परिवर्तन !

कुछ, आप होते हैं, तो कुछ, आप नहीं होते। किसी में पारंगत, तो किसी की, हवा भी नहीं। और ये कोई अजूबा, कोई अनहोनी बात नहीं, हम सबकी, प्रायः यही कहानी है। गलत-सही, बहुत महत्वपूर्ण नहीं है, इसलिए कि आकलन होता है, दृष्टिकोण, और परिप्रेक्ष्य आधारित, नितान्त व्यक्तिगत। 

अच्छा, जो भी आप हैं, लोग ध्यान भी नहीं देते, कितने ही ख़ास हों, हुआ करें, तलाशा जाता है, आप में, वही, जो आप में, नहीं हैं। बदलना, हमेशा, आसान नहीं होता, और फिर फ़ायदा भी कोनी, इसलिए कि जब बदल ही गये, आप, तो जो हो गये, सो हो गये, तलाशा जायेगा, आप में, वह, जो आप, अब नहीं रहे।

यानी कि, तलाश तो रुकती नहीं, आप बदला करिये, आपकी मर्जी। अब शादी हुई नहीं, कि आप को सिरे से बदलने में लग जाते हैं, लोग, आप बदल भी, जाते ही हैं, समझौतावादी हुए तो जल्दी, स्वाभिमानी हुए तो, देर-सबेर। और फिर, शिकवा, "तुम ना, पहले, जैसे नहीं रहे !"

आशय यह नहीं, कि बदलना गलत। बेहतरी के लिए बदलना, प्रगति की निशानी, लेकिन फैसला, आपका खुद का ही हो, और रास्ता, ईमानदार आत्मावलोकन का, और गुजरे कल के मुकाबिल, बेहतरी का इरादा। चार लोगों के, कहने भर से, बदला करना ? अन्तहीन सिलसिला। चले जीवन भर, कितना ? अढ़ाई कोस 🤗

आमना-सामना, मृत्यु से, मृत्योत्तर !


"न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ, 
इतनी सी सिर्फ, ये बात है, 
किसी की आँख, खुल गयी, 
किसी को नींद, आ गयी !"
 - गोपाल दास "नीरज"

अधो-अंकित प्रस्तुति, मुझे मुक्त नैट पर दिखी। नहीं जानता कि ये, कितनी सच्ची, कितनी काल्पनिक, ये महत्वपूर्ण भी नहीं, इसलिए कि, अधिकांशतः से, मैं, राजी भी हूँ। इतना तक कि, अन्तिम समय, यदि तब, मैं, कुछ कह भी पाऊँ, तो इसी को, मेरी तत्कालीन अभिव्यक्ति, और इच्छा, माना जाये। इस समय, सुविचारित, स्थिर चित्त, होश-औ-हवास में, अधि-घोषित।

प्रो. डॉ. लोपा मेहता, मुंबई के, जी.एस. मेडिकल कॉलेज में, प्रोफेसर रहीं, और उन्होंने वहाँ, प्रमुख, एनाटॉमी विभाग, के रूप में, कार्य किया। 78 वर्ष की उम्र में उन्होंने, यह लिविंग विल (जीवन-कामना) बनाई। 

"जब शरीर साथ देना बंद कर देगा, और सुधार की कोई संभावना नहीं रहेगी, तब मुझ पर इलाज न किया जाए। ना वेंटिलेटर, ना ट्यूब, ना अस्पताल की, व्यर्थ भाग-दौड़। मेरे अंतिम समय में, शांति हो, इलाज पर ज़ोर से ज़्यादा, समझदारी को, प्राथमिकता दी जाए।"

डॉ. लोपा ने, सिर्फ यह दस्तावेज़ ही नहीं लिखा, बल्कि, मृत्यु पर, एक शोध-पत्र भी, प्रकाशित किया। उसमें, उन्होंने मृत्यु को, एक प्राकृतिक, निश्चित और जैविक प्रक्रिया के रूप में, परिभाषित किया। उनका तर्क था कि, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने, मृत्यु को, कभी भी, एक स्वतंत्र अवधारणा के रूप में, देखा ही नहीं। चिकित्सक का आग्रह, सदैव, यही रहा कि, मृत्यु, किसी ना किसी, रोग के कारण ही, होती है, और यदि, रोग का इलाज हो जाए, तो मृत्यु को, अनन्त तक, टाला जा सकता है। 

लेकिन, शरीर का विज्ञान, इससे कहीं गहरा है, ऐसा उनका तर्क है, कि  शरीर, कोई अनन्त तक, चलने वाली, मशीन नहीं है। यह, एक सीमित प्रणाली है, जिसमें, एक निश्चित, जीवन-ऊर्जा होती है। यह ऊर्जा, किसी टंकी से नहीं, बल्कि सूक्ष्म शरीर के माध्यम से, और अज्ञात से आती है। वही सूक्ष्म शरीर, जिसे हर कोई, महसूस तो करता है, पर देख नहीं सकता। मन, बुद्धि, स्मृति, और चेतना, इन सबका सम्मिलन ही, यह प्रणाली बनाता है।

यह सूक्ष्म शरीर, जीवन-ऊर्जा का, प्रवेशद्वार है। यह ऊर्जा, पूरे शरीर में फैलती है, और शरीर को जीवित रखती है। हृदय की धड़कन, पाचन क्रिया, सोचने की क्षमता, सब. उसी के आधार पर, चलते हैं। और, यह ऊर्जा असीमित नहीं है। हर शरीर में, इसकी एक निश्चित आपूर्ति होती है, जैसे किसी यंत्र में लगी हुई, फिक्स्ड बैटरी। ये न तो, बढ़ाई जा सकती है, न ही घटाई जा सकती है।

