#44 आज की बात !



हर दरवाजे की तरह, उस दरवाजे पर भी, जिससे अहसासे कमतरी, यानी हीन-भावना, अन्दर घर करती है, एक सिटकनी अन्दर की तरफ भी, लगी ही लगी होती है।

अन्दर आ ही नहीं सकती, जब तक कि  सिटकनी आप, खुद-बा-खुद, गिरा ना दें। बे-खयाली में, ना-समझी में, ला-परवाही में, आलस में, या तो फिर डर-संकोच में। है ना ? 😀

नमस्कार 🙏 ! आपका दिन शुभ हो 👍

#43 Born with a silver spoon ? So what !

 



Those born with a silver spoon, are usually found, iron deficit. 

Please note that it's not the nutritional value of food you take alone, but, and more importantly, what've you done to feel hungry, to the point of starving, before you pounce on, and what you intend doing later, to digest it, to suckle the last drops of vigor. This is so rare, surprisingly  and especially, in affluent families of these days.

In good old days, even royal princes, were subjected to a hard, demanding life, away from the homely luxuries, under tutelage of a ruthless master, indifferent to his exclusive status. So crucially significant, and so unfortunate that we've done away with this essential part of an appropriate upbringing, in the name of pseudo love, and affection. Disastrous !

No wonder, the kids today are used to, rather dependent on luxurious comforts, not earned, but provided by their ignorant parents. They obviously, never realise what does it take to reach there, they were never made to, and so they don't value it either. Once lost, they've no clue how to get it back, or how to live without them. What a pity !

Protections are precious, and not all have the fortune of having them, primarily from parents. But beyond a reasonable limit, it's sheer poison, rendering your own, lovely child, into a helpless, spineless creature, vulnerable from every side, and corner. Being captain of a ship, which never faced a storm, is a matter of utter misfortune, because he'll never learn anything from the sail, and will collapse, even with the mildest of tremor.

High time, we reconsider how we bring our prodigies up. No harm is feeding with a silver spoon, but ensure, enough Iron is also reaching up 👍.

#42 क्या स्याह, क्या सफेद - सारा खेल सहूलियतों का है साहब !



कोई अनोखी बात नहीं, आये दिन, सुनने को मिल ही जाता है, खुद हम भी कहते हैं, अमुक अच्छा है, अमुक ... राम राम ! क्या सच में ही परमपिता ने दो प्रजातियाँ बनाई हैं, और ख़ास आपके लिए ? आपको दुःख देने की योजना, उसने बनाई होगी, लगता तो नहीं ! कोई पर पीड़क थोड़े ही है वो !

जितना मैंने देखा है, हर अस्तित्व के दो पहलू होते ही होते हैं, अनिवार्यतः । एक उजला, और एक अंधेरा, मगर दोनों आप देख तभी पायेंगे, जब आपकी अपनी दृष्टि व्यापक होगी। प्रयोजन या संदर्भ विशेष से डाली गई नजर, प्रायः संकुचित होती है, एक तरफ ही देख पाती है। फिर संयोग की बात है, अनुकूल हुई तो अच्छा, ना हुई तो ...

तभी, एक ही आदमी, कभी भला लगता है कभी दुष्ट। थानेदार, जब चोर पर सख्ती करता है तो बहुधा उसके इन्सान होने पर ही शक होने लगता है, मगर अगर चोरी आपके ही घर में हुई हो तो ? ट्रेन में रिजर्वेशन, वैसे अब उतना संवेदनशील विषय नहीं रहा, मगर कल्पना कीजिए, आप रिजर्वेशन करा के सफर कर रहे हैं, और टीटी, लालच में, या अन्यथा, किसी को डिब्बे में आने दे तो ? और कभी, इस तरह डिब्बे में जगह पाने की इच्छा, आपकी अपनी ही हुई तो ?

तो महत्व वस्तु, और उसके दो पहलुओं का नहीं है, आपकी नजर और जरूरत का है, अनुकूलता इसी से निर्धारित होती है। प्रतिकूल परिस्थतियों में विचलित होना, स्वाभाविक है, पर अगर हर पहलू से देखने लगेंगे, तो नाराजगी, हताशा थोड़ी कम हो जायेगी। और, यह परस्पर है। ध्यान रहे, कोई ना कोई, आपको भी, हर समय देख रहा होता है।

वो आदमी चालाक होता है, युक्तियुक्त भी कह सकते हैं, जो हमेशा उजला पक्ष ही आपकी तरफ बनाये रखेगा, सुनिश्चित भी करेगा कि अनुकूल ही हो। ध्यान से देख लेना कि उसने उजले पक्ष की तस्वीर ना चिपका रखी हो, राजनीतिक लोग अक्सर ऐसा ही करते हैं। भोले-भाले मासूम से इन्सान के पास ना ये सुविधा होती है, ना जरूरत।  विश्वसनीयता होती है और वो होती है अमूल्य !

बहुत बार बात कुदरत की होती है, किसी के भी नियंत्रण से परे, और तब अपने आपको, स्वयं ही सज्ज होना होता है, अनुकूल बनना होता है ....

जैसी बहै ब्यारि, पीठ तैसी कर लीजै !

फिर कोई समस्या नहीं रहती, हर तरफ से एक सा ही दिखता है। जैसे, पौधे की जड़ को पानी मिल गया 🙏

पुनश्चः अगर आपको यहॉं आना, सच मैं भाता है तो याद दिला दूं कि, आपके पास सब्सक्रिप्शन का उपाय भी उपलब्ध है। अगर चुनेंगे तो फल पकते ही आपको खबर हो जायेगी, वो भी अपने आप 👍




Institute you passed out of, ... & You !




A great institute, will cast you into a wonderful mindset, will clean, polish and arrange your thought channels, but even it can not meddle with the ingredients. It doesn't have that power 😃

Only you can do that, with your perseverance, with the support of the environment, family, office and beyond and the grace of Almighty.... 👆

Remember that, ... Always ! and also that,

"कर्मण्ये वाधिकारस्ते .... 👍

जीवन की कहानी - तेरी मेरी कहानी

 


एक प्यार का नगमा है, मौजौं की रवानी है,

जिन्दगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी... (साभार 🙏)  

जी हॉं, बेशक !

