# 59 एक दिन - ख़ासमख़ास !


It's a special day today. It's the auspicious day of Goberdhan pujan, pratipada, the first day of native financial year, and it's Deeksha's day, her BIRTHDAY 👆

Deeksha bolen to, our fourth kid, an add-on, later in life. I won't call her different, may be promptly mis-interpreted. So I call her special. Born, brought up, and evolved in a set up, alien to us. An experience, so well-worth waiting. 

They say, liking something, in someone is light-weight, easy and pleasant. Disliking is not. One should wait, try to know, understand more and get really sure, before announcing the negative verdict. 

My perception is, Deeksha is cute, charming, jovial, caring, knowledgeable, hard-working, energetic, enthusiastic, confidence packed, a meticulous planner, an apt manager and a determined acomplisher. She won't let you, escape easy.

A qualified IT engineer, temperamental manager, and a foodie by aptitude, knows well, how to create and how to express. Seen 'Live.Eat.Travel' ? Delicacy, that melts as touched, but spreads to each nook and corner of you, in no time. Love it, or hate it, but can't ignore it type. Not sure of anything, to add otherwise. 

A lucky, priceless package, that we are so pleased, fortunate to have. A day of rejoice, celebrations, indeed. 

We wish Deeksha "a very happy birthday !", indeed, and we mean it. 

So May you have wonderful... wonderful days ahead. May all your dreams, the sensible ones, come true. May you keep smiling, always. May the God keep you blessed, as we do now ✋

Enjoy !


#58 सफरनामा !

आजकल फ्लाइट, और आरक्षित एसी से सफर करने वाले लोग भले आसानी से न समझ पायें, कि कभी हमने ही ट्रेन की साधारण बोगी में भी सफर किया है। और खूब किया है, ये कभी-कभार की बात नहीं। कभी कभी तो डिब्बे में घुस पाना ही दूभर होता था, हाथ में दरवाजे का हैण्डिल, और आधा-अधूरा पैर पायदान पर टिका हुआ, और ट्रेन चल पड़ती थी।

एक बार चल पड़ी तो लोग सैटल होते थे, जगहें बनतीं थीं। पहले दरवाजे से अन्दर होने की, और फिर खिसकते हुये गैलरी में आगे बढ़ पाने की। हम सीट पर बैठे लोगों को हसरत भरी नजरों से, और सीटों पर काबिज लोग हमें, आधी तरस, और आधी चिन्ता भरी नजरों से, देखते थे कि आ गये। देर सबेर, एडजस्ट इन्हें भी करना ही पड़ेगा।

वो तलाश, सीट पर टिकने लायक एक कोने की, और सीट पर काबिज बन्दे की उसे कवर किये रहने की, मगर कब तक ? कामयाबी, अन्ततः मिलती ही थी। अगली कवायद, कब्जा मजबूत करने की, और फैलाने की। अगर कोई सवारी उतर जाये तो मुश्किल, एकाएक आसान हो जाती थी, और अगली कोशिश शुरू हो जाती थी, खिड़की वाली सीट तक पहुँचने की।

रफ्ता-रफ्ता खिड़की तक पहुँचना, सामान मनमर्जी सेट करना, और फिर फैल-फूट कर बैठना। सब हो ही जाता था और तब, आप खुद को डिब्बे का बादशाह समझ सकते थे। खिड़की से सबसे अच्छा नजारा, आपको ही दिखता था। खिड़की बन्द रखनी है, या खुली, और कितनी, फैसला आप ही का। नये मुसाफिरों में से किसको, और कितनी जगह देनी है ? और कब ? देनी भी है ? यह सब भी आप पर।

और फिर, वो स्टेशन भी आ जाता है, जहाँ आपको उतरना है । बैठने की जगह, भले कितने मुश्किल हासिल हुई हो, कितना इन्तजार, टुकड़े टुकड़े हासिल राहत। मगर, अब घेरे रखने का कोई कारण नहीं, ना औचित्य, ना सार्थ। और इसके लिये मुसाफ़िरों से, जिन्हें आगे जाना है, गुत्थमगुत्था होने की क्या ही तुक। यादें समेटिये, और उतर जाइये। सफर का यही मतलब है !

अपने हम-उम्र दोस्तों के लिये, इस किस्से में, एक निहितार्थ भी है। यह कहानी, अपने जीवन की ही तो नहीं। दफ्तर के बाॅस हों, या घर की मालकिन, स्टेशन आ गया तो सीट का मोह त्यागिये और घर जाने को सज्ज होइये, यही योग्य !

आपका दिन शुभ हो।

# 57 Out of the blue



जो त्याज्य है, उसे संजोने की कोशिश शुभ नहीं, सार्थक भी नहीं, और उसके पीछे जीवन नर्क कर लेना ? निरा पागलपन।

कभी पेड़ों को देखियेगा, मौसम-ए-पतझड़ में। पत्तों का गिरना, अन्त ही नहीं, नई शुरुआत भी होती है !

Happy Engineer's day ! (belated)

I was penning it for 15th. The ‘Engineer’s day’, so it’s a delayed delivery, in fact.

But, why are we called 'Engineers'? 

