"डबल इन्जन" आज-कल खूब प्रचलन में है, एक नये सन्दर्भ में चर्चा करते हैं।
पहले ट्रेनों में, एक ही इन्जन हुआ करता था, तमाम डिब्बे, गार्ड समेत, और सब ठिकानों पर, खींच कर ले जाने का अधिकार, और उत्तरदायित्व, उसी का होता था, कहीं, कोई कन्फ्यूजन, था ही नहीं !
कालांतर में, मुसाफिरों की हसरतें, जैसे जैसे, बढ़ती गईं, ऐश-ओ-आराम के, नये-नये साधन, लम्बे-लम्बे सफर, और तेज रफ्तार, अकेला इन्जन, कम लगने लगा तो चलन में आया, डबल इन्जन, एक आगे, एक पीछे, लोड शेयर हो गया, दोनों को आराम। एक आगे धकेलता था, तो दूसरा खींचता चलता था, तरक्की की, परस्पर सहयोग की, जिन्दा मिसाल।
मगर मुश्किलें भी, साथ आती हैं, एकल उत्तरदायित्व, और अधिकार, बीते जमाने की बात हो गई। अब श्रेय के समानुपातिक बँटवारे, बेहतर कौन के विवाद और प्रतिस्पर्धा की बातें होने लगीं। सहयोग, और संयुक्त प्रतिभाग, बीते समय की बात। अहंकार ने जन्म लिया तो, शक्ति परीक्षण के लिये, विमुख हो गये, दोनों ही इंजन, और अपनी अपनी, मगर विपरीत दिशाओं में, ट्रेन खींच ले जाने की कोशिशें, सर्वोपरि हो गई ।
ट्रेन का क्या हुआ, आप की कल्पना पर छोड़ा ? जैसे दो बेटों की माँ, भूखी बैठी रह जाती है। रफ्तार की, सफर की, आनन्द की बात करे कौन, ट्रेन साबुत बनी रहे, यही बहुत। ट्रेन, यानी हमारा आपका, परिवार, इन्जन, यानी पति-पत्नी, और कौन ?
कहानी, घर- ज्यादातर घर की !
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