Collaboration !


अभी हाल ही में, आमिर ख़ान की "सितारे ज़मीन पर", देखने का संयोग हुआ। एक डायलॉग, जो दिल के बहुत नजदीक पहुँचा, पर आपसे चर्चा करना चाहूँगा :

हर व्यक्ति का नार्मल, यानी सामान्य परिस्थितियाँ, भिन्न भिन्न होती हैं, और अपनी अपनी होती हैं, महत्वपूर्ण मगर, एक जैसी ही होती हैं, प्रासंगिकता के अनुरूप, कभी थोड़ा कम, कभी थोड़ा ज्यादा। इसे उदाहरण से समझते हैं। 

कोई युवा, पढ़ाकू टाइप का, उसका नार्मल हुआ, जैसे 95% नम्बर। 90 से 100 की कोई भी परसेन्टेज, उसे सहज रखेगी, इससे कम होगी तो विचलित, और कम, तो चिन्तित, उच्चतर कोई भी परसेन्टेज, इस व्यक्ति के लिए, अप्रत्याशित नहीं।

कोई मनमौजी होगा, पास होने भर से, काम बन जाने लायक, तो उसका नार्मल, 35 से पैंतालीस। कम रह गये तो टेन्शन, 50 से ऊपर, तो मोहल्ले भर में मिठाई बंटनी तय। पहले वाले के, दस और भी ज्यादा आए होते, यानी 60, तो घर में मातम छाया होता। 

नार्मल, अलग-अलग, अपना अपना ! नार्मल, यानी शान्ति और सन्तोष। दायरे भी, नार्मल हुआ करते है, किसी को पढ़ना पढ़ाना नार्मल, तो किसी को कसरत, तो किसी को भजन कीर्तन, किसी को कुछ और। सब प्रासंगिकता, और स्वभाव की बात, क्या सही, क्या गलत।

अपने समाज में, प्रयास और उपलब्धि, सामूहिक हुआ करती है, अनेक लोगों के संयुक्त प्रयास से। योजना के साकार होने के लिए, नियन्त्रण क्रमानुक्रम (control hierarchy) अनिवार्य होती है। आसान भाषा में, एक मुखिया, जिसके पास अधिकार भी हो, जवाबदेही भी, और बाकी सब सहयोगी। अगर सबके नार्मल, एक से ना हों, तो ?

जैसे, पिता गुजर गये, तीन बेटे, बड़े की नार्मल फसल, धान, मँझले की मक्का और छोटे की जायद, यानी कि फल सब्जी वगैरह। एक ही खेत में, सब अपने अपने हिसाब से खाद और बीज सहित, संगत तैयारी करें, तो खेत में कुछ और नहीं, चरस ही उगेगी, यानी तैयारियाँ सब आपस में, उलझ कर रह जायेंगी, सार्थक कुछ भी उगना नहीं, लड़ाई झगड़े ऊपर से।

समाधान एक ही है, सब अपने अपने विचार, गलत-सही, दरकिनार कर, मुखिया का अनुसरण करें। मुखिया का निर्धारण, युक्तियुक्त हो, अनुभव, सबसे ज्यादा हो, या योग्यता, या स्वीकार्यता, जो भी हो, एक बार मुखिया निश्चित हो जाये तो सभी, मुखिया का ही अनुसरण, सहयोग करें, बात तभी बनेगी। अपात्र, अक्षम सिद्ध हो, या विश्वसनीयता ही खो बैठे, तो पहले मुखिया बदलें, फिर रास्ता, और फिर रणनीति।

इस वक्तव्य के निहितार्थ व्यापक हैं, और मेरे नार्मल के अनुसार उपयोगी भी। विचार करने में तो, बुराई कोनी !

किं-कर्तव्य-विमूढ़ !


कौन फ़रमाइश करूँ, पूरी, कौन सी रहने दूँ,
अपनी तनख्वाह, कई बार तो, गिन ली मैंने !