Is it from 'Engine'? Steam engines were made only in the 19th century, whereas, engineering as a profession, came in to existence  centuries before. 

The word 'Engineer' has nothing to do with the word engine. ‘Engineer’ did not originate in engine. The word engineer originated from 'ingenium' which is a Latin word, meaning ingenious, meaning someone, who solves problems that elude normal persons. 

From 'ingenium' came 'ingenieur'  ( which is the French word for engineer even now) and from it came the English word Engineer. 

So, an engineer is not just a warehouse of technical information, stocked in mind, and in hand, during his association with some formal institute. Temperament is of paramount importance. 

Relevant education reinforces the asset, polishes it. A career provides you avenues to practice, attempt converting, hypothetical ideas into real manifestations on the ground. Stocking back, and refine, and dedicate it to the final beneficiary, the common man of the society.

Engineering is not just an education, or training. It's a carefully nurtured mindset. A mindset, that's a keen observer, sharp analyst, ingenious solution seeker, persistent translator of ideas into real solutions, meticulous planner, persistent executioner to finish them to as close to perfection as possible. 

That's an Engineer. With, or without, a formal degree. You may find a brilliant one, in a common mason, or carpenter alike and fail to find one, even in a gold medalist degree holder. No wonder, about one third of my institute-mates, have ventured into non engineering fields, and have delivered exceptionally well. 

The application may vary, the brilliance stays. 

Happy Engineers day !

जय श्री कृष्ण !

*क्या है कृष्ण होने के मायने ?*

♦️पहली गाली पर 'सर काटने' की शक्ति होने बाद भी; यदि 99 और गाली सुनने का 'सामर्थ्य' है, तो वो कृष्ण है।
♦️'सुदर्शन' जैसा शस्त्र होने के बाद भी; यदि हाथ में हमेशा 'मुरली' है, तो वो कृष्ण है।
♦️'द्वारिका' का वैभव होने के बाद भी; यदि 'सुदामा" मित्र है, तो वो कृष्ण है।
♦️'मृत्यु' के फन पर मौजूद होने पर भी; यदि 'नृत्य' है तो, वो कृष्ण है।
♦️'सर्वसामर्थ्य' होने पर भी; यदि 'सारथी' है, तो वो कृष्ण है।

🚩 *जय श्रीकृष्ण* 🚩

- आभार डा. गंगोटिया के !

It's my Birthday Today !


 आज, मैं 64 का हो गया।

वैसे कभी 14 का भी था। जन्म चांदी नहीं, पीतल की ही चम्मच के साथ हुआ था, मगर चम्मच थी साफ सुथरी, और मजबूत। अभाव कोई नहीं, मगर पैसे की कीमत पता रहती थी।

अपना खुद का, जीवन देखूँ तो, भगवान का आशीर्वाद, खुल कर बरसा है। यूँ अपार जैसा तो कुछ भी नहीं, मगर कोई अरमान अधूरा रहा हो, ऐसा भी नहीं। और आसानी से मिला हो, ऐसा भी नहीं। अच्छा ही है, इससे कीमत बनी रहती है। गलतियाँ न हुई हों, ऐसी आशा, ऐसा दावा मैं नहीं करता। मगर गलतियों के डर से, कोशिशों को रुकने, थमने मैंने कभी नहीं दिया। कभी सफलता मिली, तो कभी सीख़।

सीखा है कि जीवन में, हासिल करना ही सब कुछ नहीं, कभी कभार छोड़ने से भी मंगल होता है। और अशुभ हो फिर तो, शुभति शीघ्रम। यादें, आनंद साथ लातीं हों तो ही संजोना ठीक । जो आपके हाथ में था नहीं, और जैसा भी था, बीत ही गया तो बार-बार याद भी क्या ही करना ? बात केवल, दर्द को भुलाने की है। 

माफ़ कीजिए और भूल जाइये, मगर सबक याद रखिये, कीमती होता है। सौन्दर्य नैसर्गिक ही सच, और इसमें योगदान, आपके आचरण, आपकी मनोवृत्ति का भी निश्चित होता है। और मन अच्छा और मजबूत ना रह पाये तो शारीरिक स्वास्थ्य तो भूल ही जायें। कार की रफ्तार ही नहीं, नियंत्रण और ठहराव भी कीमती होता है।

अभी हाल ही में, शहीद पथ पर जाते हुये, एक पुराने से ट्रक को चलते देखा। चढ़ाई विशेष नहीं, मगर दम फूल रहा था, उसका । घिसे टायर, माल ढोते-ढोते चक्कर बहुत लगाये होंगे, बदरंग सी बाॅडी, डगमगाती स्टीयरिंग और धीमे-धीमे लगते, आधे-अधूरे ब्रेक। साथ-साथ चलता, अधीर होता ट्रैफ़िक, हाॅर्न पर हाॅर्न, लगा जैसे ट्रक का योगदान, अब ना आवश्यक रहा, ना प्रासंगिक । हालत जानी पहचानी सी लगी ।