इसे लिखें भी, खुद ही, अपने ही हाथों से,

और हॉं, बीच-बीच में चैक भी करते रहें, जहॉं ठीक लगे, जरूरी लगे, सुधारते भी चलें, फिनिश़ अच्छी मिलेगी !

👍

कोई भूला बिसरा - मगर कैसा कैसा

 





चलो, एक बार फिर से, अजनबी बन जायें हम दोनों ...

और मजा ये, कि इस बार, पहले से जाने हुए भी होंगे 😜

About Blog : How to reach the field of action, explore, contribute and plan ahead, a revisit !



 एक काल्पनिक घटना से अपनी बात कहने की कोशिश करता हूँ, सुदूर दुर्गम क्षेत्र से, जहाँ लोगों को नजदीक और अच्छे से दुनियाँ और उसकी तरक्की को देख पाने का अवसर नहीं हो पाया, कोई दृढ़ संकल्पी, तमाम मुश्किलों और तकलीफों से पार उतर, वायु सेना को चुना गया। ट्रेनिंग बाद, पासिंग आउट उत्सव में, उसने अपने बुजुर्ग मां-बाप को भी आमंत्रित किया।

नियत दिन, जब दर्शकों में उसके अपने जन्म दाता भी शामिल  थे, उसने हवाई जहाज उड़ाने में, अपने सर्वश्रेष्ठ कौशल का प्रदर्शन किया। क्या रफ्तार, क्या फुर्ती, क्या ऊंचाई, क्या कलाबाजियां, क्या नियंत्रण... सारा मैदान तालियों के शोर में डूब गया। उसे सर्वोच्च सम्मान उपलब्ध हुआ। अवसर मिलते ही, वह माता पिता के पास आया, पैर छुये और पूछा कि उन्हें कैसा लगा ? पिता तो चुप रहे, मगर माता से ना रहा गया, 

"खानदान कौ नाम कद्दौ बेटा, इत्ती तारी, सब ताईं, इत्ती वाह वाह, नजन्न लगै, बेटा, छाती चौड़ी है गई। ऐसे ई खूब तरक्की करौ 🤚, दिन दूनी, रात चौगुनी !

वैसे एक बात बोलें बेटा, उड़ाय तौ लेत हो, पर अबई लहकत है, डगमगात बहुत है, धीरे धीरे हाथ रमा हुइ जैये तो फिर सीधे चलन लगौगे ! का है कि डर लगत है, गिरि गिराय परौ तो चोट लगैगी,  सो लगैगी, नुकसान अलग । सो नैंक हाथ पांय बचाय कै"

बात हंसी-मजाक की हो सकती है, मगर देखें तो एक मां की ममता, गौरव और बेटे का हित चिन्तन अपने चरम पर है। अलग बात है कि उन्हें एक परिवेश विशेष का अनुभव, और वैसी समझ उपलब्ध नहीं हो पाई, कुछ संयोग, कुछ हालात। उनका अपना दोष, ना बराबर, और जो कुछ रहा भी हो तो अपनेपन के चमकते सूरज की चकाचौंध में, टिकता कहाँ है।  

एक जहाज, मैं भी उड़ा रहा हूँ  आजकल। दर्शक, कुछ कौतूहल, कुछ कृपापूर्वक प्रोत्साहित करने खुद आये है, प्रायः आते ही हैं। बहुत लोग ऐसे हैं कि जिन्हैं खबर ही नहीं हो पाई है अभी तक, और यही प्रयास, ऐजेन्डे पर सबसे ऊपर है। पाती हर तरफ, और दूर दूर तक जाये, ऐसा अनुरोध आपसे तो हो ही रहा है, स्वयं मैंने भी इधर व्हाट्स एप पर, ब्राडकास्ट की मदद ली थी।

प्रतिफल तो मिला, उम्मीद से ज्यादा मिला, मगर देखने में यह भी आया कि बहुतों के पास, इच्छा तो भरपूर है, मगर बोध की शक्ति नहीं है। वैसा अनुभव का अवसर, कभी हो ही नहीं पाया उन्हें। कुछ भाषा भी कभी कभार मुश्किल हो जाती है, उन्हें पता ही नहीं, कि ब्लाग है क्या, और वहाँ पहुँचें कैसे, और करें क्या ? अन्तिम पैरा, सार ही कहें, उन्हीं को समर्पित, जो जाने को आतुर तो हैं, रास्ते से अनजान हैं।

तो साहब, भले सब भूल जायें पर इतना भर याद रखें कि ब्लाग, यानी एक जगह, वाचनालय जैसी, जहाँ मेरे लिखे, और लिखे जा रहे सारे वक्तव्यादि, एक ही जगह, करीने से लगे मिलेंगे। जब मन हो, आ जायें। मेरा ही बनाया है तो आपको पता है क्या मिलने वाला है, और क्या नहीं मिलने वाला है। आपको सुविधा है कि आप सुझाव, या फिर कोई  आलोचना, या सादा सी टिप्पणी भी वहां, खुद लिख सकें। आप किसी खास टापिक की फर्माइश भी कर पायेंगे। अगर आप फौलो, या सब्सक्राइब का विकल्प चुनें तो नई पोस्ट होते ही आपको खबर भी अपने आप मिलेगी।

ब्लाग तक पहुँचने का रास्ता, बहुत ही आसान है। नीले रंग की लाइन देख रहे हैं ना, जिसके नीचे रेखा खींचकर, उसे अलग सा दिखाया गया है। उसे अपनी उंगली से टैप करना है, बस, हो गया। अगले ही पल आप ब्लॉग पर होंगे। प्रायः हर रचना के साथ, एक तस्वीर भी है, टैप करें और हो गया। रचना प्रस्तुत है,। वापस जाइये, कोई और तस्वीर पर टैप करिये, वो खुल जायेगी। है ना आसान ?

फिर भी असुविधा हो तो, हम हैं ना ? संकोच ना करें, ना आने में, ना आने में सहायता लेने में। आप आमंत्रित हैं। एक बार के लिये आग्रह, दोबारा के लिये... आपका मन। आयेंगे तो अहो भाग्य, नहीं आयेंगे तो भी आभार, पहली बार तो आये ही थे ना, उसी के लिये 😀

Embarrassment Diffused ? No Idea ??