तनख़्वाह ही नहीं, सामर्थ्य भी सीमित ही होती है, हर इन्सान की, वैसे तो जरूरतें भी सीमित ही होती हैं, मगर हसरतों की, सीमा नहीं। ये थैला, भगवान जाने काहे से बना होता है, जितना भरता है, उतना ही फैलता जाता है, हमेशा मिलेगा, खाली का खाली।

आदमी एक, भूमिकाएं अनेक, बेटा भी, भाई भी, पति भी, बाप भी, दोस्त भी, पड़ोसी भी, बाॅस भी, मातहत भी, सामन्जस्य तो, अनिवार्यतः बिठाना ही पड़ता है। थोड़ा इसका, थोड़ा उसका, किसी का कम, किसी का थोड़ा ज्यादा। किसी का अभी कर दिया, कुछ अगली बार के लिये, कभी-कभार, कुछ नहीं भी हो पाता। 

अनगिनत ख्वाहिशों को, नपी तुली तनख्वाह में, फिट करने जैसी बात।

प्रायः घर-घर की ऐसी ही कहानी है। सौभाग्यशाली हैं वो, जिनके पाल्य, हासिल की कद्र करते हैं, सीमाओं को समझते हैं, और उपकृत ना सही, संतुष्ट रहते हैं, सहयोग की सतत सज्ज भी रहते हैं। ऐसे परिवार दिखेंगे, कभी कभार ही, अपवाद स्वरूप।

इसका विपरीत, केवल उसे ही गिनते जाने वाला, जो हर कोशिश के बाद भी, हो नहीं पाया, या थोड़ा-बहुत कम रह गया। जो हो गया, उसका महत्व कोई नहीं, जो कम रहा, उसी का हिसाब-किताब, उलाहना, ताने और असम्मान। बहुत बार तो, हो जाये तो भी किसी अन्य से, तुलनात्मक, कम होने के कारण, असंतोष बना ही रहता है।

मजे की बात, जिससे तुलना में, शिकायत है, सोचता वह भी यही है, इसलिए कि, हासिल तो कोई गिनता ही नहीं, सारी बात, बाकी की है, और बाकी हमेशा बना ही रहता है। तनख्वाह, कई बार तो गिनी जा चुकी। 

ये करमजले, जिन्दगी भर खटते हैं, अपयश भोगते हैं, यही लेकर जाते हैं, यही छोड़कर जाते हैं। अपने कर्तव्य, कितनी ही निष्ठा, कितनी ही सच्चाई से पूरे क्यों ना किये हों,

हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, विधि हाथ 🤗

दुर्दिन !


समझो, नदिया है जीवन; नाव है, भरण-पोषण की, जो भी व्यवस्था; इसमें भरते रहने वाला पानी है, आये दिन की चुनौतियाँ; माँझी है, परिवार का/की मुखिया; और साथ में, उसका सहारा, सहयोगी, सहभागी और प्रायः उसी पर आश्रित, हमसफ़र।

समय के साथ-साथ, नाव जर्जर होती जाती है, यहाँ वहाँ से आकर, नाव में भरने वाला, नाव का तैर पाना, कठिन बनाने वाला, पानी बढ़ता जाता है, और उसे अनिवार्यतः निकाल बाहर फेंकने की, माँझी की क्षमता, घटती जाती है। 

यानी,
कैपेसिटी हाफ़, ते मुसीबतें डबल ! राहत की बात, कि इनमें तीन-चौथाई, परिहार्य होती हैं, खाँम-खाँ। उनसे बचा जा सकता है, मगर दुर्भाग्य कि आती वहाँ से हैं, जहाँ से बाधाओं की जगह, उनका सामना करने का सहयोग, संबल और प्रोत्साहन आना चाहिए। 

मूढ़मति को, इसी नाव, इसी मांझी के भरोसे, बलबूते, पार भी उतरना है, यह मूलभूत बात, बहुधा देर बाद समझ आती है, जब किसी और नाव पर सवार हो नहीं पाते, हो भी जायें, तो उतार दिए जाते हैं। और, आपकी, आपकी अपनी नाव तो, डूब चुकी, कब की, किसी और के नहीं, आपके ही करमों से।

अब, दिल में हो दर्द, तो दवा लीजै,
दर्द, दवा से ही हो, तो फिर क्या कीजै ? 
🤗

फ़रारी बनाम ट्रैक्टर !


अगरचे, जोतने खेत ही हों, या तो, मन, खेत-खलिहान में ही, लगता हो, तो, खरीदना, ट्रैक्टर ही चाहिए, फ़रारी नहीं ☝️

फ़रारी को चाही, सपाट सड़क, 93 ओ पैट्रोल, सजग, संवेदनशील, कद्रदान। वैसे सैर-सपाटा ठीक, खेत तो, उससे, फिर भी जुतने से रहे। छोड़ो, फ़रारी को उसकी किस्मत पर, मगर खेत भी, एक ना एक दिन, बंजर होना तय।

खुद कमा के, खरीदा हो, तो ऐसी चूक, कम होती है, माँ-बाप, लाड़-प्यार में, यह विवेकहीन अन्धेर, कर डालते हैं 🤔

महा-प्रलय ही समझो, अवशेष शून्य 🤗

नींद सुकून की !

