पात्रता, सहानुभूति की !


उसके पैर से, बहुत ही ज्यादा खून बह रहा था, दो लोग सहारा देकर, उसे डाक्टर के पास लाए थे, दर्द से तड़प रहा था।

डाक्टर ने नुकसान, जांचा-परखा और पूछा, कैसे हुआ, तो पता चला कि उसके जूते से, एक कील बाहर आने लगी है, सब कारस्तानी, उसी की है।

डाक्टर ने फिर पूछा, कि कील निकाल दी, कि नहीं ? तो जवाब मिला, जूता किसी की निशानी भी है, और कीमती भी, तो छेड़खानी, कर नहीं सकते।

डाक्टर ने फर्स्ट एड बाक्स बन्द किया, बोला, मरहम पट्टी का सार नहीं, फिर तो कुछ, पहले कील निकाल बाहर करो, तब आना।

और, तीमारदारों से बोला,

"अगर मूढ़ता, किसी का चुनाव है तो विषम हालात में, किसी से मदद की, सहानुभूति की इच्छा, अपेक्षा, रखे भले, ये उसका अधिकार नहीं, ना ही किसी और का, कोई सामाजिक कर्तव्य। ये केवल आकस्मिक आपदा में ही प्रासंगिक होते हैं"

यह एक बार फिर से, दोहराने लायक बात है।

उपजाऊ बंजर !

तुम, बंजर हो जाओगे, 

  यदि, 

इतने व्यवस्थित ढंग से रहोगे.  

इतने सोच समझकर, बोलोगे, चलोगे, 

 

कभी, 

मन की नहीं कहोगे,  

सच को दबाकर, झूठे प्रेम के, गाने गाओगे,   

तो, मैं तुमसे कहता हूँ, तुम… 

बंजर हो जाओगे !  


प्रेरित - भवानी प्रसाद मिश्र



धूप-छाँव !

धार्मिक और धर्मान्ध !


मैं, धर्म-विरोधी, कतई नहीं !

मैं आस्तिकों से अधिक आस्तिक, और धार्मिकों से अधिक धार्मिक हूँ, और हृदय से चाहता हूँ कि धर्म, अपनी प्राचीन ऊँचाइयों, और गौरव को, पुनः प्राप्त करे, इसके लिए, हम सभी, हर सम्भव उपाय करें।

मगर सबसे पहले, पतन हुआ कैसे ? इन कारणों को पहचानें, और सुनिश्चित करें कि पुनरावृत्ति, होने ना पाये। वो कहते हैं, ना ? मरहम पट्टी तो ठीक, मगर तुमने, जूते से वो कील तो निकाल दी ना ? जिसने ये घाव किया ?

प्रमुखतम कारण, जो मुझे लगता है, कि धर्म-सम्मत आचरण, और अनुसरण की जगह, हमने प्रचार और प्रदर्शन को वरीयता दी, शायद इसलिए कि, अनुयायी, अधिकाधिक हो सकें। धर्म तो, व्यक्तिगत विषय है, अतः व्यापक प्रक्षेपण के लक्ष्य, राजनीतिक ही रहे होंगे, या व्यावसायिक। प्राप्त जन-शक्ति, जिसमें धन-बल, और बाहु-बल भी सम्मिलित है, का दुरुपयोग, प्रभुत्व, और ऐश्वर्य जैसे, निजी लाभों के लिए, किया गया।

इस तरह, धर्म उपेक्षित होता गया, और उससे पोषित सत्ताधीश, शक्तिशाली। परिस्थितियाँ, जब भी विषम हुईं, सत्ता को बचा लिया, धर्म को छोड़ दिया, उसके हाल पर। यह अलग बात, कि जब पोषण ही ना रहा, तो पोषित भी, आखिर कब तक चलता ? कालान्तर में, सत्ता भी जाती रही।

आज भी, क्या आप निश्चिंत हैं, कि सारी गतिविधियाँ धर्मार्थ हैं, या धर्म, केवल माध्यम है, लक्ष्य, कुछ और ही है ? जिस तरह, सारा प्रयास, येन-केन-प्रकारेण, अनुयायी बढ़ाने, और असहमतों को निपटाने पर है, सदाशय, लगता तो नहीं

एक बात और, धर्म, केवल पूजा-पद्धति नहीं, उसे समाहित करते हुए, बहुत व्यापक बात है। आपके प्रयास, अगर सब जानते बूझते हैं, तो आप अनैतिक हैं, और अनजाने में हैं, आप नादान भी हैं। उन्माद फैलाने की प्रतीत कुचेष्टा, रणनीतिक तो हो सकती है, धार्मिक, कतई नहीं।

पहलगाम की, हृदयविदारक घटनाओं से, मर्माहत ! 🙏

जीवन के संघर्ष !