"जितनी चाबी, भरी राम ने, उतना चले, खिलौना"  कुछ-कुछ, वैसा ही।

आगे, डॉ. लोपा लिखती हैं, जब शरीर की, यह ऊर्जा, समाप्त हो जाती है, तब, सूक्ष्म शरीर, देह से, अलग हो जाता है। वही क्षण होता है, जब शरीर स्थिर हो जाता है, और हम कहते हैं, "प्राण चले गए"। यह प्रक्रिया, न किसी रोग से जुड़ी होती है, न किसी की गलती से। यह तो, शरीर की आंतरिक लय है, जो गर्भ में शुरू होती है, और पूरी होकर, मृत्यु तक पहुँचती है। 

इस ऊर्जा का व्यय, हर पल, पल-पल, होता रहता है, हर कोशिका, एक एक अंग, अपना, जीवन-काल, पूरा करता है। और, जब पूरे शरीर का "कोटा", समाप्त हो जाता है, तब शरीर, शांत हो जाता है। मृत्यु का क्षण, घड़ी से, नहीं मापा जा सकता। वह एक जैविक समय होता है, हर किसी का अपना, और अलग-अलग, होता है। किसी का जीवन, 35 साल में, पूरा हो जाता है, तो किसी का, 90 साल में, और दोनों ही, अपनी-अपनी, संपूर्ण यात्रा करते हैं। 

अगर, हम उसे, पराजय, या विवशता न मानें, तो कोई भी अधूरा, नहीं मरता। डॉ. लोपा के अनुसार, जब, आधुनिक चिकित्सा, मृत्यु को टालने का, कु-हठ करती है, तब, न सिर्फ, मरीज़ का, शरीर, थकता है, बल्कि पूरा परिवार ही, टूट जाता है। ICU में, चन्द अतिरिक्त, अनिश्चित, साँसों की भारी कीमत, बहुधा, जीवन भर की जमा-पूँजी, खत्म कर देती है। 

रिश्तेदार कहते रहते हैं, "अभी, आशा शेष है", पर मरीज़ का शरीर, पहले ही कह चुका होता है, "अब बस"। इसीलिए, वे लिखती हैं, और मैं भी, कि, "जब मेरी बारी आए, तो बस, मुझे ऐसे अस्पताल ले जाइए, जहाँ कोई अनावश्यक हस्तक्षेप न हो। इलाज के नाम पर, कोई दीर्घकालिक कष्ट नहीं दिया जाए। मेरे शरीर को रोका नहीं जाए, उसे जाने दिया जाए।"

पर सवाल यह है, क्या हमने, अपने लिए, ऐसा कुछ तय किया है ? क्या हमारा परिवार उस इच्छा का सम्मान करेगा? और जो करेंगे, क्या उन्हें, समाज में स्वीकार, मिलेगा ? क्या हमारे अस्पतालों में, ऐसी इच्छाओं का, सम्मान होता है, या अब भी, हर साँस पर, बिल बनेगा और हर मृत्यु पर दोष ? उत्तर, इतना आसान नहीं है। तर्क, और भावना का, संतुलन साधना, शायद सबसे कठिन कार्य है। 

अगर हम, मृत्यु को, शांत, नियत, और शरीर की आंतरिक गति से आई प्रक्रिया, मानना सीख जाएँ, तो शायद, मृत्यु का भय कम होगा, और डॉक्टरों से, हमारी अपेक्षाएँ अधिक यथार्थ-परक हो पायेंगी। मेरे अनुसार, मृत्यु से लड़ना, बंद करना चाहिए और उससे अगले, जीवन के लिए, तैयारी करनी चाहिए। और, जब वह क्षण आए, तो शांति से, सम्मान के साथ, उसका स्वागत करना चाहिए। बुद्ध की भाषा में कहें तो,


"मृत्यु, जीवन की यात्रा का, अगला चरण ही तो है।"

मासूम !


प्रतिबन्धित इलाके में, वो केवल इसीलिए गये कि पता तो रहे, क्या नहीं देखना है, कहाँ नहीं जाना है 🤗

भगवान जाने, धर क्यों लिए गये ? 🤔

जान-पाण !


निपट मूरख़, अनपढ़, गँवार, कभी स्कूल कॉलेज गया होता, गूगल शूगल सर्च करना आता होता, तो शायद जानता भी, कि जो काम, वो अनायास ही, करे बैठा है, वो तो घोषित, जड़-असम्भव, सूची में शामिल है। करना तो दूर, कोशिश भी, निधेष, वक्त की बर्बादी !

मगर अब तो, हो गया, सो हो गया।
माफ़ी माँगने के सिवा, और करे भी क्या ? 🤗

Happy "शिक्षक दिवस" !


आज शिक्षक दिवस है, यानी शिक्षित करने वालों का, सिखाने वालों का, दिन। इसलिए, यह उक्ति, सर्वथा प्रासंगिक प्रतीत होती है:

"कमाया करो, खर्च करने से पहले, और,
सीखा करो, कुछ सिखाने से पहले ☝️"

शिक्षक, सच में होना, आसान बात नहीं, उत्सुक शिष्य, खुद और पहले, होना अनिवार्य होता है। आप, पहले स्वयं अनुभव करें, मनन करें, थोथा-थोथा उड़ा दें, सार-सार बचायें और तभी, इष्टतम को, समर्पित शिष्यों को, उपलब्ध करायें।

आजकल, टाइम है, किसके पास, मगर ? कौन झंझट पाले, यहाँ-वहाँ से, "AI" से, इकट्ठा करो, और फारवर्ड कर दो, अगला समझा करे। आप तो, गरिमा को, उपलब्ध हो ही गये। 

वैसे, इतना निश्चित है कि अगले ने भी, पढ़ना समझना कोनी, ऐसे ही आगे फारवर्ड कर देना है। हैरान ना हों, अगर आपकी, फाॅरवार्डेड पोस्ट, घूम फिर कर, आपके ही पास लौट आये, बिना ओपन हुए 😂

इसीलिए, आजकल चैक हवा में, हर तरफ तैरते दिखेंगे, कैश कोई कराता नहीं, खाते में पैसा है किसके पास ? तथापि, वास्तविक शिक्षकों की, तेजी से विलुप्त होती प्रजाति का, श्रद्धापूर्वक नमन, और अभिनन्दन ! 🙏



सात्विक भी, व्यावहारिक भी !


