धार्मिक और धर्मान्ध !


मैं, धर्म-विरोधी, कतई नहीं !

मैं आस्तिकों से अधिक आस्तिक, और धार्मिकों से अधिक धार्मिक हूँ, और हृदय से चाहता हूँ कि धर्म, अपनी प्राचीन ऊँचाइयों, और गौरव को, पुनः प्राप्त करे, इसके लिए, हम सभी, हर सम्भव उपाय करें।

मगर सबसे पहले, पतन हुआ कैसे ? इन कारणों को पहचानें, और सुनिश्चित करें कि पुनरावृत्ति, होने ना पाये। वो कहते हैं, ना ? मरहम पट्टी तो ठीक, मगर तुमने, जूते से वो कील तो निकाल दी ना ? जिसने ये घाव किया ?

प्रमुखतम कारण, जो मुझे लगता है, कि धर्म-सम्मत आचरण, और अनुसरण की जगह, हमने प्रचार और प्रदर्शन को वरीयता दी, शायद इसलिए कि, अनुयायी, अधिकाधिक हो सकें। धर्म तो, व्यक्तिगत विषय है, अतः व्यापक प्रक्षेपण के लक्ष्य, राजनीतिक ही रहे होंगे, या व्यावसायिक। प्राप्त जन-शक्ति, जिसमें धन-बल, और बाहु-बल भी सम्मिलित है, का दुरुपयोग, प्रभुत्व, और ऐश्वर्य जैसे, निजी लाभों के लिए, किया गया।

इस तरह, धर्म उपेक्षित होता गया, और उससे पोषित सत्ताधीश, शक्तिशाली। परिस्थितियाँ, जब भी विषम हुईं, सत्ता को बचा लिया, धर्म को छोड़ दिया, उसके हाल पर। यह अलग बात, कि जब पोषण ही ना रहा, तो पोषित भी, आखिर कब तक चलता ? कालान्तर में, सत्ता भी जाती रही।

आज भी, क्या आप निश्चिंत हैं, कि सारी गतिविधियाँ धर्मार्थ हैं, या धर्म, केवल माध्यम है, लक्ष्य, कुछ और ही है ? जिस तरह, सारा प्रयास, येन-केन-प्रकारेण, अनुयायी बढ़ाने, और असहमतों को निपटाने पर है, सदाशय, लगता तो नहीं

एक बात और, धर्म, केवल पूजा-पद्धति नहीं, उसे समाहित करते हुए, बहुत व्यापक बात है। आपके प्रयास, अगर सब जानते बूझते हैं, तो आप अनैतिक हैं, और अनजाने में हैं, आप नादान भी हैं। उन्माद फैलाने की प्रतीत कुचेष्टा, रणनीतिक तो हो सकती है, धार्मिक, कतई नहीं।

पहलगाम की, हृदयविदारक घटनाओं से, मर्माहत ! 🙏

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