#42 क्या स्याह, क्या सफेद - सारा खेल सहूलियतों का है साहब !



कोई अनोखी बात नहीं, आये दिन, सुनने को मिल ही जाता है, खुद हम भी कहते हैं, अमुक अच्छा है, अमुक ... राम राम ! क्या सच में ही परमपिता ने दो प्रजातियाँ बनाई हैं, और ख़ास आपके लिए ? आपको दुःख देने की योजना, उसने बनाई होगी, लगता तो नहीं ! कोई पर पीड़क थोड़े ही है वो !

जितना मैंने देखा है, हर अस्तित्व के दो पहलू होते ही होते हैं, अनिवार्यतः । एक उजला, और एक अंधेरा, मगर दोनों आप देख तभी पायेंगे, जब आपकी अपनी दृष्टि व्यापक होगी। प्रयोजन या संदर्भ विशेष से डाली गई नजर, प्रायः संकुचित होती है, एक तरफ ही देख पाती है। फिर संयोग की बात है, अनुकूल हुई तो अच्छा, ना हुई तो ...

तभी, एक ही आदमी, कभी भला लगता है कभी दुष्ट। थानेदार, जब चोर पर सख्ती करता है तो बहुधा उसके इन्सान होने पर ही शक होने लगता है, मगर अगर चोरी आपके ही घर में हुई हो तो ? ट्रेन में रिजर्वेशन, वैसे अब उतना संवेदनशील विषय नहीं रहा, मगर कल्पना कीजिए, आप रिजर्वेशन करा के सफर कर रहे हैं, और टीटी, लालच में, या अन्यथा, किसी को डिब्बे में आने दे तो ? और कभी, इस तरह डिब्बे में जगह पाने की इच्छा, आपकी अपनी ही हुई तो ?

तो महत्व वस्तु, और उसके दो पहलुओं का नहीं है, आपकी नजर और जरूरत का है, अनुकूलता इसी से निर्धारित होती है। प्रतिकूल परिस्थतियों में विचलित होना, स्वाभाविक है, पर अगर हर पहलू से देखने लगेंगे, तो नाराजगी, हताशा थोड़ी कम हो जायेगी। और, यह परस्पर है। ध्यान रहे, कोई ना कोई, आपको भी, हर समय देख रहा होता है।

वो आदमी चालाक होता है, युक्तियुक्त भी कह सकते हैं, जो हमेशा उजला पक्ष ही आपकी तरफ बनाये रखेगा, सुनिश्चित भी करेगा कि अनुकूल ही हो। ध्यान से देख लेना कि उसने उजले पक्ष की तस्वीर ना चिपका रखी हो, राजनीतिक लोग अक्सर ऐसा ही करते हैं। भोले-भाले मासूम से इन्सान के पास ना ये सुविधा होती है, ना जरूरत।  विश्वसनीयता होती है और वो होती है अमूल्य !

बहुत बार बात कुदरत की होती है, किसी के भी नियंत्रण से परे, और तब अपने आपको, स्वयं ही सज्ज होना होता है, अनुकूल बनना होता है ....

जैसी बहै ब्यारि, पीठ तैसी कर लीजै !

फिर कोई समस्या नहीं रहती, हर तरफ से एक सा ही दिखता है। जैसे, पौधे की जड़ को पानी मिल गया 🙏

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