सच्चाई और ईमानदारी, सात्विक गुण हैं, और समझदारी व्यावहारिक। उतना सात्विक नहीं, मगर महत्वपूर्ण बहुत, संरक्षण देता है, सार्थक बनाता है, इसीलिए ! रीढ़ की हड्डी की तरह !!

पहचान भी पायेंगे, सम्मान भी, पर खड़े भी रह पायें, तभी ना ? 🤗

मूल्यांकन !


वो जो कहते हैं कि भगवान है, भी ? दिखता तो है ही, नहीं ! जान लें कि सिर्फ वही दिखता है, जब कोई और दिखना, बन्द हो जाता है । ये भी कि, वही देख भी लेता है, जब आप पक्का इन्तजाम कर लेते हो कि कोई और तो, नहीं देख रहा।

आपके, और आपके भगवान के बीच, किसी तीसरे को, लाना ही लाना, ना कोई मजबूरी, ना कतई जरूरी। ये चॉयस से ज्यादा, कुछ भी नहीं। भगवान के साथ, आपका यह सीधा संवाद, प्रायः आपके अन्तर्मन, या अन्तरात्मा के माध्यम से होता है।

तो अगली बार, जब आपका अन्तर्मन, किसी काम को करने को कहे, या तो करने से रोके, और आप फिर भी विपरीत करें, कि चार लोग क्या कहेंगे ? समझ लें कि अन्यथा सीधे सरल जीवन में गाँठ, आपने खुद लगा ली।अब पूरे मनोयोग से, ना तो आप कुछ भी कर पायेंगे, ना करे बिना, रह पायेंगे। और मज़े की बात, चार लोग, वहीं के वहीं, कुछ ना कुछ तो कहने पर तुले, चाहे कुछ भी करो 🤗

और, जो भी आप करें, ग़र स्वान्त: सुखाय से इतर, किसी से अनुमोदन लेकर, प्रशंसा पाने के लिये, या आलोचना से बचने के लिए किया तो, जाने-अनजाने, अपने संतोष, और कार्य समुचित संपन्न करने के आनन्द का नियंत्रण, किसी और के हाथ दे बैठे। अब, मर्ज़ी, मूड, मोटिव, सब फ्रंट सीट पर, आपका किया-धरा, सब पिछली सीट पर ? जी नहीं, डिक्की में। चांस की बात, चार लोग कृपालु हुए, तो बल्ले बल्ले, ईर्ष्यालु हुए तो ? बण्टाढार 😂

पूजा वाली बिल्ली !


एक कहानी से, अपनी बात कहूँ, एक गाँव, गाँव का एक परिवार, गृह स्वामी, स्वामिनी, एक बालक ..और एक बिल्ली। बिल्ली को घर के अन्य सदस्यों, जितने ही अधिकार प्राप्त थे, शायद, थोड़े ज्यादा ही। आने जाने पर, कोई रोक-टोक नहीं, घर का वही खाना, बाकियों जैसा ही, खाती थी, हर जगह पहुँच, दिन अच्छे गुजर रहे थे।

मगर, समय इन्सान को बूढ़ा, और बच्चों को युवा, बनाता ही है। एकाएक, गृहस्वामी चल बसा, और एक साल बाद, उसकी बरसी का दिन, भी आया। किसी ने चेताया कि, और कोई दिन तो, कोई नहीं, मगर बरसी का दिन, यानी पूजा का दिन। भोजन सामग्री की पूजा से पहले, बिल्ली कहीं झूठा ना कर दे, इन्सान जितना कहाँ समझेगी ?

उपाय हुआ कि, बिल्ली को, एक डलिया से ढक दिया जाये। साँस बराबर मिलती रहेगी, आना जाना कन्ट्रोल में। पूजा पूरी होते ही, टोकरी हटा देंगे, फिर से आजाद, घूमेगी फिरेगी, कुछ देर की तो बात। उपाय काम कर गया, और पूजा निर्विघ्न सम्पन्न हो गई। अब तो ये तरकीब, साल-दर-साल, आजमाई जाने लगी, बोलें तो, रस्म जैसी हो गई। 

बेटे की शादी हो गई, नई बहू ने, शुरू से ही, ससुर जी की बरसी का आयोजन, ऐसे ही होते देखा, और सीखा, और समझा। फिर सास भी, सिधार गईं। बहू ने, अबकी खुद से, ससुर जी की बरसी, उसी रीति रिवाज के साथ, पूरी की। कुछ साल चला, फिर एक दिन, बिल्ली भी चल बसी। अबकी बरसी, बहू टेंशन में थी, उपाय सूझता ना था। 

आखिर वह जा पहुँची, पड़ोसी चाची के यहाँ, मदद की विनती लेकर, "चाची जी, आपकी मदद चाहिए। ससुर जी की बरसी है, माताजी भी नहीं हैं, अकेली रह गई हूँ, बाकी सब तो इन्तजाम कर लिया, मगर बिल्ली का कैसे करूँ ? अगर थोड़ी देर को, आपकी बिल्ली, मिल जाती ?

चाची का हृदय, उदार था, खुशी-खुशी, अपनी बिल्ली, बहू के हवाले कर दी। साल, दो साल काम चला, फिर वो बिल्ली भी नहीं रही। मोहल्ले में, और किसी ने बिल्ली पाली नहीं थी। बच्चे भी बड़े, और सयाने हो गये थे, तो माँ को समझाया, कि बिल्ली पूजा में, कुछ करती थोड़े ना है, बस सांकेतिक ही तो है। उसकी जगह, नकली रख दें, असली जैसी ही, तो कौन फरक पड़ेगा ? रस्म ही तो पूरी होनी है ? 