बात भोजन की : जुटाना, बनाना, खाना-खिलाना !


इस प्रसंग के निहितार्थ, बहुत मूल्यवान हैं कि घर में खाद्यान्न की व्यवस्था करने वाला अधिक महत्वपूर्ण है, या उस खाद्यान्न को, सुरुचिपूर्ण खाद्यपदार्थ में, बदलने वाला ?

वैसे, सबसे पहले तो यह प्रश्न उठना ही दुर्भाग्यपूर्ण है, इसलिए कि भोजन की व्यवस्था, एक सामूहिक प्रक्रम होता है, होना चाहिए, सर्व-सहयोग से, बिना योगदान कम-ज्यादा होने के, किसी विवाद के। 

खाने के स्वाद, और शरीर को लगने में, मन की भूमिका अद्वितीय होती है, मूलभूत भी। विवादों में उलझकर, मन ही खराब हो जाये, तो अच्छे से अच्छा पकवान भी, ना स्वाद आता है, ना तन को लगता है। भूख ही मर जाती है, तो खाया क्या, ना खाया क्या ?

मगर अगर निर्णय लेना ही हो तो खाद्यान्न की व्यवस्था, पहली अनिवार्यता है। यही ना हुआ तो पाक कला, धरी की धरी रह जाती है, अप्रासंगिक। खाद्यान्न की व्यवस्था है, अच्छा नहीं भी बन पाया, तो स्वाद भले ही ना आये, पेट तो कच्चे पक्के से भी, भर ही जाता है। भूख शान्त तो हो ही, जाती है। 

इन्सान जब कभी, विपरीत परिस्थितियों में उलझा है, अकल्पनीय, साधन प्रयोग कर के भी, जिन्दा बना रहा है। जैसी भी हो, पर जान रहती है। और जब तक जान है, जहान की उम्मीद, कायम रहती है। 🤗

गंगा-स्नान !

बैठना गंगा-तीरे, और स्नान करते लोगों को, ध्यान से देखना। प्रायः सभी प्रफुल्लित दिखेंगे, सौभाग्यशाली, पुण्यार्थी !

इन्हीं के बीच, कोई कोई दिखेगा, असहज, असंतुलित, छटपटाता, हाथ-पैर फैंकता। स्पष्टतः, सामन्जस्य बैठ नहीं रहा है, उसका। अब गंगा का वेग प्रचण्ड है, या तो उसकी क्षमतायें चुक रही हैं, अपर्याप्त हो रही हैं।

अधिक देर तक, ऐसा चल नहीं पाता, छटपटाहट कम होती जाती है, थम जाती है, फिर कोई शोर भी नहीं। शायद तैरना आ गया, संतुलन वापस पा लिया, उसने। यही एकमात्र निहितार्थ नहीं है, मगर। ये भी हो सकता है, जीवन संघर्ष के परे हुआ, वह असहाय, निरीह।

आपकी भूमिका, ससमय, यथा सामर्थ्य, सहायता की भी हो सकती थी, रील बनाने की भी, इस तरह कहानी सुनाने की भी, जो भी, मगर अब तो, चिड़िया उड़ गई, खेत चुगा, ना चुगा, क्या ही फर्क ? 

अब, अपनी अन्तरात्मा को, जवाब देते रहिये, ता-उम्र! 🤗

परिवार की बात, बात की बात !




"रानी रूठेंगी, तो, सुहाग, अपना ही, तो लेंगी !"