 चलते फिरते:


गये किसी रविवार को, एक डॉक्टर साहब हैं, उनका जन्मदिन हुआ। मित्र भी हैं, सम्बन्ध भी मानते हैं और असल से कम नहीं निभाते, भले आधी रात आजमा लो।


फोन किया, तो उठा नहीं, मैसेज छोड़ दिया। आम तौर पर ऐसे में, उनका वापसी फोन जरूर आता है, यथाशीघ्र। क्षमा भी मांगते हैं, कारण भी बताते हैं और अपेक्षित भी करते हैं। 


पहली बार ऐसा हुआ, कि ऐसा नहीं हुआ, और कारण, हमारे बधाई संदेश पर उनसे आई हुई, कोई ऐसी वैसी क्लिप। ऐसी वैसी, मतलब ऐसी वैसी, हालांकि चन्द सैकन्ड्स की, और फिर सन्नाटा, घटाटोप !


ये तो थी पृष्ठभूमि, नीचे साझा कर रहा हूँ, वार्तालाप, माइनस क्लिप। ठीक है  ?

पहला दिन -

"डा साहब, नमस्कार 🙏


आपको फोन कर रहे थे, भूल गये थे कि छुट्टी का दिन है, सुबह देरी से हो सकती है।


कुछ खास नहीं, ध्यान गया कि आपका जन्मदिन है, तो बधाई देने का मन हो आया।


कुबूल हो, बधाई भी, आशीर्वाद भी, और शुभकामनायें भी 👍"

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क्लिप का आ टपकना, और फिर सन्नाटा

**********

अगले दिन -

"आखिर जन्मदिन था आपका, डाक्टर साहब, साल में एक बार तो आता है, तो हक पूरा-पूरा बनता है आपका, जैसा मन हो, वैसे मनायें, जो चाहें, प्रसाद में बांटें 😜


कुछ शौक, सार्वजनिक नहीं होते, और सच यही है कि आपके सान्निध्य में हर बात सहज नहीं होती, सम्बन्ध ही ऐसा है। 😀


मुझे मालूम है, यह चूक ही हुई है । वैसे, कोई इतनी बड़ी बात भी नहीं। अपराध बोध से, कृपया मुक्त हो जायें। मैं, खुद कर रहा हूँ। सोचता था जन्मदिन पर, उपहार क्या दें, यही सही 👍"

Surviving the SYSTEM

 


An erstwhile colleague approached me last night, seeking advice, convinced and willing to help his confidante, under transfer, but how?  

"Ek chiz bataiye, jaise kisi ka transfer hua hai aur use relieve na karna ho to uska process kya hai ?"

And thus, I responded:

"You should've shared full details.

Transfers are serious policy matters of Government, often initiated by interested, powerful forces, who won't let them go uncomplied with, under pretext of discipline and subordination. If not done tactfully, the protector may have to run for cover, himself.

Key is never to confront head on, but to deviate, or side pass it. Monitoring of compliance, seldom extends beyond about a month, and idea is to let this crucial time pass. Nobody bothers later.

The more sensible, and easy is to request is, to seek time, extension of relieving and joining deadlines, on the pretext of some innocent, yet inevitable and adequately justifiable reasons. Having provided firm ground, the key authority can be persuaded to go along, or look the other way. 


Just a matter of time. 😀"

Love stories from IITR

 

"You cant marry my daughter because you are not an Engineer but just a jobless Arts graduate"
He was heart broken when he heard this from the father of the girl he loved. The year was 1934 & this story is from Punjab (now in Pakistan).
He promised both the girl & his father that he will become an engineer & then ask for her hand.
He found out about IIT Roorkee (then Thomason College of Engineering) & decided to prepare for the entrance exam. He studied day & night for over a year, when the results came, he was the only one from Punjab who got selected, probably the oldest in the class.
He had no money, studied on borrowed books when his classmates were sleeping & graduated with flying colours. The govt offered him a job of an engineer.
He went back to meet his girl only to find her dad had passed away & her family did not want her to get married to him. But the girl put her foot down & decided she will not get married to anyone else.
It took a few years for her family to agree & they got married after 8 years of courtship.
The certificate that he got 82 years ago when he graduated is still with me. I owe my existence to my grandparents love & this piece of paper. It is a gentle reminder that love can make anything possible.


Credits: Sandeep Kochar, from Linked IN.

INSTINCT - Elections


अगले साल चुनाव होने जा रहे हैं, अपनी यू पी में।

वैसे तो आपको पता ही होगा। सोचा, अगर ध्यान न गया होगा उधर तो सोच रहे होंगे, ये हवायें एकाएक तेज क्यों चलने लग पड़ीं, मंच रोशन होने लग गये। लोग रातों-रात जागरूक और संवेदनशील कैसे हो गये। कुछ नहीं साहब, हितबद्ध लोग सक्रिय हो गये हैं।

हितबद्ध तो आप भी हैं, तो आपको भी जाग ही जाना चाहिए और अपने हिस्से का प्रतिभाग भी करना ही चाहिए। ये फर्ज है आपका। आप प्रचार प्रसार करें, किसी का विरोध, किसी का समर्थन करें, वाद-विवाद में शामिल हों, या ना हों, आप जानें, मगर उदासीन ना हों, और वोट तो अवश्य ही दें।

वोट किसे दें, जो भी आपको ठीक, या फिर सबसे कम खराब लगे। वोट अवश्य दें, और सोच समझकर दें, बस इतना ही आव्हान है मेरा, पाने वाला कोई भी हो। मैं राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं, इसलिए मेरी पसंद नापसंद मेरा निजी मामला, ना प्रभावित होना, ना किसी को प्रभावित करने का प्रयास, हां, पसंद से वोट अवश्य !