अब शहीद पथ से बचता हूँ, भीड़ में आपकी सहज रफ्तार, किसी के लिये, अनायास ही बाधा, और प्रतिकूल बन जाया करती है । कोई सुनसान सा, वीरान सा रास्ता, ट्रैफिक कम हो, संगीत पसंदीदा हो, यादें खुशनुमा हों और सफर, सहज सा, कोई मंजिल हो तो अच्छा, ना हो तो और भी अच्छा । मन इसी में रमता है, आज-कल । रात के बूढ़े दिये, जो ठहरे। 

जिन जिन सुधिजनों ने अपना-अपना स्नेह और शुभकामनायें आज बरसाईं, सब का दिल से आभार ! आभार उनका भी, जो शुभेच्छु तो थे, पर बता ना सके, कारण जो भी रहा हो। आपको परमपिता का आशीर्वाद प्राप्त हो, आप सभी का मंगल हो।

बर्थ डे मना कैसे ? ये बतायेंगे फिर कभी !

#56 साधन-सुविधा, आराम और ऐशो-आराम !


आज बात, इन तीनों की, जैसा मैं समझ पाया हूँ । 

साधन-सुविधा, यानी जीवन की मूलभूत, अनिवार्य, जरूरतें, जिन्हें पूरा करना, किसी भी शासन व्यवस्था का आवश्यक दायित्व होता है। गरीब की सूखी रोटी, पेट भर जाये तो, धर्म निभ गया। जो मिलता है, जरूरत से कदम-दो कदम, पीछे ही चलता है, और साथ चलने की कोशिश में, लगातार। कभी मक्खन का तड़का, तो समझो त्यौहार हो गया। खाने में स्वाद, और चाव, सबसे ज्यादा इन्हीं लोगों को आता है, और पात्रता इनकी, नैसर्गिक होती है, कमा पायें, या ना कमा पायें।

श्रेणी दो, आराम की, कर्मयोगियों की, रोटी के लाले, इन्हें नहीं पड़ते। हक से मिलती हैं, नियमित और भरपेट। आराम भी, कमाने जैसी चीज़ है, काम की समानुपाती। काम करते-करते, थक के चूर हुये तो आराम का सुख, स्वर्ग से उन्नीस भी नहीं होता। रोटी भी रोज होती है, और प्रायः उस पर मक्खन भी लगता है, कभी कम, कभी ज्यादा। अपने साथ-साथ, अन्य दो वर्गों का पोषण भी, इन्हीं के कन्धों पर होता है । मध्यम वर्ग भी पुकारा जाता है, इन्हें। इनके त्यौहार, घी में तली पूड़ियों, पराठों और व्यंजनों से मनाये जाते हैं। ऐश्वर्य की दहलीज़ पर ! 

और अन्ततः ऐशो-आराम। वैसे तो लोग, मध्यम वर्ग से दहलीज पार कर भी यहाँ आते है, पर प्रायः जन्म यहीं लेते हैं। सब कुछ, सजा सजाया उपलब्ध होता है, काम करना, आवश्यक रूप से, आवश्यक नहीं होता। प्रचुर साधन, सतत उपलब्ध रहते हैं और पेट रहता है भरा-भरा। भूख लगती नहीं तो, स्वाद भी नहीं आता, भले छप्पन तरकारी और छत्तीस अचार सजे हों। त्यौहार की व्यवस्था, हमेशा रहती है, पकवान रोजाना ही बना करते है। और जो रोजाना हो, वह त्यौहार कैसा ? साधन भरपूर, पर सुख, किसी किसी को ही नसीब होता है। जैसे विष-कन्याओं से ब्याह दिये गये हों, सदा अतृप्त। भाग्यवान नजर आते हैं, मगर कोई-कोई इतना अभागा, कि मिसाल ढूँढे ना मिले।

अगली श्रेणी में जाना, उपलब्धि माना जाता है, जीवन का लक्ष्य भी। मगर मुझे लगता है, कर्म योग के चरम तक पहुँचना ही ठीक, ऐश्वर्य के दरवाजे तक। ऐसे पार किया कि परिश्रम दरवाजे पर, पीछे ही रह गया और प्रयासों पर निर्भरता जाती रही। इस कथित उपलब्धि की कीमत, इतनी ज्यादा होगी, कि जीवन बीत जायेगा, चुका ना पाओगे। 

पता  नहीं, आप मेरी बात से राजी हो भी पायेंगे, या नहीं ?

#54 मोती रास्ते के, और मौके के... दस्तूर जो है

 



