कल का दिन, बहुत खास रहा।
मेरी सदा, बहुत कानों तक पहुँची। स्नेह तो बरसा, मगर कुछ अपने आहत भी हुए । आहत हमेशा अपने ही होते हैं, जितने करीब, उतनी गहरी चोट। गैरों के लिये तो आप होते ही कहाँ है, जो फर्क पड़े। गलती हुई, या गलतफहमी, दर्द हकीकत है, और खेद, बनता ही बनता है।
बोलें तो, मैं विशुद्ध धार्मिक व्यक्ति हूँ। यद्यपि, धर्म की मेरी अवधारणा 'सामान्य' नहीं,
घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूँ कर लें।
किसी रोते हुये बच्चे को हँसाया जाये।।
मैं समर्पित आस्तिक भी हूँ, पवनपुत्र मेरे आराध्य हैं। मगर उनसे साक्षात्कार के लिए, मुझे कहीं जाना नहीं होता। वो तो हमेशा मेरे अन्दर, मेरे दिल में ही रहते हैं, हर जगह मेरे साथ-साथ ही आते जाते हैं, और बच्चे सा संरक्षण, देते ही रहते हैं, अनवरत !
अब सामने वाले के दिल में, अगर कोई और है। भूमिका वही है, भावना वही है, फिर तो अपनी ही बिरादरी का ना हुआ। शक्ल अलग हो, कुछ बड़ी बात नहीं, जरूरी भी नहीं, अलग कार से चलता हो तो भी क्या, जाना तो सबको वहीं है । परमपिता की फोटोकापियां, नहीं होतीं, और कोई कर भी ले तो किसी काम की नहीं होती। समझ समझ की वात है।
पूजा स्थलों के वर्तमान स्वरूप, और उपयोग से मेरी सम्पूर्ण सहमति नहीं, यद्यपि इतना सही है कि जब कोई स्थान, या प्रतीक, जब नियत और चिन्हित हो जाता है तो उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव, आगन्तुकों पर अत्यंत सकारात्मक और प्रभावकारी होता है, विचारों के बिखराव को रोकता है, और वातावरण में जैसे सान्निध्य की एक अनुभूति, पवित्र-पावन सी, सहज ही उपलब्ध होती है।
परमपिता से मेरा सम्बन्ध व्यक्तिगत है, सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं, और मुझे जो भी प्राप्त है, उसी का प्रसाद है। जो मन हुआ, सब कुछ मिला हो, ऐसा नहीं है। अबोध के हाथ, उस्तरा कौन देता है ? जो मिला, उसकी कृपा, नहीं मिला, उसका संरक्षण।
अब तो सैटिंग हो गई है, बिना कहे सुने ही सब होने लगा है, असीम कृपा 🙏
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