चिरकाल से उक्ति चली आ रही है "सत्यमेव जयते", अर्थात अन्ततः जीत सत्य की ही होती है। विजेता के पक्ष में जाना, बुद्धिमानी भी है, श्रेयस्कर भी और लाभप्रद भी, मगर मुश्किल है, सत्य की पहचान। सबसे ज्यादा तरक्की, इन्सान की इसी में हुई है कि सच उपलब्ध ना हो सके तो, मुश्किल बहुत होता है ना, झूठ को ही सच बना लिया जाये। झूठ इतनी कुशलता से, कि सच को खुद अपने पर विश्वास ना हो। बहुत बार, पैकिंग जानदार हो तो, कन्टेन्टस बेमतलब हो जाते हैं।

कुछ तरकीबें हैं। हितबद्ध को सच, प्रायः दुर्लभ होता है। देखना कि प्रचारक के जीवन-यापन के वैकल्पिक साधन हैं क्या ? उसकी जीवन शैली के अनुरूप, आय के साधन ?, या तो फ़िर उसकी रोजी-रोटी-दाल सब राजनीति से ही है। निर्भरता से हितबद्धता होती है, और फिर सब स्वार्थ। विश्वसनीयता समाप्त हुई। उसकी राजनीतिक योग्यता, पात्रता अर्जित है या वंशानुगत ? वैसे किसी राजनीतिक वंश में जन्म होना कोई पाप नहीं, मगर विरासत हटाकर कुछ बचे ही ना, तो पात्रता संदिग्ध।

आप कहेंगे निष्पाप, निष्कलंक लोग मिलते किधर हैं, तो सही है कि नहीं मिलते। नम्बर देती है जनता, और मतलब उसके भी हैं, जायज नाजायज दोनों, तो सौ में सौ तो, असम्भव ! स्वयं भगवान भी नहीं पाये। अगर वही लक्ष्य है तो असफल हुआ वह भी, जो बहुत करीब पहुंचा, और वो भी जो बहुत दूर रह गया और वह भी, जिसका ना प्रयास था, ना इरादा। असफल सभी हैं, मगर एक बराबर नहीं। अन्तर समझना और उसे चुनना, जो तुम्हारी अपनी नजर में, लक्ष्य के सबसे नजदीक पहुँचा हो, और वह लक्ष्य, मन्तव्य और संकल्प से जन-कल्याण कारी हो।

आपको हार्दिक शुभ कामनायें 👍, आपका दिन शुभ हो 🙏

The comparison



उस दिन मैच चल रहा था, भारत-श्री लंका का, कुछ मेहमान, चन्द दोस्त, और जिकरा हो पड़ा महिला क्रिकेट का। फलाँ फलाँ खिलाड़ी तो, बिल्कुल लड़कों जैसा खेलती है। घरों में भी अक्सर सुनने को मिल जाता है, हमारी बेटी नहीं, बेटा है, ऐसे ही पाला है हमने इसे, लोग गर्व से बताते हैं।

प्रशंसनीय सोच ? मुझे तो नहीं लगता। तुलना, दुखदाई होती है, अगर तो कमतर के लिए तिरस्कार ले कर आती है, और कोई तो कम निकलेगा ही। और औचित्यविहीन, कोई संगति ही नहीं। कारण, परमपिता ने दो प्राणियों को एक सा बनाया ही नहीं, आम और सेब के बीच कैसी तुलना ? कोई तैरने में पारंगत है तो कोई दौड़ने में, तो कोई उड़ान कमाल की भरती है, और आपको तुलना करनी है ?

और बेटियों का जन्म, कोई बेटा बनने के लिए हुआ है, ये भी कोई जीवन लक्ष्य हुआ। बेटियों की नैसर्गिक क्षमता, बेटों जैसा काम करने में नहीं, वो काम करने की है जो बेटे, करना तो दूर, सोच भी नहीं सकते। देर सवेर, हमें अलग-अलग तरह की कुशलताओं के मध्य परस्पर महत्व को संतुलित करना ही होगा। शुभति शीघ्रम !

और तुलना-बराबरी भी कैसी कैसी ? अभी किसी ने लिखा है कि आप रोटी डाइनिंग टेबल पर बैठ कर खाते हो, उसके लिये अन्न पैदा करने वाला किसान, खाना खेत में, जमीन पर उकड़ू बैठ कर खाता है। भूल जाते हैं, और मेरा दावा है, कि जो स्वाद, जो आनन्द, जो तृप्ति उस किसान को खेत में, खाना खाकर मिलती होगी, आप को डाइनिंग टेबल पर, सपने में नहीं मिलेगी। क्या हाथ में है और काहे की ख्वाहिश ? 

सौदा कामयाब हो भी गया, तो फायदा, सौभाग्य मुझे दूर दूर तक नहीं दिखता। अच्छी नींद के लिये, गद्दों की मोटाई नापने लग पड़े तो आसार चिन्ताजनक हैं। सुख महत्वपूर्ण हो सकता है, साधन सुविधायें नहीं। वे अधिक से अधिक सहायक तो हो सकते हैं, पर्याय समझ लिया तो बड़ी चूक हो गई । तभी कहता हूँ कि समाज को आनंद, सुख, आदर, सम्मान और अनुकरणीयता के मापदंडों पर पुनर्विचार का समय आ चुका है। अब और देरी, शुभ नहीं।

तुलना हो, प्रतिस्पर्धा हो तो जैसी चलते समय, दोनों पैरों के बीच होती है। केकड़े वाली हुई, तो बन्टाढार निश्चित 😀, वैसे अधिकांशतः आजकल हो यही रहा है 🙏

कल की ही बात !

 


कल का दिन, बहुत खास रहा। 


मेरी सदा, बहुत कानों तक पहुँची। स्नेह तो बरसा, मगर कुछ अपने आहत भी हुए । आहत हमेशा अपने ही होते हैं, जितने करीब, उतनी गहरी चोट। गैरों के लिये तो आप होते ही कहाँ है, जो फर्क पड़े। गलती हुई, या गलतफहमी, दर्द हकीकत है, और खेद, बनता ही बनता है।


बोलें तो, मैं विशुद्ध धार्मिक व्यक्ति हूँ। यद्यपि, धर्म की मेरी अवधारणा 'सामान्य' नहीं,


घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूँ कर लें।

किसी रोते हुये बच्चे को हँसाया जाये।।


मैं समर्पित आस्तिक भी हूँ, पवनपुत्र मेरे आराध्य हैं। मगर उनसे साक्षात्कार के लिए, मुझे कहीं जाना नहीं होता। वो तो हमेशा मेरे अन्दर, मेरे दिल में ही रहते हैं, हर जगह मेरे साथ-साथ ही आते जाते हैं, और बच्चे सा संरक्षण, देते ही रहते हैं, अनवरत !