यह लोकोक्ति, राजा दशरथ के समय से, या शायद, और पहले से, चली आती है। मगर आज भी, उतनी ही सटीक, उतनी ही प्रासंगिक, कीमती और महत्वपूर्ण है।

दो अपवाद भी हैं, इसे, या तो पति निकम्मा हो, या/तथा, पत्नी आत्मनिर्भर हो । सामान्यतः संयोग से, सौभाग्य से, पति पत्नी के दायरे, प्रायः लगभग स्पष्ट होते हैं, अपनी बात कहिये, जरूर, फ़रमान नहीं ना सुनायें, मजबूर नहीं ना, करें। 

मनमानी ही होती हो, तो जो भी कहो, ये परिवार तो, नहीं । परिवार में, अहं नहीं होता, छोटा बड़ा नहीं होता, अहसान नहीं होता, मजबूरी भी नहीं होती, अपना, अपना तो ख़ैर, होता ही नहीं। साथ तैरना, साथ ही डूबना, इतर, सब रास्ते, बर्बादी की और। 

माँ-बाप, भाई बहन, अपने ही बच्चे, हमदर्द सहकर्मी, सब अपनी जगह, मगर पति, या पत्नी की जगह, कोई नहीं लेता, ले सकता ही नहीं। फौरी बात और !

कि रिश्तों में, समझदारी, बहुत होना, जरूरी है !
बुरा, दोनों को लगता है, समझना, ये जरूरी है !
हों गैर, तो ख़ैर, वास्ता कैसा, बुरा, अपनों का लगता है,
जरा सी बात है, लेकिन, समझना भी, जरूरी है !!




आँधियों की माफ़ियाँ !

तमसो मा ज्योतिर्गमय !





कुछ लोग होते है, जो बस आराम करते हैं, काम कुछ, करते ही नहीं, इसीलिए उन्हें, कुछ आता भी नहीं, वो कोशिश भी नहीं करते, फिर भी, काम करने वालों से, खुद को, बेहतर साबित करने की, तरकीब अच्छे से पता है, उन्हें। 

तुरत-फुरत, किए हुए काम में, कमियाँ निकालने लग जाते हैं, अब, अगर कमी निकालनी ही हो तो, कुछ ना कुछ तो, झूठा सच्चा ही सही, मिल ही जायेगा। इसके आगे, "भई, काम खराब करने से तो, अच्छा है, जब तक आता ना हो, दूर रहो। हमने काम ना किया हो, कम से कम, नुकसान तो नहीं किया"

यही विकल्प, दूसरे के पास भी है, वह भी, इनके किये काम में, जब भी करें, कमियाँ निकाल सकता है। दोनों पक्ष, एक दूसरे की कमियाँ, तलाश करते रहेंगे, एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशों में, लगे रहेंगे, हतोत्साहित करते रहेंगे। इस खींच-तान में, कम से कम, काम तो कोई, होने से रहा। 

सकारात्मक रहो तो, खराब से खराब काम में भी, अच्छाई, निश्चित ही मिलेगी। आप, प्रोत्साहित भी कर सकते हैं, अगली बार, पिछला अनुभव होगा तो, कमियाँ घटेंगी, और गुणवत्ता बढ़ेगी, इसमें श़क कोनी। यही, प्रगतिशीलता का मूल मंत्र है।

आप, मेरे घर का, दिया बुझायें, मैं, आपके घर का, तो अंधेरा, और घना हो जायेगा, कटेगा नहीं। कटेगा तभी, जब मैं, आपका दिया, बुझाने की जगह, अपना दिया जलाऊँ, धीमा हो, मद्धम हो, तो भी, अंधेरा, कुछ तो कम होगा ही। सम्भव है, आप भी प्रेरित हों, सद्बुद्धि आये तो, दिया जलायें, घर का कोना कोना रोशन होते, देर ना लगेगी।

तमसो मा ज्योतिर्गमय ! यही सार है 🤗

तमाम, काम-तमाम !

Reaching out !

If, You're, throwing, a pool party, 
to a thirsty struggler, It's not generosity, my dear !

It's insensitive inconsideration, 
gross humiliation, utter insult.

It, better be, simple, natural water,
Not RO, not Mineral, not Kangen,
Just adequate, drinkable water.
AND, in time, as much, as required. 🤗

रायते की दावत !



ठेठ, देसी भाषा में, 

रायता वही फैलायें, और उत्ता ही फैलायें, 
जो खुद, समेट लेने का, 
इरादा भी रखते हों, और माद्दा भी। ☝️

रायता पहले ही, बहुतेरा फैला हुआ है, 
इसे और फैलाने, और, 
औरों के लिए, समेटने को छोड़ देने की, 
कृपा करें, कोई जरूरत नहीं 🙏

जहाँ तक, हमारा खुद का सवाल है, 
ऐसे फैले पड़े हैं, 
कि सिमटना, आसान कहाँ ? 
शायद बटोरे ही जायें, किसी दिन 🤗



किं-कर्तव्य-विमूढ़ !