बोझ उठाये हुये फिरती है हमारा अब तक, 

ए जमीं मां, तेरी ये उमर आराम की थी।


फिर दयारे हिंद को, आबाद करने के लिये, 

झूम कर उठो, वतन आजाद करने के लिये


दिल से निकलेगी, ना मर कर भी, वतन की उल्फत, 

मेरी मिट्टी से भी, खुशबू ए वफा आयेगी।


वतन की खाक से मर कर भी हम को अंस बाकी है, 

मजा दामन ए मदार का है, इस मिट्टी के दामन में ।


वतन की ख़ाक, जरा एड़ियॉं रगड़ने दे, 

मुझे यकीन है, पानी यहीं से निकलेगा।


खुदा ए काश नाजिश, जीते जी वो वक्त भी आये, कि जब,

हिन्दोस्तान कहलायेगा, हिन्दोस्तां ए आजादी।


लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है, 

उछल रहा है, जमाने मैं नाम ए आजादी ।


खून शहीदां ए वतन का, रंग लाकर ही रहा, 

आज ये जन्नत निंशा, हिन्दुस्तां आजाद है।


ए वतन जब भी, सर ए दश्त कोई फूल खिला, 

देख कर तेरे शहीदों की निशानी रोया।


हम भी तेरे बेटे हैं, जरा देख हमें भी, 

ए खाक ए वतन, तुझसे शिकायत, नहीं करते।


ए ख़ाक ए वतन, अब तो वफाओं का सिला दे दे, 

मैं टूटी सांसों की फसीलों पे खड़ा हूं।

स्वतन्त्रता दिवस पूर्व संध्या, 14 अगस्त 2021 !







#53 रास्ते के मोती ! (2)

Happy to credit my friend, A K Agrawal, and through him, Karim Elsheikh, for this beautifully precious input.




“I am rich, fit, and have mastered almost everything, I wanted to. Why am I, still not happy and still not satisfied ?” - posted in Quora by Anonymous 

Answer by Karim Elsheikh : 

“Human happiness (as we know it) is caused by 4 basic chemicals:

- Dopamine

- Endorphins

- Serotonin

- Oxytocin

# On your journey to become rich, you probably completed many tasks and goals.

You probably bought all the things you’ve ever wanted. Nice cars, beautiful clothes, and a perfect home. This released dopamine in your brain when you achieved your goals and bought these things, which once again contributed to your happiness - temporarily.

# On your journey to become fit, your body released endorphins to cope with the pain of physical exercise. You probably began to enjoy exercise as you got into it, and the endorphins made you happy - temporarily.

So what about the other two chemicals?

It turns out that human happiness is incomplete without all 4 chemicals constantly being released in the brain. So now you need to work on releasing serotonin and oxytocin.

“How do I do that, Karim?”

# Serotonin is released when we act in a way that benefits others. When we give to causes beyond ourselves and our own benefit. When we connect with people on a deep, human level.

Writing this Quora answer is releasing serotonin in my brain right now because I’m using my precious time on the weekend to give back to others for free. Hopefully I’m providing useful information that can help other people, like yourself.

That’s why you often see billionaires turning to charity when they have already bought everything they wanted to, and experienced everything they wanted to in life. They’ve had enough dopamine from material pleasures, now they need the serotonin.

# Oxytocin on the other hand, is released when we become close to another human being. When we hug a friend, or shake someone’s hand, oxytocin is released in varying amounts.

Oxytocin is easy to release. It’s all about becoming more social !

Share your wealth with your friends and family to create amazing experiences. Laugh, love, cooperate, and play with others.

That’s it my friend!

I think it all comes down to the likelihood that you are missing two things: contribution and social connection”

(I think it’s brilliant, and I am also getting my dose of Serotonin... and Oxytocin 😊)



PS: ... & immediate credits for the infographics, to Nusra, my DIL ( Daughter-in-law)

#52 गौरव - बूढ़ा होने का, निर्भर होने का


इस बार, भरपूर समय बच्चों के साथ बिताने का अवसर हो रहा है, मीठी-खट्टी-चटपटी और स्वादहीन, मगर पौष्टिक और स्वास्थ्यप्रद, हर तरह के अनुभव। मैंने देखा कि बच्चे, भले कितने ही नाफरमान दिखते हों, अन्दर ही अन्दर, बेटा अपने बाप, और बेटी अपनी माँ जैसी ही बनने की जुगत में लगी रहती है। अवचेतन में भी। बाहर-बाहर, कभी कभार झुंझलाहट के बावजूद, स्वीकार्यता की अन्तिम और परम कसौटी।


बच्चे, ठीक-ठाक समय साथ रहें तो मां-बाप, अगर भाग्यवान हुये तो, बूढ़े होने लगते हैं। बोलें तो, अवसर ही नहीं मिलता, तो अभ्यास छूट जाता है। कुछ कर पाने की सामर्थ्य, गिरने लगती है, और निर्भरता बढ़ने लगती है। यह उदासी की नहीं, खुश होने की, गर्व करने की बात है। यह दिन, हर किसी को उपलब्ध नहीं होता। किसी-किसी की तो उम्र निकल जाती है, इन्तजार में। जिन्दगी की जरूरी जिम्मेदारियाँ उठाने को, कन्धा तो चाहिए ही। हर किसी को कहाँ होता है कि कन्धा भी हो, और सामर्थ्य भी, बोध भी हो, मन भी , और संकल्प भी।


बुजुर्ग, बूढ़े भी हो सकें, सामाजिक कर्तव्य बोध, और दायित्व से गौरवपूर्ण मुक्ति पा सकें, उस उपाय की डोर का एक सिरा, उनके हाथ भी होता है। जिसे छोड़ना अनिवार्य होता है। कभी देखा है, गुब्बारे का धागा छोड़े बिना, वह आसमान पहुँच पाया हो ?

#51 मर्द के दर्द !


"मर्द को...  दर्द नहीं होता !"