मुझे, अक्सर यही लगता है कि, हर महान व्यक्तित्व, घोर संघर्ष से होकर, गुजरता ही है, अर्हता भी यही, पात्रता भी यही, करीब-करीब,अनिवार्य। ये संघर्ष ही, वह भट्टी है, जिसमें तपकर, साधारण सोना, कुन्दन बनता है।

संघर्ष ही जुझारू बनाता है, ताकतवर भी, धैर्यवान भी, सहनशील भी, दृढ़ संकल्पित भी। तो हैरानी कोनी कि सफलतम व्यक्तित्व, प्रायः साधारण पृष्ठभूमि से ही आते, अधिक मिलेंगे।

हवा प्रतिकूल हो, मगर संकल्प अडिग, ताकत भरपूर, तो जहाज, पलक झपकते, ऊँचे आसमान जा पहुँचता है, निखर जाता है। कहीं भी डांवाडोल हुआ, बिखरते भी, देर नहीं लगती।

जो संपन्न पृष्ठभूमि से आते हैं, कठोर संघर्ष से वंचित रह जाते हैं, तो उतना धैर्य, संकल्प और क्षमता, आये कहाँ से ? सहनशील नहीं होते, सफर, अक्सर, अधूरा ही छूटता है, इनका।

विरासत के संसाधन, एक तरह का, हैण्डीकैप समझें। ऐसे लोग, आगे दिखते तो हैं, होते नहीं दर-असल। दौड़ शुरू होने भर की देर, दूध का दूध, और पानी का पानी, हो ही जाता है।

एक उपाय है, वैसे ! आप संपन्न सही, संसाधनों को, अपने बच्चों को, सहज सुलभ, मत कराइये। कमाना, खुद तो कभी सीख ही ना पायेंगे, वर्ना, आश्रित रहेंगे, आजन्म, सारा फोकस, सुविधायें, येन-केन-प्रकारेण, हासिल करने पर।

शिकार, खुद मार के खाने का, लुत्फ ही कुछ और, ये शेरों का काम हैऔर दूसरे के मारे, शिकार पर, जो नजर रखे ? किसी समय, राजकुमार भी, शिक्षा-दीक्षा के लिए, गुरुकुल भेजे जाते थे, एक साधारण छात्र के समान रहकर, समस्त वास्तविक कठिनाइयों के बीच, पूर्णतः स्वावलम्बी, बिना किसी विशेष सुविधा !

शायद इसीलिए !!

हलाहल !


तू बच के, भागेगा भी, कहाँ, नामाकूल !

ये तमाशबीन, ये पुलिस, ये कानून, सब, उसी के तो हैं,

तेरे हिस्से, जेल, जलालत, पंखे से फंदा, और अब ड्रम,

और तो और,

ईंट-ईंट बनाया, तेरा अपना ही घर भी, तेरा नहीं, अभागे !

मगर तू तो मर्द है, और मर्द को दर्द कहाँ होता है

काश, ना होता, हिसाब तो ना देना पड़ता,

कोई माँगता भी नीं !

जो, जी ही, ना जा सके, ज़िन्दगी, वही, गुजारनी होती है !

आइसक्रीम स्टोर !

पढ़िए, जरा धीरे-धीरे !

आइसक्रीम बहुत पसन्द है, आपको, समझो, जान छिड़कते हो। सब जानते हैं, और उन्होंने, जो आपको प्यार बहुत करते हैं, आप को ढेर आइसक्रीम भेजी हैं, तरह तरह के फ्लेवर, स्टाइल्स और ब्रान्ड्स, सब एक से बढ़कर एक, मगर आपकी भी क्षमता है, कम, या ज्यादा, मगर है तो, निस्संदेह। और समय सीमा भी है, फ्रिज में भी कितना स्टोर कर पाओगे, ऊपर से बिजली का भी, कित्ता भरोसा ?