वाह-वाही, या प्रभुताई तलाशते, ऐसे लोग, आपको बड़ी आसानी सा दिख जायेंगे कि साहब, मरते मर जायेंगे, कितना ही दुख, तकलीफ, नुकसान हो, गलत काम को हाथ भी नहीं लगायेंगे। अंग्रेजी से एमए पास, मगर एक वाक्य, ता-उम्र ना बोल पाने वाले लोग, इसी कैटेगरी में मानें।

लाख बेहतर हैं, वह लोग, जो गलत सही की परवाह बगैर, यथापेक्षित काम, ससमय करते हैं। जानते हैं कि सही-गलत का अन्ततः निर्धारण तो समय करता है, परिणाम के माध्यम से, तब तक, किसी का सही, किसी का गलत, यह व्यक्ति-परक, परिस्थिति-परक और तत्कालीन भी हुआ करता है। दोषी, आप गलत काम कर डालने के लिए ही नहीं, अपेक्षित कार्य, समय पर ना कर पाने के लिये भी, अकृत-कार्य, माने जाते हैं।

आशय, यह नहीं, कि प्रकटतः गलत कार्य भी आप, लोभ में, लालच में, राग में, या द्वेष में, या भयातुर होकर, करने से पहले विचार ना करें। अन्तर्मन, अगर आप के साथ है, तो अपेक्षित काम, बिना समय गंवाए, करना ही उचित। ये भी कि, अन्ततः तो-

"हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश, विधि हाथ !"

और विधि के आगे, हमारी, या आपकी, खास चलती नहीं। काम समय पर होना ही सार्थक, आगे भगवान की इच्छा 🙏

बोझिल जीवन !

अपने, सबसे बड़े चाचा, एक कुंतल, यानी एक सौ किलो की बोरी को भी, बहुत सहजता के साथ, उठा लिया करते थे, आम आदमी से तो, हिला पाना भी मुश्किल। थोड़ी ताकत, थोड़ी तरकीब, मैं तरकीब ज्यादा कहूँ, इसलिए कि तरकीब तो, ताकत बढ़ाने के काम भी, आती है।

तो किसी आदमी को, एक कुंतल की बोरी, हँसते हँसते उठाये देखो, तो याद रखना, वजन तो उसकी बोरी का भी, सौ ही किलो है, राई रत्ती कम नहीं, सिर्फ उसे आती है, तरकीब भी। ऐसे ही, आपकी बोरी, कोई स्पेशल भारी नहीं, फ़कत तरकीब, बोलें तो, ठीक से उठाना, नहीं सीख पाये। बोरियाँ, हल्की भारी, तकरीबन, एक सी !

ये भी, कि कुछ लोग ये समझ जाते हैं कि रोने-धोने से, शिकवे-शिकायतों से, किसी और पर दोषारोपण से, वज़न, कम थोड़े ही होता है, अलबत्ता, उठाने की ताकत, जरूर कम हो जाती है। संयम-संतुलन-साहस से सामना करें तो भी, वजन तो उतना ही रहता है, मनोवैज्ञानिक सपोर्ट से, ताकत इक्कीस लगने लगती है।

वैसे वज़न जो मिला, सो मिल गया, इस पर, जोर, किसी का है भी नहीं 🤔

सवाल-जवाब


एक
घिसा पिटा मज़ाक है, एक पढ़े-लिखे, और एक अनपढ़ में, बहस होती थी। पढ़ा-लिखा, जाहिर है, भारी पड़ता था, और अनपढ़ के पास, कोई फौरी उपाय नहीं था। कई बार की लानत मलानत के बाद, उसे भी, उपाय, सूझ ही गया।

उसने पढ़े लिखे को, सार्वजनिक मंच पर शर्त लगाकर बहस की चुनौती दे डाली, कि एक दूसरे से सवाल पूछें, और जो उत्तर ना दे पाये, विपक्षी को तत्काल, अनुतोष का भुगतान करे। एक शर्त और भी, कि पढ़े-लिखे के पास संसाधन अधिक हैं तो पारिता के लिए, विफलता की स्थिति में, अनपढ़ का अनुतोष अधिक हो। जैसे अनपढ़ के पास, जवाब ना हो तो 1,000 ₹, अगर पढ़ा-लिखा निरुत्तर हो, मगर, तो अनुतोष, 1,00,000 ₹ अति आत्मविश्वास में, पढ़ा-लिखा, राज़ी भी हो गया।