यह एलान, यकीनन खिलाफ पार्टी ने, किसी अक्कल के दुश्मन को, झाड़ पे चढ़ा के, और साजिशन दिलवाया होगा। अब जिस्म एक सा है तो दर्द भी तो, एक सा ही होगा, मगर तरकीब देखिये कि हँसते हँसते, कुर्बानी कब हो गई, खुद कुर्बान होने वाले को हवा नहीं होती।

गम्भीरता से देखें तो दर्द की अनुभूति, और अनुभूति की अभिव्यक्ति, दोनों अलग-अलग बातें हैं, और अगर फोकस खिसक जाये तो, हो जाता है। कौन राजा थे ? उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में, कितना बड़ी चीर-फाड़, बिना किसी एनेस्थीसिया, गायत्री मंत्र जपते-जपते, करा गये। राणा सांगा ? कितने घाव, मगर जूझते रहे । 

अपने पहलवान ? इसी ओलंपिक, भले प्रतिद्वन्दी बांह से मांस नोंच ले जाये, लड़ना नहीं छोड़ते, और जीतकर दिखाते हैं। सीमा पर डटे, अपने जवान, गोली खाकर भी लक्ष्य प्राप्ति की कोशिश, कभी  छोड़ते नहीं हैं। नहीं साहब, दर्द तो बराबर से होता है, मगर कर्तव्य बोध, और लक्ष्य भेदन की जुनूनी, जुझारू, समर्पित कोशिश, दर्द  को बौना कर देती है।

चेहरे पर शिकन ना होना, दर्द ना होने का नहीं, समर्पण और बर्दाश्त का माद्दा, दर्द से बड़ा होने की खबर देता है। लोग चुप्पी से समझ लेते हैं कि मर्द को दर्द होता ही नहीं। इससे बड़ी नासमझी, और क्रूरता और क्या होगी। और यह बात केवल पुरुषों की ही नहीं, सभी की है, नारियों की भी, जमाने का सबसे बड़ा दर्द तो मां ही, अनन्त काल से धारण करती और सहती आई है। बात संवेदना, और त्याग के सम्मान की है।

कोई मोहतरमा, किसी अस्पताल में दाँत निकलवाने की फीस पर मोल-भाव कर रही थीं, फीस करने के लिए। उन्होंने एनेस्थीसिया भी बेहिचक हटवा दिया तो, डाक्टर को भी झुकना ही पड़ा। चेयर पर बैठने को कहा तो बोलीं, दाँत मेरा नहीं, पति का निकलना है, बाहर ही बैठे हैं, अभी बुलाती हूँ। 

मजाक से आगे, बात संवेदना की है। दर्द की अनुभूति की है, उससे खुद ना भी गुजरना हो, तो भी । यह बात समझने की है कि दर्द, मर्द को भी होता है, और आह पर पहरे, हर तरफ से, कौन से जमाने से। स्वार्थी निष्कर्ष, दर्द होता ही नहीं। बात ही खत्म। 

जानिये जनाब, ऐसा बिल्कुल नहीं है। आप जानते हैं ना, कि मर्द जल्दी खर्च हो रहे हैं, दिल के दौरे, मर्दों को ज्यादा पड़ते हैं। दर्द पहचानिए भी, अनुभव और कारण अलग-अलग हो सकते हैं, होंगे ही, मर्द जो है। किसी किसी दर्द को जानने को, खास कोशिश करनी पड़ सकती है, चुप्पी पढ़ना भी सीखना पड़ेगा।

और मर्द महोदय, आप ! अरे, दर्द के रास्ते से थोड़ा सा दायें-बायें हो जायें, डायरेक्ट हिट ना हों, या ना हो पायें तो जरा मरा रो गा लें, जज़्बात बाहर आ जायें तो हमदर्दी मिले, ना मिले, राहत जरूर मिलती है, ऐसा साइंसदां कहते हैं, मगर पहले मान लें कि दर्द आपको भी होता है, स्वाभाविक है, कुदरती है, शरम की बात कोनी  !

वैसे, कमाल के खालिस हिम्मती लोग, आधे हिम्मती और आधे समझदार और खालिस समझदार, सारे अपनी अपनी जगह सही हैं, और ये मेरी अपनी बात है। 

आपकी ? आप जानें, आप की अन्तरात्मा की, वो जाने, आज पूछना जरूर 👍

#50 परमात्मा और आप !

अगर गंतव्य से ज्यादा महत्व, रास्ते को मिल रहा हो तो, भटकना तो हो चुका। 

यही कारण, कि कोई भगवान के दरवाजे पहुँच कर भी, खाली हाथ लौटता है, और कोई रहता वहीं है, उसी के, निरन्तर सान्निध्य में। 

ऐसे प्रज्ञावान को, घर से कहीं जाना नहीं होता। सोचा, और हो गया... तत्क्षण !

अगर रास्ता ही मंजिल हो, तो अलग बात 😀

#49 शेयर के भाव, जिन्दगी के बाजार !



