06-06-2021
"आखिर, मैं हूँ कौन ?"
यह दर्शन, या फिर धर्म का कोई भारी-भरकम निहितार्थ वाला, जटिल सा सवाल नहीं है। ये तो मेरी रोज-मर्रा की जिन्दगी मुझसे, हर बार पूछती है, जब भी खड़ा होता हूँ, आइने के सामने।
और अच्छा लगे, या अच्छा ना भी लगे, सच यही है कि भले हम कभी काजू-किशमिश-बादाम ही क्यों ना रहे हों, वैसे कोई दावा नहीं कि हम वाकई कभी थे ही, अगर रहे होते तो भी क्या, आज की तारीख में, गोबर से ज्यादा कुछ नहीं। चन्द यादें, जिन पर मन हो तो घमंड कर लें, और अत्यन्त सीमित प्रासंगिकता, उपयोगिता।
और हमारी जगह, अगर किस्मत अच्छी हुई तो, उपले की शक्ल में दीवार पर लगा दिये जाते हैं, स्मृति चिन्ह की तरह, धीरे-धीरे सूखने के लिये। सूख जायेंगे तो एक किनारे, करीने से रख जायेंगे। तीज-त्यौहार, अज्ञारी सदृश उपयोगार्थ ।
यह आम नियति है, कोई आ गया है, कोई रास्ते में है। बात, केवल तालमेल की है। आज एक्सप्रैस वे के जमाने में, चेतक का भी क्या उपयोग, संगति नहीं है ना । आउटडेट होते देर लगती है क्या ?
और चेतक, भले सदियों में कोई कोई आता हो, एक्सप्रैस वे पर दौड़ने वाली कारें, हर घड़ी इतनी आ रही हैं, हमेशा पहले से बेहतर । और ये भी पलक झपकते, बीती बात हो जाने वाली हैं।
तो साहब, ठीक से जान लें। इसे चाहे तो निराशाजनक कहें, या सच से साक्षात्कार, और स्वीकारने का अपूर्व अवसर ! अगर ठीक से हो गया, तो देखना, हताशा नहीं, हताशा से मुक्ति ही, इन्तजार करती मिलेगी 

अनुपूरक:
गोबर, अगर दिमाग में भरा हो तो चिन्ता की बात हो सकती है। मगर खुद, एक दिन गोबर हो सकने की सामर्थ्य प्राप्त होना सौभाग्य की, और सच में हो ही जाना, निश्चित गौरव की बात है।
सामर्थ्य, यानी भगवान ने आपको इतना भरा-पूरा बनाया हो कि आप बांट भी सकें । साहसी और महामना भी, कि दे ही डालें । कभी किसी सूखी लकड़ी, या पाॅलिथीन को गोबर बनते देखा है ? यह परिणति, उसी को उपलब्ध होती है जिसे भगवान का वरदान, खुले हाथों मिला हो।
No comments:
Post a Comment