और कोई, विकल्प ना देख, यही प्रस्ताव मान लिया गया। फिर माँ की भी उमर हो गई, तो बच्चों की सोच ही, मायने रखने लगी। बिल्ली का आकार, और महत्व, दोनोः कम ही होते गये। अब बच्चों के भी, बच्चों की चलने लगी है। बिल्ली को भूल, सारा ध्यान टोकरी पर आ गया है। सही भी है, वही तो दिखती है, उसके नीचे, कुछ भी हो, या ना भी हो, कौन देखता है ?

मगर, रीति रिवाजों का, बहुत ध्यान रखते हैं, बच्चे। अच्छी-अच्छी डिजाइन की, मँहगी सै मँहगी, टोकरी लाते हैं, चाव से, उत्साह से, सजाते हैं। आपस में, कम्पिटीशन, भी होता है, टोकरी किसकी, सबसे अच्छी ? टोकरी के नीचे, अब कोई बिल्ली नहीं होती, बस। और, जरूरत भी क्या ? 🤗

संघर्ष भरा जीवन !


ये लिखा-पढ़ी, ये गवाही, ऐसे ही नहीं है,
कोई तो जबान दे कर, मुकर गया होगा !

जीवन, अपने आप में, सहज सरल ही है, इसमें उलझनें तो, हम खुद लेकर आते हैं, अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह के चलते । छोड़िए औरों को, आप, खुद भी, कितने ही आगे, क्यों ना आ गये हों,  पलट पड़ें, अगर। जैसे भीड़ में, एक आदमी तो, वापस मुड़ा, चल पड़ा, सही दिशा की ओर, प्रकाश की ओर ! अँधेरा, कितना ही घना हो, एक दिया ही बहुत होता है। छोटा सा, नन्हा सा हो, तो भी।

यही "तमसो-मा, ज्योतिर्गमय" ! 

मैं, अकेला, ही चला था, जानिब-ए-मंजिल, मगर, 
लोग साथ आते गये, और कारवाँ बनता गया।

असीमित का सीमांकन !


तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा ! 
(He gets it, who's prepared to give it up) 
यह वेदोक्ति है !

यह भी कि "सबसे अधिक, वही जानता है, जो जानता है कि, वो जानता, कुछ भी तो नहीं।" 

"हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता", सुना है ना ?

यह, इस अस्तित्व, और आस्था की, विराटता का, अनादर और अस्वीकार है कि हम इसे, मापने की, परिभाषित करने का प्रयास करें। भक्ति, वैसे भी भावना-प्रधान होती है, और भावना की, केवल अनुभूति ही हुआ करती है, अभिव्यक्ति नहीं। हो ही नहीं सकती, इसलिए कि शब्दों की, कितने ही सारे, कितने ही सुन्दर कहे जायें, होती है सीमा।

दृश्य देखे हैं, पृकृति के, कोई ओर, ना छोर, विस्तार असीमित। आपने कैमरे में कैद कर लिया, और जड़ दिया फ्रेम में। अब कितना ही बड़ा, कितना ही सुन्दर हो ये फ्रेम, मगर दृश्य की सीमा बन गया। अब दृश्य की यह छवि, फ्रेम से बड़ी, नहीं हो पाएगी। दृश्य प्राकृतिक नहीं रहा, छाया-प्रति बन कर रह गया।

भगवान के साथ भी, हम यही कर रहे हैं। उसे भजनों में, पूजा विधियों में, कृत्य-अकृत्य में समेटना, परिभाषित करना, उसे सीमाओं में बाँधना ही तो हुआ । उदार, सुसज्जित, कितना भी हो। एक तस्वीर हो, फिर तो फोटो-कॉपी भी बनेगी, फोटो शापिंग भी होगी, मगर कागज केवल, रह गये हाथ में, मूल तो जाने कहाँ ? और कब का छूट गया ?? 🤗

तमसो मा ज्योतिर्गमय !


कुछ लोग होते है, जो बस आराम करते हैं, काम कुछ, करते ही नहीं, इसीलिए उन्हें, कुछ आता भी नहीं, वो कोशिश भी नहीं करते, फिर भी, काम करने वालों से, खुद को, बेहतर साबित करने की तरकीब, अच्छे से पता है, उन्हें। 

तुरत-फुरत, किए हुए काम में, कमियाँ निकालने लग जाते हैं, अब, अगर कमी निकालनी ही हो तो, कुछ ना कुछ तो, झूठा सच्चा ही सही, मिल ही जायेगा। इसके आगे, "भई, काम खराब करने से तो, अच्छा है, जब तक आता ना हो, दूर रहो। हमने काम ना किया हो, कम से कम, नुकसान तो नहीं किया"

यही विकल्प, दूसरे के पास भी है, वह भी, इनके किये काम में, जब भी करें, कमियाँ निकाल सकता है। दोनों पक्ष, एक दूसरे की कमियाँ, तलाश करते रहेंगे, एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशों में, लगे रहेंगे, हतोत्साहित करते रहेंगे। इस खींच-तान में, कम से कम, काम तो कोई, होने से रहा। 

सकारात्मक रहो तो, खराब से खराब काम में भी, अच्छाई, निश्चित ही मिलेगी। आप, प्रोत्साहित भी कर सकते हैं, अगली बार, पिछला अनुभव होगा तो, कमियाँ घटेंगी, और गुणवत्ता बढ़ेगी, इसमें श़क कोनी। यही, प्रगतिशीलता का मूल मंत्र, भी है
 
आप, मेरे घर का, दिया बुझायें, मैं, आपके घर का, तो अंधेरा, और घना हो जायेगा, कटेगा नहीं। कटेगा तभी, जब मैं, आपका दिया, बुझाने की जगह, अपना दिया जलाऊँ, धीमा हो, मद्धम हो, तो भी  अंधेरा, कुछ तो कम होगा ही। सम्भव है, आप भी प्रेरित हों, सद्बुद्धि आये तो, दिया जलायें, घर का कोना कोना रोशन होते, देर ना लगेगी।

तमसो मा ज्योतिर्गमय ! यही सार है 🤗

ओपन पैराशूट्स !