जिन्दगी के बाजार में, दो सिद्धांतों पर मुझे तो कोई संशय नहीं, दोनों ही महत्वपूर्ण और आधारभूत। एक, कोई चीज मुफ्त नहीं मिलती, और जबरन हथिया भी ली जाय तो ना शुभ होती है, ना हितकर । और दो, अगर गांठ में हो पूंजी भरपूर,  तो कुछ भी तो नहीं दूर !

कीमत की बात करें, तो उपलब्धि की कीमत, यानी उसके लिए किये गये प्रयास। जितना परिश्रम, जितना धैर्य, जितना समर्पण, फल में मिठास और पौष्टिकता, उतना ही समझना। जो मुफ्त हासिल हो, जुगत से, या विरासत में, अपने-आप, फिर वो खालिस सोने की ही क्यों ना हो, उपयोगी और सुखदायिनी, हो नहीं सकती ।

यह बात, बच्चों को बचपन से ही सिखाने जैसी है, होता यही है, होना चाहिए भी। कुदरत के इस कायदे की अनदेखी  घातक भी हो सकती है। मां-बाप, बड़े-बुजूर्गों के लाड़-प्यार की कीमत तो, शिशु भी चुकाते हैं, अपनी भोली, बाल सुलभ, मनमोहक लीलाओं से। थोड़े बड़े हुये तो जीवन मूल्यों को सीखने के लिये, अपने समर्पित, ईमानदार, निष्ठा और परिश्रम से परिपूर्ण, अनवरत प्रयासों सै। 

और जब खुद, बच्चे वाले होने लायक हो गये, तो कृतज्ञ भाव की निरंतर अभिव्यक्ति, और पालकों की  इच्छाओं-अपेक्षाओं के यथा सम्भव, आदर अनुपालन के ईमानदार प्रयासों के से । जिस बुजुर्ग ने ये बेशकीमती और असरदार नेमत, लापरवाही में, या नासमझी में, नाहक लुटा दी। अपने लाड़ले को, कमाना और फिर खाना, सिखाया ही नहीं, तो जैसे जिन्दगी भर, उसे इन्तजार के लिए मजबूर कर दिया कि कोई तरस खाये, और उसकी झोली कुछ तो डाल दे, या तो मौका मिले छीन-झपट का। 

पुरुषार्थ से तो जान पहचान ही नहीं हुई, फिर और करे भी तो क्या, और कैसे ? अपने ही हाथों, बर्बाद कर दिया, बेशक ! राहत की बात कि, कि वापस लौटने की, और हुई गलती ठीक करने की, कोशिश कभी समय बाह्य नहीं होती। यह सवेरा, जागते ही होता है, तुरन्त ! एक बात और, आदर सम्मान की कीमत, अपने मर्यादित और उदाहरणीय आचरण से, बड़े बुजुर्गों द्वारा चुकाया जाना भी उतना ही उचित है, और आवश्यक भी 😀

उदाहरण तो और भी हैं, और रोचक, मगर और कभी। बात खरीदारी की करें तो, पूंजी पर ध्यान जाता है, गांठ पूरी होनी ही चाहिये । इसकी मुद्रा को व्यापक नजरिये से देखें तो, आपका आत्मविश्वास, आपके संकल्प की मजबूती, आपका परिश्रम, अनथक और निरन्तर प्रयास, सब कुछ शामिल होता है इसमें, और धैर्य भी।

कीमत चुका चुकने के बाद भी सफल होते ना दिखें तो, उसका एक ही मतलब, पानी गर्म तो हो रहा है, मगर सौ डिग्री पहुँचने, और पकने तक, टिके रहने में, अभी समय बाकी है। समय को कुछ समय और दें, घटना घटना तो इतना ही निश्चित है, जितना कि सुबह-सुबह सूरज का निकलना।

कहते हैं, कोशिश अपनी जगह, मिलता उतना ही है जितना किस्मत में होता है, और मैं कहता हूँ  कि उद्यम असीम और जीवट लवालब हो तो खुद किस्मत ही बदल जाये, कौन जाने, क्या पता ? 👍

#48 Memoirs



And this happened, in the last week of May, this year. Corona at it's peak. This story was narrated to kids, meaning thereby, "Mummy" means their mummy, my BETTER half 😀

"कहानी कुछ ऐसी है कि एक एक दिन भारी हो रहा था, बाल थे कि बढ़ते ही जा रहे थे और बर्दाश्त चुक गई थी, मगर, बच्चों की बन्दिशें। एक हफ्ते पहले भी मम्मी से कोशिश हुई थी, तब बात बन नहीं पाई थी ।

आज सुबह, लगा चान्स है तो फिर से कोशिश हुई, तैयारी हुई। लगा, ट्रिमर, और कन्घी से काम चल जायेगा, मगर मम्मी से हुआ नहीं। सामने से थोड़ा कर के दिखाया, फिर भी नहीं । दुकान उठा दी गई। 

मुसीबत, यह हुई कि डीमो कुछ ज्यादा ही गहरे निशान छोड़ गया था, और बाल कराना हो गई थी, मजबूरी। हेयर कटिंग सैलून बन्द निकला, और मम्मी के अलावा कोई रास्ता बचा नहीं।

फिर से दुकान सजी, कितनी हौसला अफजाई , तरह तरह की कन्घियां ट्राई हुई, अलग अलग एन्गिल, बदल बदल के पोजीशन, काटने वाले की भी, और कटने वाले की भी।

