हर दरवाजे की तरह, उस दरवाजे पर भी, जिससे अहसासे कमतरी, यानी हीन-भावना, अन्दर घर करती है, एक सिटकनी अन्दर की तरफ भी, लगी ही लगी होती है।
अन्दर आ ही नहीं सकती, जब तक कि सिटकनी आप, खुद-बा-खुद, गिरा ना दें। बे-खयाली में, ना-समझी में, ला-परवाही में, आलस में, या तो फिर डर-संकोच में। है ना ? 😀
नमस्कार 🙏 ! आपका दिन शुभ हो 👍
2 comments:
Wonderful thought.!
बेहद खूबसूरत ख्याल महोदय!!
ये सिटकनी भी इंसान की संकोच प्रकर्ति का ही रूप होती है। जब तक संकोच है तो सिटकनी की भी उपयोगिता है। जहां संकोच खत्म वहां सिटकनी भी मात्र एक लोहे की रॉड से ज्यादा कुछ नही।
😊😊
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