यह प्रसंग, ओशो के प्रवचनों से आता है। 

वह, ध्यान से होने वाले, सम्भावित लाभों पर चर्चा करते थे। कहने लगे, लाभ तो अनेक, अकल्पनीय, आशातीत, परन्तु यह अपेक्षा, साथ रख कर, अगर ध्यान किया, तो फिर ध्यान हुआ ही कहाँ ? कैसे लाभ ??

तुरन्त प्रश्न हुआ, अगर अपेक्षा ना रखें, फिर तो होना, निश्चित है, ना ? अरे भाई, अपेक्षा गई ही कहाँ ? वहीं की वहीं, और भी अन्दर, तो जा बैठी ☝️

उन दिनों, बरेली में था, बच्चों के खेलने के लिए, बतौर सरप्राइज, पिंजरे में कैद, एक तोता खरीद लाया, मगर पत्नी की सहमति नहीं हुई। फौरन तोते को आजाद करना, तय हुआ। 

अब पिंजरे का दरवाजा खोल दिया गया, मगर तोता, बाहर आने को, उड़ जाने को, राजी नहीं। बाहर लाने की, जबरन कोशिश की, तो हिंसक हो उठा। चोंच मार मार, उँगलियाँ लहू-लुहान कर दीं। जैसे-तैसे... पिंजरे से तोता निकालना, फिर भी साध्य है, पर तोते के अन्दर से, पिंजरा निकाल पाना, प्रायः असम्भव ! 

हम सभी, परम्पराओं के, आदतों के इतने ही बन्दी होते हैं। समाधान हो जाये, तो भी, गलत रास्ते पर ही, यथावत, चलते ही रहेंगे। इस जड़त्व को पुकारा, चाहे जिस नाम से भी, जाये।

उड़ते जहाज से, कूदना ही पड़े तो, पैराशूट, उपयोगी साधन होता है, जीवन बचा सकने वाला। मगर उसका, केवल साथ होना भर, पर्याप्त नहीं, उसे खोलना भी पड़ता है। वर्ना हो तो, ना हो तो, फरक कोनी।

मानव, बुद्धि-विवेक का हाल भी, कुछ-कुछ पैराशूट जैसा ही होता है 🤗। आपका ?

Collaboration !


अभी हाल ही में, आमिर ख़ान की "सितारे ज़मीन पर", देखने का संयोग हुआ। एक डायलॉग, जो दिल के बहुत नजदीक पहुँचा, पर आपसे चर्चा करना चाहूँगा :

हर व्यक्ति का नार्मल, यानी सामान्य परिस्थितियाँ, भिन्न भिन्न होती हैं, और अपनी अपनी होती हैं, महत्वपूर्ण मगर, एक जैसी ही होती हैं, प्रासंगिकता के अनुरूप, कभी थोड़ा कम, कभी थोड़ा ज्यादा। इसे उदाहरण से समझते हैं। 

कोई युवा, पढ़ाकू टाइप का, उसका नार्मल हुआ, जैसे 95% नम्बर। 90 से 100 की कोई भी परसेन्टेज, उसे सहज रखेगी, इससे कम होगी तो विचलित, और कम, तो चिन्तित, उच्चतर कोई भी परसेन्टेज, इस व्यक्ति के लिए, अप्रत्याशित नहीं।

कोई मनमौजी होगा, पास होने भर से, काम बन जाने लायक, तो उसका नार्मल, 35 से पैंतालीस। कम रह गये तो टेन्शन, 50 से ऊपर, तो मोहल्ले भर में मिठाई बंटनी तय। पहले वाले के, दस और भी ज्यादा आए होते, यानी 60, तो घर में मातम छाया होता। 

नार्मल, अलग-अलग, अपना अपना ! नार्मल, यानी शान्ति और सन्तोष। दायरे भी, नार्मल हुआ करते है, किसी को पढ़ना पढ़ाना नार्मल, तो किसी को कसरत, तो किसी को भजन कीर्तन, किसी को कुछ और। सब प्रासंगिकता, और स्वभाव की बात, क्या सही, क्या गलत।

अपने समाज में, प्रयास और उपलब्धि, सामूहिक हुआ करती है, अनेक लोगों के संयुक्त प्रयास से। योजना के साकार होने के लिए, नियन्त्रण क्रमानुक्रम (control hierarchy) अनिवार्य होती है। आसान भाषा में, एक मुखिया, जिसके पास अधिकार भी हो, जवाबदेही भी, और बाकी सब सहयोगी। अगर सबके नार्मल, एक से ना हों, तो ?

जैसे, पिता गुजर गये, तीन बेटे, बड़े की नार्मल फसल, धान, मँझले की मक्का और छोटे की जायद, यानी कि फल सब्जी वगैरह। एक ही खेत में, सब अपने अपने हिसाब से खाद और बीज सहित, संगत तैयारी करें, तो खेत में कुछ और नहीं, चरस ही उगेगी, यानी तैयारियाँ सब आपस में, उलझ कर रह जायेंगी, सार्थक कुछ भी उगना नहीं, लड़ाई झगड़े ऊपर से।

समाधान एक ही है, सब अपने अपने विचार, गलत-सही, दरकिनार कर, मुखिया का अनुसरण करें। मुखिया का निर्धारण, युक्तियुक्त हो, अनुभव, सबसे ज्यादा हो, या योग्यता, या स्वीकार्यता, जो भी हो, एक बार मुखिया निश्चित हो जाये तो सभी, मुखिया का ही अनुसरण, सहयोग करें, बात तभी बनेगी। अपात्र, अक्षम सिद्ध हो, या विश्वसनीयता ही खो बैठे, तो पहले मुखिया बदलें, फिर रास्ता, और फिर रणनीति।

इस वक्तव्य के निहितार्थ व्यापक हैं, और मेरे नार्मल के अनुसार उपयोगी भी। विचार करने में तो, बुराई कोनी !

