04-05-2021
श्रीमद्भभगवद्गीता, आस्तिकों के लिए धार्मिक, या फिर दैवीय उद्गार हैं, साक्षात, स्वयं भगवान के श्रीमुख से अवतरित। परन्तु अन्य प्रज्ञावानों के लिए भी, मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसका महत्व साधारण नहीं। और इसका सर्वाधिक चर्चित सूत्र : "कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन:", आपको उपलब्धि के अहंकार और असफलता के अपराध बोध से तत्काल मुक्त करता है।
पूरे जीवन, विज्ञान से मेरा नजदीक का नाता रहा है, और इसकी उत्तरोत्तर प्रगति को मैंने देखा भी है और सराहा भी है, मगर विज्ञान की सीमा है, भले उस सीमा का विस्तार, नियमित और तेजी से हो रहा हो, और कुदरत का फैलाव है असीमित, हरि अनन्त - हरि कथा अनन्ता । सम्भव ही नहीं है कि किसी दिन विज्ञान, कुदरत पर नियंत्रण पा ले। विज्ञान तो, स्वयं कुदरत का ही अंश हुआ।
तो अस्पतालों में, चिकित्सकों के परामर्श कक्षों में आप बहुत बार, यह घोषित पाएंगे, "हम केवल इलाज करते हैं, ठीक तो वही करता है", यह घोषणा उपरोक्त सूत्र वाक्य की, स्वीकारोक्ति ही है। अपनी सीमायें, फिर वो कितनी ही दुखद, कितनी ही अप्रिय और कितनी ही दर्द भरी क्यों ना हों, हमें स्वीकार करनी ही होंगी। इस "हम" में, मैं स्वयं भी सम्मिलित हूँ ।
समय बहुत कड़ी परीक्षा ले रहा है, परीक्षा आपके धैर्य की, संयम की, साहस की, और जो नियंत्रण से बाहर है उसके समक्ष समर्पण की । इसे दुर्भाग्य कहें, या कुछ भी, अगर व्यवस्था अपर्याप्त सिद्ध हो रही है, कुछ लोग आपदा में भी अवसर ढूँढ रहे हैं, राजनीति जन-कल्याण पर भारी हो रही है, तो यह सब भी दुर्भाग्य ही तो है।
दुखद है, मगर सच भी है कि व्यवस्था की अपनी सीमायें भी हमेशा होती हैं, चाहे चिकित्साकर्मी हो, प्रशासन या कोई भी और, अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, और प्रत्युत्तर में सराहना ना सही, अगर केवल आलोचना, या तिरस्कार ही मिले तो ये तो थके मांदे घोड़े को चाबुक मारना ही हुआ, जरा सोचिए । अगर घोड़ा ही बैठ गया तो ?
मेरा आशय, किसी भी तरह से, कोरोना से संघर्ष में किसी ढिलाई का पक्ष लेना नहीं है, सावधानी हर तरह की, भय किसी तरह का नहीं। कोरोना से हो रहा नुकसान दिखता है, कोरोना के डर से हो रहे नुकसान की तरफ, उतना ध्यान नहीं जाता । बचिये साहब, ना बच पायें तो लड़िये और लड़ाई में जीत ना पायें तो विनम्रता से स्वीकारिये ।
यही नियति है, आपका अधिकार, और आपका कर्तव्य, कर्म और कोशिश तक ही जाता है, आगे जैसी उसकी मर्जी 

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