बाल काटने में, इतनी इन्जीनियरिंग लगती है, कभी सोचा नहीं था, और कहीं इतना सूखा भी हो सकता है, इसका अन्दाजा भी नहीं था। बड़ा मुश्किल है ये सवाल, कि पसीना पसीना कौन ज्यादा हुआ। जब ट्रिमर काम आ चुका, तो फिर कैंची, तब कहीं जाके ये फिनिश मिली।

मगर मेहनत बहुत हुई, जी जान लगा के, उसकी तो कद्र करनी ही पड़ेगी। और फिनिश जैसी भी हुई, परिस्थिति भी तो देखनी पड़ेगी। पुण्ढीरों में काटने का रिवाज, थोड़े ही है।

हम तो ज़िन्दगी भर के एहसानमंद हो गये। सोचो, अगर इतनी रिकवरी ना होती, तो किसी को मुँह दिखा पाते ? 😀"

#47 समस्या और समाधान, मगर कैसा ?




एक गांव की कहानी है, दो कुंए थे, एक समर्थों के पास, अहाते के अन्दर, केवल विशेष के लिये, और दूसरा, थोड़ा कम समर्थों के पास, बाहर, खुले में, जो सभी को सुलभ और उपलब्ध। 

हुआ ऐसा कि, सार्वजनिक कुंए का पानी दूषित हो गया, ऐसा कि लोग पीते तो पागल हो जाते। लोग भागे भागे समर्थों के पास गये, इस विनती के साथ, कि उन्हें भी साफ पानी लेने दिया जाय। समर्थों के पास, पता नहीं पानी कम पड़ा, या दिल में जगह, बहुमत को साफ पानी मिल नहीं पाया। पानी जैसी चीज, सबको दूषित ही पीना पड़ा और सब पागल भी हो गये।

समस्या समर्थों के सामने भी, साथ ही, आ खड़ी हुई। अहाते से बाहर, उठना बैठना, लेन-देन, काम-काज, रोज मर्रा का इन्तजाम, सब तो बाहर वालों के सहारे ही चलता आया था, मगर अब तो सब पागल हो चुके थे, सुनना समझना दूभर । जीवन लगभग असंभव हो गया।

भागे-भागे, गाँव के सयाने के पास गये। सुनकर पहले तो बहुत हंसा, और फिर उपाय बताया, "अब सोचने विचारने का समय जाता रहा। कोई विकल्प नहीं, एक ही रास्ता। दौड़ते हुये जाना बाहर के कुंए, और फौरन वही पानी, तुम भी पी लेना। फिर समस्या न रहेगी।

प्रज्ञा जाती है तो समस्या साथ ले जाती है, एक रास्ता ये भी ?


#46 मौन की भाषा


सोचता हूँ, आज मौन रह कर बात करूँ, निःशब्द ! 

देखें, समझना छोड़, सुन कौन-कौन पाता है। हर किसी के बस की बात नहीं, छटे तल जाना पड़ता है। और, फिर सब बरसने लगता है, बिना लाग-लपेट। अनछुआ, ना श्र॔गार, ना जुगाड़, ना दुराव-छिपाव। 

अभिव्यक्ति का सर्वोत्कृष्ट रूप। चीखें भले दो-चार मंजिल ऊपर तक पहुँचती हों, मौन बुदबुदाहट, सहज ही सात आसमान पार जाती है। 

भगवान से वार्तालाप, इसी भाषा में हो पाता है 🙏

#45 Exercise - the purpose refreshed up



A friend of mine, so dear, so respectable, actively propagating 'heartfulness' in this region, asked me yesterday:

"Sir, I have read your few heart touching stories, they are welcome, but what is the sole purpose of your blog ?🙏"


And thus I replied:

"Nothing ! स्वान्तः सुखाय !! If anybody happens to be benefited, It's bonus, and my ultimate fortune 😀.

... BTW, Nothing is more difficult than finding nothing. It could be everything too. In disguise 😜"


Indeed. I'm experimenting. Exploring inwards, looking for me, myself, a version better than yesterday. And, doing it everyday. No standard, firm, binding schedules. No targets, no control deadlines either. Just a direction. 

Moving, ahead or back, but just as much, as easy, comfortable, enjoyable. Just retaining in memory, when movements can't be physical. To draw happiness, pleasure, containment SUPREME. And you know, you're the judge, yourself !

No wonder, destination is the journey itself. Never incomplete, the Sun may set anywhere 😀. How's that ? Wanta join ? Hop on up, Pronto ! It's always fun, when in company, even if moving individually, on path, your own.


You've been invited 😀

#44 आज की बात !



हर दरवाजे की तरह, उस दरवाजे पर भी, जिससे अहसासे कमतरी, यानी हीन-भावना, अन्दर घर करती है, एक सिटकनी अन्दर की तरफ भी, लगी ही लगी होती है।

अन्दर आ ही नहीं सकती, जब तक कि  सिटकनी आप, खुद-बा-खुद, गिरा ना दें। बे-खयाली में, ना-समझी में, ला-परवाही में, आलस में, या तो फिर डर-संकोच में। है ना ? 😀

नमस्कार 🙏 ! आपका दिन शुभ हो 👍

#43 Born with a silver spoon ? So what !