किं-कर्तव्य-विमूढ़ !


कौन फ़रमाइश करूँ, पूरी, कौन सी रहने दूँ,
अपनी तनख्वाह, कई बार तो, गिन ली मैंने !

तनख़्वाह ही नहीं, सामर्थ्य भी सीमित ही होती है, हर इन्सान की, वैसे तो जरूरतें भी सीमित ही होती हैं, मगर हसरतों की, सीमा नहीं। ये थैला, भगवान जाने काहे से बना होता है, जितना भरता है, उतना ही फैलता जाता है, हमेशा मिलेगा, खाली का खाली।

आदमी एक, भूमिकाएं अनेक, बेटा भी, भाई भी, पति भी, बाप भी, दोस्त भी, पड़ोसी भी, बाॅस भी, मातहत भी, सामन्जस्य तो, अनिवार्यतः बिठाना ही पड़ता है। थोड़ा इसका, थोड़ा उसका, किसी का कम, किसी का थोड़ा ज्यादा। किसी का अभी कर दिया, कुछ अगली बार के लिये, कभी-कभार, कुछ नहीं भी हो पाता। 

अनगिनत ख्वाहिशों को, नपी तुली तनख्वाह में, फिट करने जैसी बात।

प्रायः घर-घर की ऐसी ही कहानी है। सौभाग्यशाली हैं वो, जिनके पाल्य, हासिल की कद्र करते हैं, सीमाओं को समझते हैं, और उपकृत ना सही, संतुष्ट रहते हैं, सहयोग की सतत सज्ज भी रहते हैं। ऐसे परिवार दिखेंगे, कभी कभार ही, अपवाद स्वरूप।

इसका विपरीत, केवल उसे ही गिनते जाने वाला, जो हर कोशिश के बाद भी, हो नहीं पाया, या थोड़ा-बहुत कम रह गया। जो हो गया, उसका महत्व कोई नहीं, जो कम रहा, उसी का हिसाब-किताब, उलाहना, ताने और असम्मान। बहुत बार तो, हो जाये तो भी किसी अन्य से, तुलनात्मक, कम होने के कारण, असंतोष बना ही रहता है।

मजे की बात, जिससे तुलना में, शिकायत है, सोचता वह भी यही है, इसलिए कि, हासिल तो कोई गिनता ही नहीं, सारी बात, बाकी की है, और बाकी हमेशा बना ही रहता है। तनख्वाह, कई बार तो गिनी जा चुकी। 

ये करमजले, जिन्दगी भर खटते हैं, अपयश भोगते हैं, यही लेकर जाते हैं, यही छोड़कर जाते हैं। अपने कर्तव्य, कितनी ही निष्ठा, कितनी ही सच्चाई से पूरे क्यों ना किये हों,

हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, विधि हाथ 🤗

दुर्दिन !


समझो, नदिया है जीवन; नाव है, भरण-पोषण की, जो भी व्यवस्था; इसमें भरते रहने वाला पानी है, आये दिन की चुनौतियाँ; माँझी है, परिवार का/की मुखिया; और साथ में, उसका सहारा, सहयोगी, सहभागी और प्रायः उसी पर आश्रित, हमसफ़र।

समय के साथ-साथ, नाव जर्जर होती जाती है, यहाँ वहाँ से आकर, नाव में भरने वाला, नाव का तैर पाना, कठिन बनाने वाला, पानी बढ़ता जाता है, और उसे अनिवार्यतः निकाल बाहर फेंकने की, माँझी की क्षमता, घटती जाती है। 

यानी,
कैपेसिटी हाफ़, ते मुसीबतें डबल ! राहत की बात, कि इनमें तीन-चौथाई, परिहार्य होती हैं, खाँम-खाँ। उनसे बचा जा सकता है, मगर दुर्भाग्य कि आती वहाँ से हैं, जहाँ से बाधाओं की जगह, उनका सामना करने का सहयोग, संबल और प्रोत्साहन आना चाहिए। 

मूढ़मति को, इसी नाव, इसी मांझी के भरोसे, बलबूते, पार भी उतरना है, यह मूलभूत बात, बहुधा देर बाद समझ आती है, जब किसी और नाव पर सवार हो नहीं पाते, हो भी जायें, तो उतार दिए जाते हैं। और, आपकी, आपकी अपनी नाव तो, डूब चुकी, कब की, किसी और के नहीं, आपके ही करमों से।

अब, दिल में हो दर्द, तो दवा लीजै,
दर्द, दवा से ही हो, तो फिर क्या कीजै ? 
🤗

फ़रारी बनाम ट्रैक्टर !


अगरचे, जोतने खेत ही हों, या तो, मन, खेत-खलिहान में ही, लगता हो, तो, खरीदना, ट्रैक्टर ही चाहिए, फ़रारी नहीं ☝️

फ़रारी को चाही, सपाट सड़क, 93 ओ पैट्रोल, सजग, संवेदनशील, कद्रदान। वैसे सैर-सपाटा ठीक, खेत तो, उससे, फिर भी जुतने से रहे। छोड़ो, फ़रारी को उसकी किस्मत पर, मगर खेत भी, एक ना एक दिन, बंजर होना तय।

खुद कमा के, खरीदा हो, तो ऐसी चूक, कम होती है, माँ-बाप, लाड़-प्यार में, यह विवेकहीन अन्धेर, कर डालते हैं 🤔

महा-प्रलय ही समझो, अवशेष शून्य 🤗

नींद सुकून की !