यही, भारी भूल साबित हुई कि भैंस का वज़न, अकल से नाप लिया। अनपढ़ ने, पहले सवाल की बारी भी, बड़ी आसानी से, पा ली, और पूछा,"वो चिड़िया, जिस का सिर एक, मगर आँखें, चार ?" पढ़े-लिखे का तो दिमाग़ घूम गया। ना कभी देखा, ना सुना, थोड़ी-बहुत मगज़मारी के बाद, 1,00,000 ₹, चुपचाप, अनपढ़ के हवाले कर दिए।

अब बारी, पढ़े लिखे की थी, तो उसने अपने ज्ञानवर्धन को वही सवाल, अनपढ़ से पूछ लिया। अनपढ़ ने बिना कोई समय लगाये, 1,000 ₹, चुपचाप, पढ़े लिखे को थमा दिए।

आजकल, प्रेरणा यही है, या कुछ और, यही तरकीब बहुत लोकप्रिय भी है, कारगर भी। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर, आप कोई भी सवाल पूछ सकते है, जवाब हो ही, आपको इससे क्या ? यह दायित्व तो पढ़े लिखों को, कर्ता-धर्ताओं का, कि वो कहीं से भी लायें, जवाब देना तो, पड़ेगा ही। और ये काम आसान नहीं, खासकर, जवाब पूछने वाले को ही, संतुष्ट करने वाला भी, होने का चाही।

इसलिए कि सोये हुए को जगा भी लें, आँख ही बन्द कर रखी हो, जिसने, किसी ना किसी स्वार्थ में, उपाय कोई बचता नहीं। तो ये, प्रायः बे-मतलब के, सवाल-जवाब, चलते ही रहने वाले हैं, जब तक सवाल पूछने वाले को, खुद जवाब, और यथार्थ-परक, पता होने की पूर्व-शर्त, अनिवार्य ना कर दी जाये। तब तक, जन-धन का तो, अपव्यय हो ही रहा है, हुआ करे !

लोक-लाज, और आयोजन !


क्या होना चाहिए, इस पर वाद-विवाद भी हो सकते हैं, मतभेद भी। अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि, आपकी क्षमतायें क्या हैं ? सामर्थ्य कितनी है ? कितना स्वयं, और कितना सहज, सुलभ, बाहरी मदद से। निर्णय, तब ही तनावमुक्त रह सकते हैं, और सफल निष्पादित भी।

क्षमताओं से बड़ा, और बिना सोचे-विचारे आयोजन, उपहास, अपमान, और पछतावा भी ला सकता है। अवसर तो, तात्कालिक, मगर भावनात्मक ठेस, लम्बे समय तक चुभने वाली, बात।

और चलते चलते,

कहने वाले तो कहने की वजह ढूँढ ही लेते हैं, हर सावधानी, हर कवच को, दरकिनार कर। लोग क्या कहेंगे, निर्णय का आधार, यह ही बने, तो ही ठीक !

प्रगतिशील परम्पराएंं !


अपनी तो, विरासतें ही हुआ करती हैं, तरक्कियाँ तो हुईं मेहमान। आईं, तो आईं, टिकीं तो टिकीं।

तो अतिथियों का स्वागत, दिल खोलकर, बाहें फैलाये, उन्हें अपनायें, अपना ही बना लें, परन्तु इसके निमित्त, उपेक्षा, अपनों की, आवश्यक, कतई नहीं। संरक्षण इन का भी, महत्वपूर्ण, और मूल्यवान, कम नहीं।

परम्परायें, यदि अंशतः समयबाह्य हो रही हैं, रुग्ण और क्षीण-शक्ति हो रही हैं तो उपचार का, स्वस्थ और प्रासंगिक बनाये रखने का, और यथा-संभव संवर्धन, समृद्धीकरण का, उत्तरदायित्व भी हमारा, बल्कि हमारा ही।

"जैसे, उड़ि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पे.. ", 
वाला जहाज, यही तो है !

दिन-रात, और दिन-रात !


बाइ द वे, अगर ज़िद कर के, मनुहार कर के, उपद्रव करके, येन-केन-प्रकारेण, कैसे भी कर के, अगर कोई चुप कराने, या फिर, हाँ भी करा लेने में, सफल हो भी जाये, तो सूरज भी, पश्चिम से निकलना, शुरू कर देता है, क्या ?

