उस दिन मैच चल रहा था, भारत-श्री लंका का, कुछ मेहमान, चन्द दोस्त, और जिकरा हो पड़ा महिला क्रिकेट का। फलाँ फलाँ खिलाड़ी तो, बिल्कुल लड़कों जैसा खेलती है। घरों में भी अक्सर सुनने को मिल जाता है, हमारी बेटी नहीं, बेटा है, ऐसे ही पाला है हमने इसे, लोग गर्व से बताते हैं।
प्रशंसनीय सोच ? मुझे तो नहीं लगता। तुलना, दुखदाई होती है, अगर तो कमतर के लिए तिरस्कार ले कर आती है, और कोई तो कम निकलेगा ही। और औचित्यविहीन, कोई संगति ही नहीं। कारण, परमपिता ने दो प्राणियों को एक सा बनाया ही नहीं, आम और सेब के बीच कैसी तुलना ? कोई तैरने में पारंगत है तो कोई दौड़ने में, तो कोई उड़ान कमाल की भरती है, और आपको तुलना करनी है ?
और बेटियों का जन्म, कोई बेटा बनने के लिए हुआ है, ये भी कोई जीवन लक्ष्य हुआ। बेटियों की नैसर्गिक क्षमता, बेटों जैसा काम करने में नहीं, वो काम करने की है जो बेटे, करना तो दूर, सोच भी नहीं सकते। देर सवेर, हमें अलग-अलग तरह की कुशलताओं के मध्य परस्पर महत्व को संतुलित करना ही होगा। शुभति शीघ्रम !
और तुलना-बराबरी भी कैसी कैसी ? अभी किसी ने लिखा है कि आप रोटी डाइनिंग टेबल पर बैठ कर खाते हो, उसके लिये अन्न पैदा करने वाला किसान, खाना खेत में, जमीन पर उकड़ू बैठ कर खाता है। भूल जाते हैं, और मेरा दावा है, कि जो स्वाद, जो आनन्द, जो तृप्ति उस किसान को खेत में, खाना खाकर मिलती होगी, आप को डाइनिंग टेबल पर, सपने में नहीं मिलेगी। क्या हाथ में है और काहे की ख्वाहिश ?
सौदा कामयाब हो भी गया, तो फायदा, सौभाग्य मुझे दूर दूर तक नहीं दिखता। अच्छी नींद के लिये, गद्दों की मोटाई नापने लग पड़े तो आसार चिन्ताजनक हैं। सुख महत्वपूर्ण हो सकता है, साधन सुविधायें नहीं। वे अधिक से अधिक सहायक तो हो सकते हैं, पर्याय समझ लिया तो बड़ी चूक हो गई । तभी कहता हूँ कि समाज को आनंद, सुख, आदर, सम्मान और अनुकरणीयता के मापदंडों पर पुनर्विचार का समय आ चुका है। अब और देरी, शुभ नहीं।
तुलना हो, प्रतिस्पर्धा हो तो जैसी चलते समय, दोनों पैरों के बीच होती है। केकड़े वाली हुई, तो बन्टाढार निश्चित 😀, वैसे अधिकांशतः आजकल हो यही रहा है 🙏
1 comment:
So true!!
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