तो दिखने में, जो अधिक आकर्षक होंगी, चखोगे और जो ज्यादा पसन्द आयेगी, थोड़ी ज्यादा ले लोगे, कम पसन्द, थोड़ा कम। कुछ देर में ही, पेट भी भर जायेगा, और मन भी, वितृष्णा सी होने लगेगी। देखने का भी मन नहीं होगा। स्टोर, आप कर नहीं सकते, या तो बाँट दो, या दे कर जाओ, या पिघल जाने दो, महकना शुरू हो गया तो फिर, समेटना भी, मजबूरी ही हो जायेगी।

अब सोचिए, आराम से ! 
इसलिए कि बात, किसी आइसक्रीम की, है ही नहीं, निहितार्थ इसके, बहुत व्यापक हैं।

बागवान !


अंक परिवार प्रणाली का, सबसे बड़ा भाई है, 9, और इसमें बड़प्पन भी, कूट-कूट कर भरा है। छोटा, कोई भी अंक, इसके पीछे, छुप सकता है, आसरा भी पा सकता है, सान्निध्य में आये तो, गुण-धर्म भी। विश्वास ना हो तो, किसी भी अंक को, 9 से गुणा करिये, गुणनफल के अंको का योग, 9, ही आयेगा। कर के देखिये 🤗

9 होना, मुश्किल भी नहीं। मैं राजी हूँ, उन सबसे, जो कहते हैं, 3 में 6, मिला भर दो, 9 हो जाओगे, मगर उनसे नहीं, जो मानते हैं, कि यही एक मात्र रास्ता है। इसलिए कि 7 और 2 भी, 9 ही होते हैं, 4 और 5 भी, 3 को 3 से गुणा करो, तो भी, या 81 का वर्गमूल लो, तो भी। 

10 से 1, निकाल दो, तो भी, अनगिनत सम्भावनायें होती हैं, और गलत कोई भी नहीं, निराधार विवाद। एकमात्र हल तो, अंकगणित का सार, और आधार, दोनों ही ले डूबता है । 9 को बड़ा, और उदार बनना है तो, विशाल हृदय होना, आवश्यक भी है, अनिवार्य भी।

चमन में, हर तरह के, रंग-औ-बू से, बात बनती है,
हमीं हम हैं, तो क्या हम हैं ? तुम्हीं तुम हो, तो क्या तुम हो !

मगर, दो और दो, तो चार ही होते हैं, नौ छोड़िए, पाँच भी नहीं, ना हो सकते हैं, ना होना चाहिए, ना होने देना चाहिए। पात्रता के लिए, उन्हें पाँच और, चाहिए ही चाहिए, जीरो का भले, ढेर लगा लो। धींगा-मुश्ती से बात बनती नहीं। बगिया के खर-पतवार ही मानें इन्हें, जितनी जल्दी मुक्त हों, पात्र पौधों की सेहत के लिए, उतना ही अच्छा 😃


सुखद नींद और नरम, मुलायम, गुदगुदे गद्दे !


उम्र गुज़ार देते हैं, लोग, एक शानदार, नरम, मुलायम, गुदगुदे, अद्वितीय, ईर्ष्याजनक, गद्दे की तलाश में। हासिल हो जाये, तो भी रात बीतती है, करवटें बदलते बदलते ही। क्या है कि, नींद तो आती ही नहीं, जितना जतन करो, भागती है, उतना ही दूर।

तो कुछ लोग हैं, लेटे नहीं, और पलकें, अपने-आप बन्द होने लगती हैं, इत्ती गहरी नींद कि आँख, सुबह ही खुले, और जब उठें, तरो-ताज़ा, फुल्ली रिचार्जड् ! कोई दवा, कोई गोली, कोई इतर उपाय की, ना कोई जगह, ना जरूरत।

ऐसे लोगों के लिए, गद्दे का कोई विशेष महत्व है नहीं, शानदार हो, बेहद कीमती, या साधारण, या ना भी हो, सुखद नींद तो आ ही रही है, ना ? फिर और करना भी क्या 🤗