ऐंवे ही, पूछता है, भारत ! 😂

बात कर्म, और उसके फल की !


"कर्मण्ये वाधिकारस्ते, मा फलेषु, कदाचनः"

यह श्रीमद् भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का, एक प्रसिद्ध श्लोक है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन को कर्मयोग का, उपदेश देते बताए गए हैं। 


इसका अर्थ है, "तुम्हारा अधिकार, केवल कर्म करने तक ही सीमित है, उसके फल पर नहीं। इसीलिए, कर्म का प्रयोजन, फल की इच्छा नहीं होना चाहिए, और न ही, फल की आशा, कर्म करने में, तुम्हारी आसक्ति का आधार"


इस श्लोक का गूढ़ार्थ यह, कि मनुष्य को अपने कर्तव्यों का वहन, निष्काम भाव से करना चाहिए, अर्थात् बिना किसी स्वार्थ, या फल की अपेक्षा के, क्यों कि जब हम कर्म करते हैं, तो उसका परिणाम, हमारे नियंत्रण में, हो नहीं सकता, वह अनेकानेक कारकों पर निर्भर करता है, जो हमारे अधीन नहीं। अस्तु, हमें केवल अपने कर्म पर ही ध्यान देना चाहिए, फल पर नहीं। 


कोई परीक्षार्थी, स्वयं, अपना मूल्यांकन, कैसे करेगा ? इसलिए कि कृत कर्म के, स्वयं पर, प्रभाव का अनुमान तो सम्भवतः वह कर भी ले, समग्र और व्यापक प्रभाव, उसकी क्षमता से, परे की बात, और सम्यक दृष्टि में तो, समूची सृष्टि ही, प्रासंगिक हुआ करती है। तो कृत-कर्म का व्यक्तिगत मूल्यांकन, और कर्मफल पर अधिकार, युक्तियुक्त नहीं।


कर्म-फल, अनिवार्य होता है, मगर। इसे, मूल सिद्धांत ही, समझें। एक, कर्म-फल, कर्ता का अधिकार नहीं, कर्ता के अधीन नहीं, और दो, कर्म-फल, जो भी, जभी भी, नियत हो, इससे भागने का उपाय, कोई होता नहीं, ये अनिवार्य है, भोगना ही पड़ता है। ये भी, कि कृत के साथ-साथ, अकृत, यानी, करने योग्य, परन्तु उपेक्षित, कर्म भी विचारे जाते हैं। ये, हमेशा याद रखने, जैसी बात है।


संतोष की, सुख की बात, यह कि आकलन न्यायपूर्ण, पूर्वाग्रह रहित, और सकारात्मक होता है। भोलेपन में, निराशय, अज्ञानता, या विवशता, यानी परिस्थितियों का भी, संज्ञान लिया जाता है, किये गये प्रयासों का भी, भले उनकी परिणति, परिणामों में, ना हो पाई हो।निर्णय पृकृति का, स्वयं परमपिता का, सटीक, और सही समय। ना देर, ना अन्धेर, आप जो चाहे, सोचें।

गम्भीर बात, सतर्कता की बात, ये कि दण्डाधिकारी, कठोर है, दृढ़ निश्चयी है, उससे छुपा कुछ भी नहीं, सब कुछ जानता है, वह, उसे भी, जिसे छुपाने के, लाख उपाय करते हो, आप। कोई चालाकियाँ, कोई षडयंत्र काम नहीं आते, सब बल, पद-बल, प्रतिष्ठा-बल, बाहु-बल, धन-बल बौने हो जाते हैं, और कर्म-फल वैयक्तिक होता है, भले लाभ के अंशाधिकारी, कितने ही, क्यों ना रहे हों। 


कर्म खुद किया हो, या करवाया हो, निमित्त बने हों, कर ना पाये हों, योजना ही बनाई हो, मनस: वाचा कर्मणा, लिप्त तो हो ही गये। बैंक खाते की तरह, मोक्ष तक, जन्म जन्मांतर, डेबिट क्रैडिट होता ही रहता है, सदाचरण से क्रैडिट स्कोर, आपके ही हाथ। लोन बहुत बार, आमन्त्रण के साथ, सुलभ होता है तो कभी बैंक के चक्कर पे चक्कर लगाकर भी नहीं। सौभाग्य हो, या दुर्भाग्य, अप्रत्याशित हो तो, यही आधार, यही हेतुक 🤗


THE QUEUE....