अब सामने वाले के दिल में, अगर कोई और है। भूमिका वही है, भावना वही है, फिर तो अपनी ही बिरादरी का ना हुआ। शक्ल अलग हो, कुछ बड़ी बात नहीं, जरूरी भी नहीं, अलग कार से चलता हो तो भी क्या, जाना तो सबको वहीं है । परमपिता की फोटोकापियां, नहीं होतीं, और कोई कर भी ले तो किसी काम की नहीं होती। समझ समझ की वात है। 


पूजा स्थलों के वर्तमान स्वरूप, और उपयोग से मेरी सम्पूर्ण सहमति नहीं, यद्यपि इतना सही है कि जब कोई स्थान, या प्रतीक, जब नियत और चिन्हित हो जाता है तो उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव, आगन्तुकों पर अत्यंत सकारात्मक और प्रभावकारी होता है, विचारों के बिखराव को रोकता है, और वातावरण में जैसे सान्निध्य की एक अनुभूति, पवित्र-पावन सी,  सहज ही उपलब्ध होती है।


परमपिता से मेरा सम्बन्ध व्यक्तिगत है, सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं, और मुझे जो भी प्राप्त है, उसी का प्रसाद है। जो मन हुआ, सब कुछ मिला हो, ऐसा नहीं है। अबोध के हाथ, उस्तरा कौन देता है ? जो मिला, उसकी कृपा, नहीं मिला, उसका संरक्षण। 


अब तो सैटिंग हो गई है, बिना कहे सुने ही सब होने लगा है, असीम कृपा 🙏

इक रोज़ - ख़ासमखास !

 




ईद-उल-अज़हा के मुकद्दस मौके पर, अपने सभी मुस्लिम दोस्तों को दिली मुबारकबाद !


कहा जाता है कि आज के दिन, अपने किसी अजीज़ की कुर्बानी का रिवाज है। बाहर जो भी करें, या ना भी करें, मेरी आरजू है कि तलाश, इस बार अपने अन्दर से ही शुरू करें। कुर्बानी लायक कितने ही जनावर, आपको वहाँ छुपे-छुपे ऐश करते मिलेंगे। मिसाल के लिये, नफरत, बेइमानी, खुदगर्जी, जहालत, काहिली... वगैरह वगैरह।


आप कहेंगे, अजीज भी तो होना चाहिए ! तो साहब, मानें ना मानें, अच्छाई के मुकाबिल, बुराई हमेशा से ही, आसानी से, और अन्दर तक, घर बनाती आई है, और अजीज भी होती ही है, किसी की जाहिर, किसी की राज़ 😀। तो इस बार अन्दर से....


यह काम, गैर मुस्लिम भी कर सकते हैं। अन्धेरे से उजाले की तरफ जाना हो तो मजहबी महूरत क्या देखना।


और हाँ, यहाँ संग-साथ के चक्कर में ना पड़ जाना। इस रास्ते जाना ही काफी। अकेले हो तो भी, काफिला बनते देर लगती है ? 👍

Interactive Highlights 200721


नमस्कार 🙏,

आज मेड अवकाश पर है, वैक्सीन लगवाने गई है, तो धर्म पत्नी पर काम का बोझा, थोड़ा एक्सट्रा है।

दूध को आप से उबलने छोड़ दो, तो नियंत्रण बाह्य होते देर नहीं लगती, तो यह प्रक्रिया, अपनी निजी देखरेख में, सम्पादित कराने का अनुरोध हुआ है।

चुनांचे, दूध उबलते देख रहा हूँ, और सोच भी रहा हूँ कि उबलने से तात्पर्य है, एक निश्चित तापमान तक पहुँचना, आयतन बढ़ने लगता है जिसे सीमांत पर रोक देना। यही कर्तव्य है, धर्म है, योग्य है । कतिपय हानिकारक जीवाणुओं के शमन में, सहायक होता है।

फिर लगता है कि तापमान छूना भर पर्याप्त नहीं, इतने भर से जीवाणुओं का बाल भी बांका हो, कोई जरूरी नहीं। उस तापमान पर, जरूरत भर, रुकना, और जीवाणुओं का समूल नाश सुनिश्चित करना, आवश्यक होना चाहिए। कितना ? नो आइडिया !

अपने यहाँ, अनेक जीवन वैज्ञानिक भी होगें ही। कोई विद्वान प्रकाश डालना चाहें 😀

ये अपुन का स्टाइल है। पूछना है कि दूध कितनी देर उबालना चाहिये ?


1.

"हर चीज का एक बैलेंस होना बहुत आवश्यक है ज्यादा उबाल भी खतरनाक साबित हो सकता है और बिल्कुल शांत रहना भी खतरनाक साबित हो सकता है इसलिए किसी भी चीज को नष्ट करने के लिए जो कि आप को नुकसान पहुंचाती है थोड़ा उबाल भी जरूरी है बट उस उबाल पर कंट्रोल होना भी बहुत जरूरी है🙏🏻"

"आदर्श जवाब, सरकारी सा। छानने बैठो, तो उपयोगी ? उससे क्या ??"


2.

"जीव वैज्ञानिक जो भी कहें, सम्भवतः महामहिम की आपसे इतनी सी अपेक्षा है कि दूध में उबाल भी आये और भगोने की मर्यादा रेखा को पार भी न कर सके। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कुकिंग रेंज की knob  का प्रयोग निर्बाध रूप से किया जा सकता है।

वैधानिक चेतावनी-

न्यूटन या जेम्स वाट बनने के चक्कर में यदि दूध उबाल कर बाहर गिर गया तो महामहिम के मन का उबाल अत्यंत घातक होगा। 😊😛😛

जीवाणु संहार हेतु एक उबाल काफी है। 😌"

"यथार्थ ! वैसे जिज्ञासा, भावी संदर्भ हेतु, और दूध उबाल कर सुरक्षित रख देने के बाद ही प्रकट की गई थी 👍"

"😊😌"

"पिछले दिनों, जाते जाते कुकर की सीटियाँ, तीन तक गिनने के निर्देश मिले थे। मैंने तो अट्ठाइस तक गिनीं, फिर आनी ही बन्द हो गईं। इसके बाद भी नाराज़गी, अभी तक समझ नहीं आई 🤔"


3.