हर गद्दे का, अन्त प्रयोजन, अच्छी, सुखद, नींद ! आप अगर किसी गद्दे के लिए, अपनी नींदें ही उड़ाने पर तुले हुए हो, तो रुक कर, एक बार फिर से, और नये सिरे से सोचने की जरूरत तो है, नहीं ? 🤔

चलते-चलते : ये भी, कि कुछ लोग, आदत से मजबूर भी हुआ करते हैं, मंजिल आ भी गई हो, सफर जारी रखते हैं। एक बुजुर्ग को जानता हूँ, सोने के लिये, नींद की गोली, लिया करते थे, इतने नियम से, कि अगर कभी भूल जायें, तो नींद आ ही जाये, बिना गोली खाये तो जब खुलती, पहला काम, ध्यान से नींद की गोली खाना, भले सुबह हो चुकी हो 😂

छोटा-बड़ा ।

 


प्रा:,

लोग, येन-केन-प्रकारेण, औरों को झुकाने के जतन में लगे रहते हैं कि, वो बड़े दिख सकें।

काश !

समझें कि, झुकने से कोई छोटा नहीं होता, बल्कि और लचीला हो जाता है, और ऊँचाई पकड़ने में सक्षम, कि कौआ, पेड़ ऊपर जा बैठे, रहता कौआ ही है, बाज़ नहीं ना हो जाता। बाज़ जमीन पर भी, बाज़ ही रहता है।

और ये कि, बड़ा दिखना, और बड़ा होना, अलग-अलग बात। अकड़ा हुआ इंसान, सूखता भी है, और एक ना एक दिन, टूटता भी है, इसलिए कि झुकना तो, उसके ऐजेंडे पर, होता है ही नहीं।

मगर बड़प्पन, इन दोनों से अच्छा !

चलते-चलते - कौआ अगर ठान ले, और प्रयास करता ही रहे तो, शकल-सूरत ना सही, सीरत में बाज जैसा, एक दिन, हो भी सकता है। और बाज़, अगर मुगालते में रहे, लापरवाह हो जाये, तो दिखता भले रहे, बाज़ बना रहता नहीं !

व्यापक निहितार्थ।

और, कन्धों पर बैठ कर, ख़ुद को, बड़ा समझने वाले ? 😂

संघर्ष, और मुक्ति !

Umbrella Daughter !


बीच
रास्ते, भाई की कार का टायर पंचर हो गया था। तेज़ कड़ी धूप, मगर मजबूरी थी, जैसे तैसे जैक-अप कर लिया था, पहिया खोलने जा रहा था, हो रहा था, पसीने पसीने, गाड़ी में बैठी, उसकी पत्नी सवाल पर सवाल दागे जा रही थी,

"हवा चैक नहीं कराई थी, क्या ? अभी तो नये डलवाये थे, गारन्टी में होंगे, फिर भी पंचर हो गया। कम्पनी से शिकायत करना। गुप्ता जी, टीवी के लिए, कन्ज्यूमर फोरम चले गये थे, नया टीवी मिला, बदल के, हर्जाना ऊपर से, मगर तुम्हें तो, फुर्सत कहाँ.. ?"

तरस, किसी राहगीर को आया, बोला, "भाई साहब, मैं कुछ मदद करूँ ?"

उसके मुँह से, गाड़ी की पिछली सीट की तरफ इशारा करते हुए, जैसे खुद-बा-खुद निकल गया,"बस, अगर आप कुछ देर, मेरी पत्नी से, सवाल जवाब कर लें, तो मैं शान्ति से पहिया बदल लूँ।",

कथित रूप से पुरुष प्रधान, इस समाज में, हर किसी को, जनी-मानस को, अधिकाधिक सुविधा-सुरक्षा देने की, जैसे चुल्ल पड़ी रहती है। माना, पुरुषोचित है कि सुरक्षा-सूरक्षा का दायित्व, प्रमुखता, और निष्ठा के साथ वहन करे, परन्तु सही यह भी है कि प्रथमतः दायित्व ये, व्यक्तिगत हुआ करता है, इसके बाद ही, सहायता, वो पिता की हो, भाई की, पति की, या समाज के आम पुरुषोचित महानुभावों की।

