष्टिकता अपनी जगह, कोई खास अन्तर है भी नहीं, मनभावन होना भी, महत्वपूर्ण। मन भायेगा, तो ही तो, तन को भी लगेगा भी, वरना पौष्टिकता रखी की रखी रह जायेगी। माँ को समझाने की कोशिशें हुई कि धैर्य रखें, बच्चे को समझाने की, मनाने की कोशिश हो। कुछ दिन ऑमलेट ही सही, जहर तो नहीं है, ना ? इतने लोग खाते हैं, मगर माँ ने भी ज़िद पकड़ ली। बच्चे को, मनमानी नहीं करने दी जायेगी। माँ-बाप के अधिकार, आहूत किए जायेंगे।
बच्चे को, टिफिन में, फिर से, सब्जी पराँठा ही दिया गया, इस चेतावनी के साथ, कि अपना अपना ही खाना है। मगर, मन तो मन ही होता है, मगर, बच्चे ने सब्जी पराँठा तो खाया, ऑमलेट भी खाया। इसलिए टिफिन खाली तो हुआ, थोड़ा सा बचा भी रह गया। घर वापसी पर, माँ ने चैक किया तो पूछा, "खत्म क्यों नहीं किया ?" बच्चे ने कह दिया, "भूख नहीं थी"
अगले दिन, माँ ने थोड़ा कम रखा, उसमें भी वापसी हुई, तो शक हुआ। सख़्ती से पूछा तो बच्चे ने बताया कि थोड़ा सा ऑमलेट भी खाता है, इसीलिए बच जाता है। माँ ने खूब डाँटा, और अबकी बार, अल्टीमेटम के साथ, कि कल से ऑमलेट बन्द, केवल अपना टिफिन, कल से खाली न हुआ, तो देखना !
इन्सानी फितरत, कि अगर जबरदस्ती, हद के पार हो जाये तो विद्रोही हो जाता है। अब तो करना ही है, और बच्चे भी, हर उम्र के, अपवाद नहीं। बच्चे ने ऑमलेट नहीं छोड़ा, हाँ, टिफिन का खाना, डस्टबिन में गिराना, और झूठ-मूठ खा लिया, कह डालना शुरू कर दिया। टिफिन खाली मिलने लगा तो, माँ ने भी राहत की साँस ली। सही रास्ते पर ले ही आई, आख़िरकार।
ये खुशी, बहुत दिन चली नहीं, मगर। पीटीए में, टीचर ने, टिफिन डस्टबिन में डाले जाने की खबर, माँ-बाप को बता ही दी। माँ का गुस्सा तो, सातवें आसमान पर, माँ-बाप के आदेशों की अवहेलना, झूठ बोलना, चोरी चोरी काम करना और छुपाना, गुनाह अनगिनत, उस दिन, जम के कुटाई हुई उसकी। वो रोता भी जाता था, और सोचता भी जाता था, कब वो दिन आयेगा, जब वो, मन भर के, सिर्फ ऑमलेट ही बनवाया और खाया करेगा। माँ जमाने को कोसती जाती थी। माँ-बेटे का रिश्ता, बस नाम का, दिखाने भर का बचा था।
इस प्रसंग के, निहितार्थ, व्यापक और मूल्यवान हैं। बात केवल, बच्चे की ही नहीं, हम सभी की भी है। हम सभी के सामने, प्रायः एकाधिक विकल्प होते ही हैं। अगर हम किसी के, चयनित विकल्प नहीं हैं, किसी भी कारण से, तो हम दो काम कर सकते हैं:
एक, हम अपेक्षाओं को समझें, पहचानें और सप्रयास, खुद को, औरों से, बेहतर बनने में लग जायें । देर सबेर, आप पसंदीदा विकल्प बन ही जायेंगे, निश्चित, स्थाई और सुखद सानन्द जीवन।
दो, हम, अपनी ही जगह पर ही रहने की, जिद ठान लें, और, जो भी विकल्प हम से बेहतर हैं, उन्हें ध्वस्त करने में जुट जायें, यानी हमसे बेहतर, सब खतम, कोई बचे ही नहीं। फिर तो, झक मार के आपके ही पास आना पड़ेगा। मगर याद रहे, यह सौदा, राजी नहीं, मजबूरी का हुआ, तो मजबूरी रहने तक ही रहने वाला है, और तब तक, सुख और आनंद, ढूँढते ही रहोगे, झलक जाये, कभी-कभार, बात अलग । एक तलवार सी, सर पर, हमेशा लटकी रहेगी।
मर्जी आपकी, आख़िर लाइफ भी तो है, आपकी ही !
Happy Republic Day !