"उबालना खुदगर्ज़ वयवस्था है जो इंसान ने बनाई है । वरना दूध को तो कच्चा ही गृहण किया जा सकता है"

"केवल ताजा दूध, दीपक जी, तत्काल निकाला गया !"

"We want to hold or hoard, which nature want immediate use"

"Won't disagree. Natural is catering for immediate needs. We wish to insure future, too. That leads to hoarding, imbalance and many more complications, that we are paying so dearly for"


जरा सोचिए

 जरा सोचिए




यहाँ की आपा-धापी से पिण्ड छुड़ाकर, भागते दौड़ते, आप ऊपर, परम पिता के पास पहुँचें। बांहें फैलाये, गले लगा कर वो आपका स्वागत करें, और पूछ ही बैठें, 


"और, स्वर्ग में आनन्द तो आया न ?" 😀

खुशी की बात !



चन्द लम्हे खुशियों के, यानी क्षण आनन्द के, सुख के, बाबा के मोल। आजकल मिलते ही कहाँ हैं ? भाग्य की बात !


आपको जब मिलें तो जी भर के जीना, एक एक बूंद पी लेना, उत्सव मनाना। बार बार कहाँ ही होता है, मगर एक काम और भी करना, कारण भी खोजने का प्रयास करना। आसान नहीं है, मगर करना जरूर !


अगर सफल हुये, तो सौभाग्य, उपाय मिल गया। जब मन हो, इसी रास्ते चल देना। मगर कठिनाई भी है, एक तो ऐसे रास्ते स्थाई नहीं होते, अच्छे रास्तों पर, टूट-फूट कुछ ज्यादा ही जल्दी होती है। और फिर, रास्ते पर बार-बार आना जाना हो तो फिर वो नया कब रहता है, आदत होती जाती है और असर कम होता जाता है। एक दिन, बेकार !


वजह, अगर ना मिल पाये, तो निराश होने की नहीं, परम संतोष की बात है। परम सौभाग्य 👌। अगर सच में, अकारण है तो वह शाश्वत होगा। कारण ही नहीं, तो समाप्त क्या होगा, यह आपके साथ-साथ, हमेशा हमेशा रहने वाला है। आप पार हुए !


नैनं छिदंति शस्त्राणं, नैनं दहति पावकः ... 👍

रास्ते के मोती !





रास्ते से उठाया हुआ, मर्मस्पर्शी मोती !

"एक दिन एक बुजुर्ग डाकिये ने एक घर के दरवाजे पर दस्तक देते हुए कहा..."चिट्ठी ले लीजिये।"

आवाज़ सुनते ही तुरंत अंदर से एक लड़की की आवाज गूंजी..." अभी आ रही हूँ...ठहरो।"

लेकिन लगभग पांच मिनट तक जब कोई न आया तब डाकिये ने फिर कहा.."अरे भाई! कोई है क्या, अपनी चिट्ठी ले लो...मुझें औऱ बहुत जगह जाना है..मैं ज्यादा देर इंतज़ार नहीं कर सकता....।"

लड़की की फिर आवाज आई...," डाकिया चाचा , अगर आपको जल्दी है तो दरवाजे के नीचे से चिट्ठी अंदर डाल दीजिए,मैं आ रही हूँ कुछ देर औऱ लगेगा । 

"अब बूढ़े डाकिये ने झल्लाकर कहा,"नहीं, मैं खड़ा हूँ, रजिस्टर्ड चिट्ठी है, किसी का हस्ताक्षर भी चाहिये।"

तकरीबन दस मिनट बाद दरवाजा खुला।

 डाकिया इस देरी के लिए ख़ूब झल्लाया हुआ तो था ही,अब उस लड़की पर चिल्लाने ही वाला था लेकिन, दरवाजा खुलते ही वह चौंक गया औऱ उसकी आँखें खुली की खुली रह गई।उसका सारा गुस्सा पल भर में फुर्र हो गया।

उसके सामने एक नन्ही सी अपाहिज कन्या जिसके एक पैर नहीं थे, खड़ी थी। 

लडक़ी ने बेहद मासूमियत से डाकिये की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाया औऱ कहा...दो मेरी चिट्ठी...।

डाकिया चुपचाप डाक देकर और उसके हस्ताक्षर लेकर वहाँ से चला गया।

वो अपाहिज लड़की अक्सर अपने घर में अकेली ही रहती थी। उसकी माँ इस दुनिया में नहीं थी और पिता कहीं बाहर नौकरी के सिलसिले में आते जाते रहते थे।

उस लड़की की देखभाल के लिए एक कामवाली बाई सुबह शाम उसके साथ घर में रहती थी लेकिन परिस्थितिवश दिन के समय वह अपने घर में बिलकुल अकेली ही रहती थी।

समय निकलता गया।

 महीने, दो महीने में जब कभी उस लड़की के लिए कोई डाक आती, डाकिया एक आवाज देता और जब तक वह लड़की दरवाजे तक न आती तब तक इत्मीनान से डाकिया दरवाजे पर खड़ा रहता।

धीरे धीरे दिनों के बीच मेलजोल औऱ भावनात्मक लगाव बढ़ता गया।

 एक दिन उस लड़की ने बहुत ग़ौर से डाकिये को देखा तो उसने पाया कि डाकिये के पैर में जूते नहीं हैं।वह हमेशा नंगे पैर ही डाक देने आता था ।

बरसात का मौसम आया।

फ़िर एक दिन जब डाकिया डाक देकर चला गया, तब उस लड़की ने,जहां गीली मिट्टी में डाकिये के पाँव के निशान बने थे,उन पर काग़ज़ रख कर उन पाँवों का चित्र उतार लिया। 

अगले दिन उसने अपने यहाँ काम करने वाली बाई से उस नाप के जूते मंगवाकर घर में रख लिए ।

जब दीपावली आने वाली थी उससे पहले डाकिये ने मुहल्ले के सब लोगों से त्योहार पर बकसीस चाही ।

लेकिन छोटी लड़की के बारे में उसने सोचा कि बच्ची से क्या उपहार मांगना पर गली में आया हूँ तो उससे मिल ही लूँ।

साथ ही साथ डाकिया ये भी सोंचने लगा कि त्योहार के समय छोटी बच्ची से खाली हाथ मिलना ठीक नहीं रहेगा। बहुत सोच विचार कर उसने लड़की के लिए पाँच रुपए के चॉकलेट ले लिए।

उसके बाद उसने लड़की के घर का दरवाजा खटखटाया। 

अंदर से आवाज आई...." कौन?

