05-07-2021
एक वार्ता देखने का अवसर हुआ, जावेद अख्तर के साथ । और केन्द्र वक्तव्य, "इस दुनियाँ में, आधे से ज्यादा घरेलू फसादों की जड़ में, मां-बच्चे के बीच का बेपनाह प्यार होता है । जिन्दगी बहुत बेहतर, और सुकून भरी हो जायेगी, अगर ये ऐसा, और इतना ना हो"
चौंकाने वाला, हैरानी भरा वक्तव्य ! जावेद आगे समझाते हैं, नई नवेली पत्नी की तुलना, घर-घर में मां से जरूर होती है, खाना... अच्छा तो बना है, मगर मां के हाथ की बात ही अलग है, आदि आदि। इन्सानी फितरत, कि जो रह गया, सारा ध्यान वहीं अटक के रह जाता है। उससे इतर, अगर कुछ बहुत सारा मिला हो, तो भी, नजर कहाँ ही चढ़ता है।
जायज़ नाजायज़, सास की तरफ, हमेशा ही झुका ये तराजू, हर बहू की जैसे नियति, पीढ़ी दर पीढ़ी, चलती चली आ रही है। गुणवत्ता पतन की, जो यह आभासी अनुभूति शाश्वत है, सही कैसे हो सकती है। और इसके मूल में है, मां-बच्चे के बीच का बेपनाह प्यार, और अटूट सम्बन्ध। जितना प्रगाढ़ होगा, पत्नी के आपके जीवन में आने का दरवाजा, पूरा खुलने ही नहीं देगा। और यही है सास-बहू के बीच, परस्पर मन मुटाव की सबसे आम वजह ।
चूक कहाँ हो रही है ? तुलना, आम और अमरूद की । प्रतिस्पर्धा की ना जगह है, ना औचित्य, ना अवसर। दोनों परस्पर विकल्प कहाँ हैं, अनुपूरक समझेंगे, तो जैसे दो दरवाजे खुल गये, अलग-अलग, मगर साथ-साथ, आवागमन में सुविधा हो गई, एक दूसरे के बाधक ना रहे। शायद टकराव का कारण ही ना रहा।
तुलना, और फिर प्रतिस्पर्धा, को आज की जिन्दगी में, अनायास ही, उचित से बहुत अधिक महत्व मिल गया है, जबकि प्रासंगिकता है ही कितनी। हर जीवन अलग है, हर फूल अनोखा है, मगर पागलपन ही है। प्रतिस्पर्धा परपीड़ापरक भी होती है । हर सूरत में, येन-केन-प्रकारेण, सबसे आगे होना ही है, और सब को ही होना है। बराबर की लाइन से तो, लम्बा होना ही है । उसे छोटा करना, अगर आसान हो तो, यही सही। कोई ताज्जुब, कि लाइनें, सारी की सारी, मिटने के कगार पर खड़ी हैं । जो बची हैं, उनका होना भी कोई होना है।
मैं तो कहता हूँ, इतना ही जरूरी है अगर, बराबर में लाइन चाहिए ही चाहिए अगर, तो अपनी ही, गुजरे कल वाली लाइन को ले लो ना। उससे बड़ा होकर निकलो। छोटा करना पड़े, मिटाना भी पड़े, तो कोई नहीं।
ये विन-विन सिनारियो है, नुकसान का चक्कर ही नहीं 

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