आज गणतंत्र दिवस है, एक दूसरे की तरफ से, और सबकी तरफ से, सभी को बधाई, और शुभकामनायें भी !👏👏👏👍
गणतन्त्र दिवस, यानी खुद अपना ही बनाया संविधान, अपने ही ऊपर लागू करने का, संकल्प लेने का दिन। संविधान बोलें तो, सामाजिक मर्यादाओं का संकलन। क्या करना है, क्या नहीं करना है, का अभिलेख। आपके अधिकार, मगर उनसे पहले, आपके कर्तव्यों का लेखा जोखा।
मर्यादाओं के बिना कोई समाज, एक दिन भी नहीं चलता । ये रोकती नहीं, नियंत्रित करती हैं, उड़ती हुई पतंग की डोरी की तरह। इससे मुक्ति की कोशिश, आत्म हत्या से, किसी तरह भी कम नहीं। डोरी खोल दी जाये, तो पंतग, आसमान नहीं छुआ करती, जमीन पर आ गिरती है, पलक झपकते।
एक अपेक्षा, हम सभी यह बात समझें, सोचें और अनुसरण भी करें। आज के दिन, भारत की जय, बोलते तो हर साल आये हैं, इस बार कुछ अलग कर के देखें । भारत की जय, बोलने के साथ-साथ, थोड़ी-बहुत, करें भी, अपने सक्रिय योगदान के माध्यम से। शुरुआत, भले छोटी सी हो मगर, ईमानदार हो, मजबूत हो।
जय हिन्द !
Reluctant to marry
Getting Over Guilt
- तुलसी, या संसार में, तान चंदरिया सोय, होनी सो होकर रहे, अनहोनी ना होय ।
- किसी का मिलना-जुलना, नियति नियत, पूर्व निर्धारित, समय भी, प्रयोजन भी।
- समय से पहले, और भाग्य से अधिक, किसी को कभी भी, कुछ भी मिलता नहीं।
- जो हुआ, सो हो चुका, अच्छा हुआ, या बुरा, इतिहास हुआ, रात गई, बात भी गई।
Advice, unsolicited !
सवाल ट्यूनिंग का
त्रिमूर्ति
त्रिमूर्ति, बोलें तो, तीन स्वरूप। एक, जो आप, स्वयं को समझते हैं, दो, जो और लोग, आपको समझते हैं, और तीन, जो दर-असल, आप हैं।
एक, जो शादी से पहले, प्रेमी-प्रेमिका दोनों, एक दूसरे में देखते हैं, दो, जो शादी, थोड़ी पुरानी हो जाने के बाद एक दूसरे में, देखने लगते हैं, तीसरे जो, वस्तुतः होते हैं, ईगो से बाहर आ पायें तो, देख भी सकते है, और तो और, सुख-शान्ति से, साथ-साथ, रह भी सकते हैं।
आभार 🙏, आलोक खन्ना जी !
Happy Birthday, 75th !
लेन-देन
गिनती की शरीर वैज्ञानिक बाध्यताओं से इतर, शायद ही कोई ऐसा काम हो जो, पुरुष तो कर सकता हो, और स्त्री ठान ले, फिर भी कर ना सके। साथ-साथ, शायद ही कोई काम, ऐसा होता है, जो पुरुष उपलब्ध हो, तो भी स्त्री से करवाना, उसे अच्छा लगता हो।
फिर काम को लेकर विवाद कैसे ? आपने प्रायः ऐसा, कहीं कहीं, लिखा देखा होगा, हम आपकी मदद कर सकें, इसमें कृपया हमारी मदद करें।
Help us to, let us help you, please !
आशय क्या हुआ ? दरअसल, आप किसी की कोई भी मदद, तब तक कर ही नहीं सकते जब तक वो स्वीकार करने को सज्ज ना हो। मुट्ठी बन्द रही आये तो आपका दिया, ग्रहण हो ही नहीं सकता, वह फिर कोहिनूर ही, क्यों ना हो। हाथ फैलाना, और उसे दाता के हाथ से नीचे ही रखा जाना, सम्मान-असम्मान से इतर, प्रक्रियात्मक अनिवार्यता भी हुआ करती है।
हाथ फैलाना, प्रायः असम्मान-जनक मान लिया जाता है, ऐसा अनिवार्य नहीं। केवल तभी होता है, जब भीख माँगी जाये, याचना हो। कभी अर्पण भी करके देखिये, अनुसरण इसी व्यवस्था का ही, करना पड़ेगा।
केवल लेना ही लेना, निकम्मापन, केवल देना ही देना, अगर साशय हो तो उदारता, अन्यथा नादानी, कभी लेना भी, कभी देना भी, व्यावहारिक सामाजिकता। दुनियादारी। और ये परस्पर, द्विपक्षीय ही हुआ करती है। अनेक काम ऐसे भी होते हैं, जो प्रायः केवल स्त्रियाँ ही किया करती हैं, आ ही पड़े तो पुरुष भी, कर ही लेंगे मगर कोई भी स्त्री, ऐसा देखकर, गौरवान्वित अनुभव तो नहीं ही करेगी।
मदद देना भी, और मदद लेना भी, सामाजिकता का महत्वपूर्ण आयाम, अपेक्षित भी, क्यों कि अपनी पीठ, आप स्वयं स्क्रैच नहीं ना कर सकते, और इचिंग का क्या ? किसी को भी हो सकती है, कभी भी, और होती ही है।
गलत तो नहीं ?
सुप्रभात् ! 😀
Absolutely delighted to resume !
After more than a year, I return, with an intent to stay here only, and wind up everywhere, else. Some favorites will be brought in, and fresh blooming will happen, right here, now on.
THE QUEUE....
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तू बच के , भागेगा भी , कहाँ , नामाकूल ! ये तमाशबीन , ये पुलिस , ये कानून , सब, उसी के तो हैं , तेरे हिस्से , जेल , जलालत , पंखे ...