" मैं हूं गुड़िया...तुम्हारा डाकिया चाचा ".. उत्तर मिला।

लड़की ने आकर दरवाजा खोला तो बूढ़े डाकिये ने उसे चॉकलेट थमा दी औऱ कहा.." ले बेटी अपने ग़रीब चाचा के तरफ़ से "....

लड़की बहुत खुश हो गई औऱ उसने कुछ देर डाकिये को वहीं इंतजार करने के लिए कहा..

उसके बाद उसने अपने घर के एक कमरे से एक बड़ा सा डब्बा लाया औऱ उसे डाकिये के हाथ में देते हुए कहा , " चाचा..मेरी तरफ से दीपावली पर आपको यह भेंट है।

डब्बा देखकर डाकिया बहुत आश्चर्य में पड़ गया।उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे।

कुछ देर सोचकर उसने कहा," तुम तो मेरे लिए बेटी के समान हो, तुमसे मैं कोई उपहार कैसे ले लूँ बिटिया रानी ? 

"लड़की ने उससे आग्रह किया कि " चाचा मेरी इस गिफ्ट के लिए मना मत करना, नहीं तो मैं उदास हो जाऊंगी " ।

"ठीक है , कहते हुए बूढ़े डाकिये ने पैकेट ले लिया औऱ बड़े प्रेम से लड़की के सिर पर अपना हाथ फेरा मानो उसको आशीर्वाद दे रहा हो ।

बालिका ने कहा, " चाचा इस पैकेट को अपने घर ले जाकर खोलना।

घर जाकर जब उस डाकिये ने पैकेट खोला तो वह आश्चर्यचकित रह गया, क्योंकि उसमें एक जोड़ी जूते थे। उसकी आँखें डबडबा गई ।

डाकिये को यक़ीन नहीं हो रहा था कि एक छोटी सी लड़की उसके लिए इतना फ़िक्रमंद हो सकती है।

अगले दिन डाकिया अपने डाकघर पहुंचा और उसने पोस्टमास्टर से फरियाद की कि उसका तबादला फ़ौरन दूसरे इलाक़े में कर दिया जाए। 

पोस्टमास्टर ने जब इसका कारण पूछा, तो डाकिये ने वे जूते टेबल पर रखते हुए सारी कहानी सुनाई और भीगी आँखों और रुंधे गले से कहा, " सर..आज के बाद मैं उस गली में नहीं जा सकूँगा। उस छोटी अपाहिज बच्ची ने मेरे नंगे पाँवों को तो जूते दे दिये पर मैं उसे पाँव कैसे दे पाऊँगा ?"

इतना कहकर डाकिया फूटफूट कर रोने लगा ।

.........

दोस्तों....संवेदनशीलता का यह एक बेहद मामूली सा दृष्टांत मात्र है। दूसरों के दुःख-दर्द को महसूस करना , उसे ख़ुद गंभीरता से अनुभव करना और उसके तकलीफ़ में शरीक होना ...यह एक ऐसा मानवीय गुण है जिसके बिना शायद मनुष्य अधूरा है। ऊपरवाले से प्रार्थना है कि वह हम सबको संवेदनशीलता रूपी बहुमूल्य आभूषण प्रदान करें ताकि हम दूसरों के तकलीफ़ों को कम करने में अपना सहयोग कर सकें।संकट की इस विकराल परिस्थिति में कोई ये नहीं समझे कि वह अकेला है,बल्कि उसे महसूस हो कि सारी मानवता व इंसानियत उसके साथ है।यकीन मानिए... सच्चाई औऱ अच्छाई की तलाश में भले ही आप पूरी दुनिया घूम लें...लेकिन अगर वो आपमें नहीं है तो फ़िर कहीं नहीं है। याद रखिए...

मानवता औऱ इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है। 

🙏

असाधारण और प्रेरक

GM friends !

Dr. Sharda Suman, has been in the news recently, for the most valid reasons.

I'm pleased, and proud to present, Dr. P K Das, not in person, but as a personality, so instrumental back stage, and as our family friend.

The relevant details were shared by Dr. Das, himself. I'm also sharing, words of appreciation, I extended.

The sole purpose, to spread the beauty, fragerance, so sweet, and inspiration of a noble deed.

Wow ! Great, Dr. 👌, done us all tremendous proud 👍. 🙏.

कुछ उपलब्धियाँ साधारण होती है, कुछ की कीमत होती है, और कुछ होती हैं, बेशकीमती !

बिरले ही कुछ सौभाग्य से उपलब्ध होतीं हैं, जिनकी कीमत लगाई ही नहीं जा सकती। इन्सानी जीवन की क्या कीमत, और उसे बचाने में, किसी की विशिष्ट भूमिका। 

जब भी याद आयेगी, गर्व होगा ही होगा। हमें ही होगा, फिर आप तो सूत्रधार हुये 🙏

रास्ते के मोती



तीन   पहर   तो   बीत   गये, बस  एक  पहर ही बाकी है।
जीवन हाथों से फिसल गया, बस  खाली  मुट्ठी  बाकी  है।

सब  कुछ पाया इस जीवन में, फिर   भी   इच्छाएं  बाकी  हैं
दुनिया  से  हमने   क्या  पाया, यह लेखा - जोखा बहुत हुआ,
इस  जग  ने हमसे क्या पाया, बस   ये   गणनाएं   बाकी  हैं।

