उम्र-दराज़, और इलाज़ !


दीदी, कोई आठ साल बड़ी हैं, कल बात कर रही थीं, फोन पर, कि कैसे बढ़ती उम्र की तमाम समस्याओं से जूझ रही हैं। पाचन, तो दर्द, यहाँ, वहाँ, कहाँ-कहाँ, तो अनिद्रा, थकान, कमजोरी वगैरह-वगैरह। बेटा डाक्टर है, उनका, सो कहने लगीं, बुलाया है, शाम को, साफ साफ कह दूँगी कि अच्छे से इलाज कराये, सारी जांच पड़ताल, बहुत हो गया।

कैसे समझायें कि इलाज, कौन डाक्टर करता है, कर ही सकता है, करता है, केवल अनुकूल परिस्थितियाँ बनाने की, बाहरी खतरों से बचाने की, यथा-संभव कोशिश। शरीर को खुद, आपका शरीर ही, ठीक कर सकता है, यह आन्तरिक व्यवस्था है, डाक्टर की तमाम कोशिशें, सपोर्ट और हैल्प से ज्यादा कुछ नहीं। बहुत बार, डाक्टर की कोशिशों को, शरीर अस्वीकार भी कर देता है, बड़े से बड़ा डाक्टर, लाचार हो जाता है।

शरीर की स्व-उपचार की यह क्षमता, नैसर्गिक होती है, और जन्म के साथ ही, सभी को एक बराबर, मिलती है, परम-पिता के, प्रसाद-समान। कुछ रखते हैं, सँभाल के, तो कुछ बर्बाद कर डालते हैं, नादानी में, लापरवाही में, या खाँम-खाँ, कारण कोई भी हो, परिणाम वही, है, तो है, नहीं है, तो नहीं है।

यह क्षमता, किसी बाजार में, किसी भाव, नहीं मिलती, ना पद-प्रतिष्ठा-बाहुबल के सहारे, हथियाई जा सकती है, किसी डाक्टर वैद्य के बूते की यह बात नहीं, वरना हजारों हजार साल, किसी ना किसी को तो, अमर बना ही लेते। समय सीमा, यथार्थ है, परन्तु सदाचरण से, इसे संरक्षित और विस्तार दिया जाना, बराबर संभव है, सन्देह इसमें, कोई नहीं।

आचरण की बात हो, नीति-नियम की बात हो, शरीर से पहले मन, उच्चतर स्तर की बात, ये दिखता नहीं, फील भर होता है तो कन्ट्रोल इसका, स्वतः सम्भव, स्वतः ही कारगर भी। मन समझो तो, शरीर का इन्चार्ज, ये राजी ना हो तो शरीर में, दवा तो जाये, असर नहीं करती। और मन चंगा हो, बहुत बार, दवा की जरूरत ही नहीं पड़ती। प्लैसीबो सुना तो होगा ही, गूगल कर लीजिए।

मानसिक नियंत्रण से आशय, अहं से, चालबाज़ियों से बचिये, दुर्भावना पालिये मत, किसी के लिये भी, कामनाओं को, सपनों को यथार्थपरक रखिये, यथोचित प्रयास भी करने चाहिए, और धैर्य, कर्मण्ये वाधिकारस्ते.. भगवान स्वयं कह कर गये हैं। संतोषी, सदा सुखी, संसाधन और सुख, बात एक नहीं !

अन्ततः एक दिन जाना तो, सभी को है, और खाली हाथ ही जाना है, सारा कुछ, यहीं पर, या तो किसी को दे कर, या पड़ा छोड़कर। जाने से पहले का जीवन, चैन और आनन्द का हो, या नींद हराम, और ये करने वाले की, पहले होती है, मर्जी आपकी। और इसमें लखनऊ वाला, पहले आप, पहले आप, घातक होता है, गाड़ी खड़ी है तो आप ही चढ़ जाइये। यकीन मानिये, दूसरा भी, पीछे पीछे ही जायेगा। वरना, गाड़ी तो छूट ही जायेगी, दोनों की, और कोई डाक्टर, वापस नहीं ला सकेगा।

अपने एक मित्र हैं, डाक्टर हैं, कहने लगे, यार, हम लोग, घिसे पिटे टायर-ट्यूब, साला, पता लगाना मुश्किल, कि लीकेज है कहाँ ? और पैच लगाओ, लगना मुश्किल, लग जाये तो टिकना मुश्किल, और लगा रहे तो, बराबर से लीक करने लगे, कोई भरोसा ? पुरानी किताब के पन्ने, आहिस्ता आहिस्ता पलटते चलो तो ठीक, ज्यादा होशियारी, तो उतना ही पन्ना टूट कर, हाथ में जाता है, कोई माई का लाल, वापस लगाये तो I 

जब तक हो, खुश रहो, सुखी रहो, आनन्दित रहो, और रखो, समझदारी तो यही !

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