जो लोग कहते हैं कि बेटियों को बड़े लाड़-प्यार से पाला है, कभी पानी का खाली गिलास भी, उनसे नहीं रखवाया, जान लें कि बेटियों का, इससे अधिक अहित, कोई दुश्मन भी क्या करता। अन्धे प्यार में, बेटियों को गोद में लिए लिए, जमीन पर ना उतारकर, आपने उनके पैरों को नाजुक तो बनाये रखा, ता-उम्र अपाहिज भी बना दिया, किसी ना किसी पर निर्भर, अब बिना बैसाखी, वे कभी, चल ना सकेंगी, भरोसे के साथ।

ये बात समझने जैसी है कि सहायता, संरक्षा, सुरक्षा के लिए, आप उपलब्ध रहें, प्रस्तुत रहें, सजग रहें, सतर्क रहें, परन्तु स्थानापन्न नहीं। उसे आड़ लेना ना सिखायें, सामने आने दें, जान-जोख़िम हो तो भी। प्रोत्साहन, और सलाह, और सपोर्ट मिलेगा तो वो खुद, आपकी ढाल साबित होंगी, निस्संदेह। भले 90 % आप सँभालें, 10% बेटी को सँभालने दें, और ये 10% पहले, बाकी जितनी जरूरत, फिर वो कोई भी करे, मगर बाद में ही, पीछे पीछे।

आप चकित रह जायेंगे, कि ये 10%, बढ़ते बढ़ते कहाँ तक पहुँचता है। कोई भी आत्म-सम्मानी, आपकी बेटी भी, मदद पसंद नहीं करता, अगर समर्थ हो, और ये बेटियाँ, किसी से कम, हैं भी क्या ? अपनी क्षमतायें, यही तो, बार बार साबित करती रही हैं, अवसर ही ना आने दें, आप, तो कोई करे भी क्या, और कैसे ? सहभागिता, और आत्मविश्वास, बहुत कीमती होती है, नितान्त वांछित, करीब-करीब अनिवार्य।

खुद चले रास्ते, कोई भूलता नहीं, और गूगल, किसी का, हमेशा अवेलेबिल, हो नहीं सकता। पिछली सीट, गिरे काले शीशे, अनवरत चलता एसी, मुसाफिर को जमीनी यथार्थ और रास्ते की जटिलताओं की, हवा भी भला कैसे लगेगी, ड्राइवर की चुनौतियों को जानता ही नहीं, तो हमदर्दी और मदद की भावना, आयेगी कैसे ?

मैं तो कहता हूँ, बिटिया को अगली सीट पर बिठाइये, बल्कि ड्राइवर की सीट पर, आप रहिये बराबर की सीट पर, नजर रखे, सलाह देते, सुरक्षा-संरक्षा देते, जरूरत के समय, सतत और तुरत, उपलब्ध। पंचर हो ही जाये, तो टायर भी, दोनों मिलकर बदलें, आगे वो, पीछे पीछे आप। एक बार चलाना सीख ले तो फिर, ड्राइवर की सीट पर बैठे, या पीछे आराम से, निर्णय, आप ही दोनों का।

वैसे चलाना आता हो, तो कोई बेटी, पिता को ड्राइव करने नहीं देतीं, खुद-बा-खुद। कोई तरस नहीं, अपने पैरों दौड़ लगाने का, मजा ही कुछ और। ऐसी बेटियाँ, लाइबिलिटी नहीं, असैट बन जाती हैं, इनके सहारे, कोई भी, लम्बे से लम्बे सफर पर, बिना किसी डर, या संकोच, कभी भी निकल सकता है, और हमेशा मंजिल पा ही लेता है, बल्कि मंजिल खुद चल कर, उसके पास आती है।

किसी राहगीर की, मदद की जरूरत नहीं होती कि, कोई अधीर होकर, सिर्फ सवाल पर सवाल ही नहीं पूछ रहा होता, सिर्फ शिकायतें ही नहीं कर रहा होता कि, पंचर कैसे हो गया, आखिर, इतनी धूप में, कितनी देर, और लगेगी, एसी बराबर काम नहीं कर रहा, गाड़ी भी स्मूथ चलानी नहीं आती, इतने बम्प लग रहे हैं, कब के पहुँच गये होते, अनगिनत, अन्तहीन सिलसिला सवालों का नहीं होता। साथ खड़ा होता है, तेज धूप में, छाता बन के, ऐसे 👇



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