बात भोजन की : जुटाना, बनाना, खाना-खिलाना !


इस प्रसंग के निहितार्थ, बहुत मूल्यवान हैं कि घर में खाद्यान्न की व्यवस्था करने वाला अधिक महत्वपूर्ण है, या उस खाद्यान्न को, सुरुचिपूर्ण खाद्यपदार्थ में, बदलने वाला ?

वैसे, सबसे पहले तो यह प्रश्न उठना ही दुर्भाग्यपूर्ण है, इसलिए कि भोजन की व्यवस्था, एक सामूहिक प्रक्रम होता है, होना चाहिए, सर्व-सहयोग से, बिना योगदान कम-ज्यादा होने के, किसी विवाद के। 

खाने के स्वाद, और शरीर को लगने में, मन की भूमिका अद्वितीय होती है, मूलभूत भी। विवादों में उलझकर, मन ही खराब हो जाये, तो अच्छे से अच्छा पकवान भी, ना स्वाद आता है, ना तन को लगता है। भूख ही मर जाती है, तो खाया क्या, ना खाया क्या ?

मगर अगर निर्णय लेना ही हो तो खाद्यान्न की व्यवस्था, पहली अनिवार्यता है। यही ना हुआ तो पाक कला, धरी की धरी रह जाती है, अप्रासंगिक। खाद्यान्न की व्यवस्था है, अच्छा नहीं भी बन पाया, तो स्वाद भले ही ना आये, पेट तो कच्चे पक्के से भी, भर ही जाता है। भूख शान्त तो हो ही, जाती है। 

इन्सान जब कभी, विपरीत परिस्थितियों में उलझा है, अकल्पनीय, साधन प्रयोग कर के भी, जिन्दा बना रहा है। जैसी भी हो, पर जान रहती है। और जब तक जान है, जहान की उम्मीद, कायम रहती है। 🤗

गंगा-स्नान !

बैठना गंगा-तीरे, और स्नान करते लोगों को, ध्यान से देखना। प्रायः सभी प्रफुल्लित दिखेंगे, सौभाग्यशाली, पुण्यार्थी !

इन्हीं के बीच, कोई कोई दिखेगा, असहज, असंतुलित, छटपटाता, हाथ-पैर फैंकता। स्पष्टतः, सामन्जस्य बैठ नहीं रहा है, उसका। अब गंगा का वेग प्रचण्ड है, या तो उसकी क्षमतायें चुक रही हैं, अपर्याप्त हो रही हैं।

अधिक देर तक, ऐसा चल नहीं पाता, छटपटाहट कम होती जाती है, थम जाती है, फिर कोई शोर भी नहीं। शायद तैरना आ गया, संतुलन वापस पा लिया, उसने। यही एकमात्र निहितार्थ नहीं है, मगर। ये भी हो सकता है, जीवन संघर्ष के परे हुआ, वह असहाय, निरीह।

आपकी भूमिका, ससमय, यथा सामर्थ्य, सहायता की भी हो सकती थी, रील बनाने की भी, इस तरह कहानी सुनाने की भी, जो भी, मगर अब तो, चिड़िया उड़ गई, खेत चुगा, ना चुगा, क्या ही फर्क ? 

अब, अपनी अन्तरात्मा को, जवाब देते रहिये, ता-उम्र! 🤗

परिवार की बात, बात की बात !




"रानी रूठेंगी, तो, सुहाग, अपना ही, तो लेंगी !"

यह लोकोक्ति, राजा दशरथ के समय से, या शायद, और पहले से, चली आती है। मगर आज भी, उतनी ही सटीक, उतनी ही प्रासंगिक, कीमती और महत्वपूर्ण है।

दो अपवाद भी हैं, इसे, या तो पति निकम्मा हो, या/तथा, पत्नी आत्मनिर्भर हो । सामान्यतः संयोग से, सौभाग्य से, पति पत्नी के दायरे, प्रायः लगभग स्पष्ट होते हैं, अपनी बात कहिये, जरूर, फ़रमान नहीं ना सुनायें, मजबूर नहीं ना, करें। 

मनमानी ही होती हो, तो जो भी कहो, ये परिवार तो, नहीं । परिवार में, अहं नहीं होता, छोटा बड़ा नहीं होता, अहसान नहीं होता, मजबूरी भी नहीं होती, अपना, अपना तो ख़ैर, होता ही नहीं। साथ तैरना, साथ ही डूबना, इतर, सब रास्ते, बर्बादी की और। 

माँ-बाप, भाई बहन, अपने ही बच्चे, हमदर्द सहकर्मी, सब अपनी जगह, मगर पति, या पत्नी की जगह, कोई नहीं लेता, ले सकता ही नहीं। फौरी बात और !

कि रिश्तों में, समझदारी, बहुत होना, जरूरी है !
बुरा, दोनों को लगता है, समझना, ये जरूरी है !
हों गैर, तो ख़ैर, वास्ता कैसा, बुरा, अपनों का लगता है,
जरा सी बात है, लेकिन, समझना भी, जरूरी है !!




आँधियों की माफ़ियाँ !

तमसो मा ज्योतिर्गमय !