इस भाग-दौड़  की  दुनिया में, हमको इक पल का होश नहीं,
वैसे   तो  जीवन  सुखमय  है, पर फिर भी क्यों संतोष नहीं !
क्या   यूं   ही  जीवन  बीतेगा, क्या  यूं  ही  सांसें बंद होंगी ?
औरों  की  पीड़ा  देख  समझ, कब अपनी आंखें नम होंगी ?
मन  के  अंतर  में  कहीं  छिपे, इस  प्रश्न  का  उत्तर बाकी है।

मेरी    खुशियां,   मेरे  सपने, 
मेरे     बच्चे,     मेरे    अपने, 
यह  करते - करते  शाम हुई,
इससे  पहले  तम  छा जाए, इससे  पहले  कि  शाम ढले, 
कुछ  दूर   परायी   बस्ती में, इक  दीप  जलाना बाकी है।
तीन   पहर   तो   बीत   गये, बस  एक पहर ही बाकी  है।
जीवन हाथों से फिसल गया, बस खाली  मुट्ठी  बाकी  है ।

सौजन्य से, 🙏

ऐंवे ही !


तू,उस दिन तो मेरा ख्याल, जरूर ही कर लेना।
जिस दिन, मेरी पात्रता, थोड़ी कम पड़ रही हो।

 

 
उसी दिन तो, मुझे तेरी जरूरत, सबसे ज्यादा होगी 😀


Close to my heart, today


जाहिल ! बेवकूफ, को ज्ञान ही नहीं था कि ये काम तो नामुमकिन है। क्या ही करें, अब तो उसने कर डाला !!

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हमारी कुक, आज दोपहर, खाना बनाकर जाते हुये फ्रिज से बर्फ निकालकर ले जा रही थी। रोजाना ही ऐसा करती है, उसका पति, नीचे सब्जी का ठेला लगाता है। ये बर्फ वह पीने के पानी में डालेगी, और दोनों साथ-साथ खाना खाते हुये, ठण्डा पानी पीने का सुख पायेंगे। यह सुख, किस भाव मिला, आपने नोट किया ?

अगर आपका मन होगा तो आप मूड बनायेंगे, तैयार होंगे, गाड़ी निकालेंगे और जायेंगे शायद, हजरतगंज, रायल कैफे, मोती महल, या फिर कोई माॅल, कोई शेक, स्मूथी या डेजर्ट, अच्छा खासा बिल, टिप ऊपर से। फिर भी उस तृप्ति तक पहुँच पाना, लगभग असम्भव। हो सकता है, जाते हुये ही आपस में बहस हो जाये कि कपड़े क्या डालें, चलें कहाँ, और करें क्या?
हाथ क्या आया, रकम कितनी साथ है के साथ-साथ, भाव पर भी डिपेन्ड करता है और खरीदारी के सलीके पर भी। कमाते होंगे आप ढेर सारा, मगर अमीर कौन ? सोच के देखिये

😀

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 05-07-2021

एक वार्ता देखने का अवसर हुआ, जावेद अख्तर के साथ । और केन्द्र वक्तव्य, "इस दुनियाँ में, आधे से ज्यादा घरेलू फसादों की जड़ में, मां-बच्चे के बीच का बेपनाह प्यार होता है । जिन्दगी बहुत बेहतर, और सुकून भरी हो जायेगी, अगर ये ऐसा, और इतना ना हो"
चौंकाने वाला, हैरानी भरा वक्तव्य ! जावेद आगे समझाते हैं, नई नवेली पत्नी की तुलना, घर-घर में मां से जरूर होती है, खाना... अच्छा तो बना है, मगर मां के हाथ की बात ही अलग है, आदि आदि। इन्सानी फितरत, कि जो रह गया, सारा ध्यान वहीं अटक के रह जाता है। उससे इतर, अगर कुछ बहुत सारा मिला हो, तो भी, नजर कहाँ ही चढ़ता है।
जायज़ नाजायज़, सास की तरफ, हमेशा ही झुका ये तराजू, हर बहू की जैसे नियति, पीढ़ी दर पीढ़ी, चलती चली आ रही है। गुणवत्ता पतन की, जो यह आभासी अनुभूति शाश्वत है, सही कैसे हो सकती है। और इसके मूल में है, मां-बच्चे के बीच का बेपनाह प्यार, और अटूट सम्बन्ध। जितना प्रगाढ़ होगा, पत्नी के आपके जीवन में आने का दरवाजा, पूरा खुलने ही नहीं देगा। और यही है सास-बहू के बीच, परस्पर मन मुटाव की सबसे आम वजह ।
चूक कहाँ हो रही है ? तुलना, आम और अमरूद की । प्रतिस्पर्धा की ना जगह है, ना औचित्य, ना अवसर। दोनों परस्पर विकल्प कहाँ हैं, अनुपूरक समझेंगे, तो जैसे दो दरवाजे खुल गये, अलग-अलग, मगर साथ-साथ, आवागमन में सुविधा हो गई, एक दूसरे के बाधक ना रहे। शायद टकराव का कारण ही ना रहा।
तुलना, और फिर प्रतिस्पर्धा, को आज की जिन्दगी में, अनायास ही, उचित से बहुत अधिक महत्व मिल गया है, जबकि प्रासंगिकता है ही कितनी। हर जीवन अलग है, हर फूल अनोखा है, मगर पागलपन ही है। प्रतिस्पर्धा परपीड़ापरक भी होती है । हर सूरत में, येन-केन-प्रकारेण, सबसे आगे होना ही है, और सब को ही होना है। बराबर की लाइन से तो, लम्बा होना ही है । उसे छोटा करना, अगर आसान हो तो, यही सही। कोई ताज्जुब, कि लाइनें, सारी की सारी, मिटने के कगार पर खड़ी हैं । जो बची हैं, उनका होना भी कोई होना है।
मैं तो कहता हूँ, इतना ही जरूरी है अगर, बराबर में लाइन चाहिए ही चाहिए अगर, तो अपनी ही, गुजरे कल वाली लाइन को ले लो ना। उससे बड़ा होकर निकलो। छोटा करना पड़े, मिटाना भी पड़े, तो कोई नहीं।
ये विन-विन सिनारियो है, नुकसान का चक्कर ही नहीं 🙏
Dhirendra Singh, Bhola Shankar and 7 others
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