बीच रास्ते, भाई की कार का टायर पंचर हो गया था। तेज़ कड़ी धूप, मगर मजबूरी थी, जैसे तैसे जैक-अप कर लिया था, पहिया खोलने जा रहा था, हो रहा था, पसीने पसीने, गाड़ी में बैठी, उसकी पत्नी सवाल पर सवाल दागे जा रही थी,
"हवा चैक नहीं कराई थी, क्या ? अभी तो नये डलवाये थे, गारन्टी में होंगे, फिर भी पंचर हो गया। कम्पनी से शिकायत करना। गुप्ता जी, टीवी के लिए, कन्ज्यूमर फोरम चले गये थे, नया टीवी मिला, बदल के, हर्जाना ऊपर से, मगर तुम्हें तो, फुर्सत कहाँ.. ?"
तरस, किसी राहगीर को आया, बोला, "भाई साहब, मैं कुछ मदद करूँ ?"
उसके मुँह से, गाड़ी की पिछली सीट की तरफ इशारा करते हुए, जैसे खुद-बा-खुद निकल गया,"बस, अगर आप कुछ देर, मेरी पत्नी से, सवाल जवाब कर लें, तो मैं शान्ति से पहिया बदल लूँ।",
कथित रूप से पुरुष प्रधान, इस समाज में, हर किसी को, जनी-मानस को, अधिकाधिक सुविधा-सुरक्षा देने की, जैसे चुल्ल पड़ी रहती है। माना, पुरुषोचित है कि सुरक्षा-सूरक्षा का दायित्व, प्रमुखता, और निष्ठा के साथ वहन करे, परन्तु सही यह भी है कि प्रथमतः दायित्व ये, व्यक्तिगत हुआ करता है, इसके बाद ही, सहायता, वो पिता की हो, भाई की, पति की, या समाज के आम पुरुषोचित महानुभावों की।
जो लोग कहते हैं कि बेटियों को बड़े लाड़-प्यार से पाला है, कभी पानी का खाली गिलास भी, उनसे नहीं रखवाया, जान लें कि बेटियों का, इससे अधिक अहित, कोई दुश्मन भी क्या करता। अन्धे प्यार में, बेटियों को गोद में लिए लिए, जमीन पर ना उतारकर, आपने उनके पैरों को नाजुक तो बनाये रखा, ता-उम्र अपाहिज भी बना दिया, किसी ना किसी पर निर्भर, अब बिना बैसाखी, वे कभी, चल ना सकेंगी, भरोसे के साथ।
ये बात समझने जैसी है कि सहायता, संरक्षा, सुरक्षा के लिए, आप उपलब्ध रहें, प्रस्तुत रहें, सजग रहें, सतर्क रहें, परन्तु स्थानापन्न नहीं। उसे आड़ लेना ना सिखायें, सामने आने दें, जान-जोख़िम हो तो भी। प्रोत्साहन, और सलाह, और सपोर्ट मिलेगा तो वो खुद, आपकी ढाल साबित होंगी, निस्संदेह। भले 90 % आप सँभालें, 10% बेटी को सँभालने दें, और ये 10% पहले, बाकी जितनी जरूरत, फिर वो कोई भी करे, मगर बाद में ही, पीछे पीछे।
आप चकित रह जायेंगे, कि ये 10%, बढ़ते बढ़ते कहाँ तक पहुँचता है। कोई भी आत्म-सम्मानी, आपकी बेटी भी, मदद पसंद नहीं करता, अगर समर्थ हो, और ये बेटियाँ, किसी से कम, हैं भी क्या ? अपनी क्षमतायें, यही तो, बार बार साबित करती आ रही हैं, अवसर ही ना आने दें, आप, तो कोई करे भी क्या, और कैसे ? सहभागिता, और आत्मविश्वास, बहुत कीमती होती है, नितान्त वांछित, करीब-करीब अनिवार्य।
खुद चले रास्ते, कोई भूलता नहीं, और गूगल, किसी का, हमेशा अवेलेबिल, हो नहीं सकता। पिछली सीट, गिरे काले शीशे, अनवरत चलता एसी, मुसाफिर को जमीनी यथार्थ और रास्ते की जटिलताओं की, हवा भी भला कैसे लगेगी, ड्राइवर की चुनौतियों को जानता ही नहीं, तो हमदर्दी और मदद की भावना, आयेगी कैसे ?
मैं तो कहता हूँ, बिटिया को अगली सीट पर बिठाइये, बल्कि ड्राइवर की सीट पर, आप रहिये बराबर की सीट पर, नजर रखे, सलाह देते, सुरक्षा-संरक्षा देते, जरूरत के समय, सतत और तुरत, उपलब्ध। पंचर हो ही जाये, तो टायर भी, दोनों मिलकर बदलें, आगे वो, पीछे पीछे आप। एक बार चलाना सीख ले तो फिर, ड्राइवर की सीट पर बैठे, या पीछे आराम से, निर्णय, आप ही दोनों का।
वैसे चलाना आता हो, तो कोई बेटी, पिता को ड्राइव करने नहीं देतीं, खुद-बा-खुद। कोई तरस नहीं, अपने पैरों दौड़ लगाने का, मजा ही कुछ और। ऐसी बेटियाँ, लाइबिलिटी नहीं, असैट बन जाती हैं, इनके सहारे, कोई भी, लम्बे से लम्बे सफर पर, बिना किसी डर, या संकोच, कभी भी निकल सकता है, और हमेशा मंजिल पा ही लेता है, बल्कि मंजिल खुद चल कर, उसके पास आती है।
किसी राहगीर की, मदद की जरूरत नहीं होती कि, कोई अधीर होकर, सिर्फ सवाल पर सवाल ही नहीं पूछ रहा होता, सिर्फ शिकायतें ही नहीं कर रहा होता कि, पंचर कैसे हो गया, आखिर, इतनी धूप में, कितनी देर, और लगेगी, एसी बराबर काम नहीं कर रहा, गाड़ी भी स्मूथ चलानी नहीं आती, इतने बम्प लग रहे हैं, कब के पहुँच गये होते, अनगिनत, अन्तहीन सिलसिला सवालों का नहीं होता। साथ खड़ा होता है, तेज धूप में, छाता बन के, ऐसे 👇
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