कुछ लोग होते है, जो बस आराम करते हैं, काम कुछ, करते ही नहीं, इसीलिए उन्हें, कुछ आता भी नहीं, वो कोशिश भी नहीं करते, फिर भी, काम करने वालों से, खुद को, बेहतर साबित करने की, तरकीब अच्छे से पता है, उन्हें। 

तुरत-फुरत, किए हुए काम में, कमियाँ निकालने लग जाते हैं, अब, अगर कमी निकालनी ही हो तो, कुछ ना कुछ तो, झूठा सच्चा ही सही, मिल ही जायेगा। इसके आगे, "भई, काम खराब करने से तो, अच्छा है, जब तक आता ना हो, दूर रहो। हमने काम ना किया हो, कम से कम, नुकसान तो नहीं किया"

यही विकल्प, दूसरे के पास भी है, वह भी, इनके किये काम में, जब भी करें, कमियाँ निकाल सकता है। दोनों पक्ष, एक दूसरे की कमियाँ, तलाश करते रहेंगे, एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशों में, लगे रहेंगे, हतोत्साहित करते रहेंगे। इस खींच-तान में, कम से कम, काम तो कोई, होने से रहा। 

सकारात्मक रहो तो, खराब से खराब काम में भी, अच्छाई, निश्चित ही मिलेगी। आप, प्रोत्साहित भी कर सकते हैं, अगली बार, पिछला अनुभव होगा तो, कमियाँ घटेंगी, और गुणवत्ता बढ़ेगी, इसमें श़क कोनी। यही, प्रगतिशीलता का मूल मंत्र है।

आप, मेरे घर का, दिया बुझायें, मैं, आपके घर का, तो अंधेरा, और घना हो जायेगा, कटेगा नहीं। कटेगा तभी, जब मैं, आपका दिया, बुझाने की जगह, अपना दिया जलाऊँ, धीमा हो, मद्धम हो, तो भी, अंधेरा, कुछ तो कम होगा ही। सम्भव है, आप भी प्रेरित हों, सद्बुद्धि आये तो, दिया जलायें, घर का कोना कोना रोशन होते, देर ना लगेगी।

तमसो मा ज्योतिर्गमय ! यही सार है 🤗

तमाम, काम-तमाम !

Reaching out !

If, You're, throwing, a pool party, 
to a thirsty struggler, It's not generosity, my dear !

It's insensitive inconsideration, 
gross humiliation, utter insult.

It, better be, simple, natural water,
Not RO, not Mineral, not Kangen,
Just adequate, drinkable water.
AND, in time, as much, as required. 🤗

रायते की दावत !



ठेठ, देसी भाषा में, 

रायता वही फैलायें, और उत्ता ही फैलायें, 
जो खुद, समेट लेने का, 
इरादा भी रखते हों, और माद्दा भी। ☝️

रायता पहले ही, बहुतेरा फैला हुआ है, 
इसे और फैलाने, और, 
औरों के लिए, समेटने को छोड़ देने की, 
कृपा करें, कोई जरूरत नहीं 🙏

जहाँ तक, हमारा खुद का सवाल है, 
ऐसे फैले पड़े हैं, 
कि सिमटना, आसान कहाँ ? 
शायद बटोरे ही जायें, किसी दिन 🤗



किं-कर्तव्य-विमूढ़ !


वाह-वाही, या प्रभुताई तलाशते, ऐसे लोग, आपको बड़ी आसानी सा दिख जायेंगे कि साहब, मरते मर जायेंगे, कितना ही दुख, तकलीफ, नुकसान हो, गलत काम को हाथ भी नहीं लगायेंगे। अंग्रेजी से एमए पास, मगर एक वाक्य, ता-उम्र ना बोल पाने वाले लोग, इसी कैटेगरी में मानें।

लाख बेहतर हैं, वह लोग, जो गलत सही की परवाह बगैर, यथापेक्षित काम, ससमय करते हैं। जानते हैं कि सही-गलत का अन्ततः निर्धारण तो समय करता है, परिणाम के माध्यम से, तब तक, किसी का सही, किसी का गलत, यह व्यक्ति-परक, परिस्थिति-परक और तत्कालीन भी हुआ करता है। दोषी, आप गलत काम कर डालने के लिए ही नहीं, अपेक्षित कार्य, समय पर ना कर पाने के लिये भी, अकृत-कार्य, माने जाते हैं।

आशय, यह नहीं, कि प्रकटतः गलत कार्य भी आप, लोभ में, लालच में, राग में, या द्वेष में, या भयातुर होकर, करने से पहले विचार ना करें। अन्तर्मन, अगर आप के साथ है, तो अपेक्षित काम, बिना समय गंवाए, करना ही उचित। ये भी कि, अन्ततः तो-

"हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश, विधि हाथ !"

और विधि के आगे, हमारी, या आपकी, खास चलती नहीं। काम समय पर होना ही सार्थक, आगे भगवान की इच्छा 🙏

बोझिल जीवन !

अपने, सबसे बड़े चाचा, एक कुंतल, यानी एक सौ किलो की बोरी को भी, बहुत सहजता के साथ, उठा लिया करते थे, आम आदमी से तो, हिला पाना भी मुश्किल। थोड़ी ताकत, थोड़ी तरकीब, मैं तरकीब ज्यादा कहूँ, इसलिए कि तरकीब तो, ताकत बढ़ाने के काम भी, आती है।

तो किसी आदमी को, एक कुंतल की बोरी, हँसते हँसते उठाये देखो, तो याद रखना, वजन तो उसकी बोरी का भी, सौ ही किलो है, राई रत्ती कम नहीं, सिर्फ उसे आती है, तरकीब भी। ऐसे ही, आपकी बोरी, कोई स्पेशल भारी नहीं, फ़कत तरकीब, बोलें तो, ठीक से उठाना, नहीं सीख पाये। बोरियाँ, हल्की भारी, तकरीबन, एक सी !

ये भी, कि कुछ लोग ये समझ जाते हैं कि रोने-धोने से, शिकवे-शिकायतों से, किसी और पर दोषारोपण से, वज़न, कम थोड़े ही होता है, अलबत्ता, उठाने की ताकत, जरूर कम हो जाती है। संयम-संतुलन-साहस से सामना करें तो भी, वजन तो उतना ही रहता है, मनोवैज्ञानिक सपोर्ट से, ताकत इक्कीस लगने लगती है।

वैसे वज़न जो मिला, सो मिल गया, इस पर, जोर, किसी का है भी नहीं 🤔

THE QUEUE....