 



Those born with a silver spoon, are usually found, iron deficit. 

Please note that it's not the nutritional value of food you take alone, but, and more importantly, what've you done to feel hungry, to the point of starving, before you pounce on, and what you intend doing later, to digest it, to suckle the last drops of vigor. This is so rare, surprisingly  and especially, in affluent families of these days.

In good old days, even royal princes, were subjected to a hard, demanding life, away from the homely luxuries, under tutelage of a ruthless master, indifferent to his exclusive status. So crucially significant, and so unfortunate that we've done away with this essential part of an appropriate upbringing, in the name of pseudo love, and affection. Disastrous !

No wonder, the kids today are used to, rather dependent on luxurious comforts, not earned, but provided by their ignorant parents. They obviously, never realise what does it take to reach there, they were never made to, and so they don't value it either. Once lost, they've no clue how to get it back, or how to live without them. What a pity !

Protections are precious, and not all have the fortune of having them, primarily from parents. But beyond a reasonable limit, it's sheer poison, rendering your own, lovely child, into a helpless, spineless creature, vulnerable from every side, and corner. Being captain of a ship, which never faced a storm, is a matter of utter misfortune, because he'll never learn anything from the sail, and will collapse, even with the mildest of tremor.

High time, we reconsider how we bring our prodigies up. No harm is feeding with a silver spoon, but ensure, enough Iron is also reaching up 👍.

#42 क्या स्याह, क्या सफेद - सारा खेल सहूलियतों का है साहब !



कोई अनोखी बात नहीं, आये दिन, सुनने को मिल ही जाता है, खुद हम भी कहते हैं, अमुक अच्छा है, अमुक ... राम राम ! क्या सच में ही परमपिता ने दो प्रजातियाँ बनाई हैं, और ख़ास आपके लिए ? आपको दुःख देने की योजना, उसने बनाई होगी, लगता तो नहीं ! कोई पर पीड़क थोड़े ही है वो !

जितना मैंने देखा है, हर अस्तित्व के दो पहलू होते ही होते हैं, अनिवार्यतः । एक उजला, और एक अंधेरा, मगर दोनों आप देख तभी पायेंगे, जब आपकी अपनी दृष्टि व्यापक होगी। प्रयोजन या संदर्भ विशेष से डाली गई नजर, प्रायः संकुचित होती है, एक तरफ ही देख पाती है। फिर संयोग की बात है, अनुकूल हुई तो अच्छा, ना हुई तो ...

तभी, एक ही आदमी, कभी भला लगता है कभी दुष्ट। थानेदार, जब चोर पर सख्ती करता है तो बहुधा उसके इन्सान होने पर ही शक होने लगता है, मगर अगर चोरी आपके ही घर में हुई हो तो ? ट्रेन में रिजर्वेशन, वैसे अब उतना संवेदनशील विषय नहीं रहा, मगर कल्पना कीजिए, आप रिजर्वेशन करा के सफर कर रहे हैं, और टीटी, लालच में, या अन्यथा, किसी को डिब्बे में आने दे तो ? और कभी, इस तरह डिब्बे में जगह पाने की इच्छा, आपकी अपनी ही हुई तो ?

तो महत्व वस्तु, और उसके दो पहलुओं का नहीं है, आपकी नजर और जरूरत का है, अनुकूलता इसी से निर्धारित होती है। प्रतिकूल परिस्थतियों में विचलित होना, स्वाभाविक है, पर अगर हर पहलू से देखने लगेंगे, तो नाराजगी, हताशा थोड़ी कम हो जायेगी। और, यह परस्पर है। ध्यान रहे, कोई ना कोई, आपको भी, हर समय देख रहा होता है।

वो आदमी चालाक होता है, युक्तियुक्त भी कह सकते हैं, जो हमेशा उजला पक्ष ही आपकी तरफ बनाये रखेगा, सुनिश्चित भी करेगा कि अनुकूल ही हो। ध्यान से देख लेना कि उसने उजले पक्ष की तस्वीर ना चिपका रखी हो, राजनीतिक लोग अक्सर ऐसा ही करते हैं। भोले-भाले मासूम से इन्सान के पास ना ये सुविधा होती है, ना जरूरत।  विश्वसनीयता होती है और वो होती है अमूल्य !

बहुत बार बात कुदरत की होती है, किसी के भी नियंत्रण से परे, और तब अपने आपको, स्वयं ही सज्ज होना होता है, अनुकूल बनना होता है ....

जैसी बहै ब्यारि, पीठ तैसी कर लीजै !

फिर कोई समस्या नहीं रहती, हर तरफ से एक सा ही दिखता है। जैसे, पौधे की जड़ को पानी मिल गया 🙏

पुनश्चः अगर आपको यहॉं आना, सच मैं भाता है तो याद दिला दूं कि, आपके पास सब्सक्रिप्शन का उपाय भी उपलब्ध है। अगर चुनेंगे तो फल पकते ही आपको खबर हो जायेगी, वो भी अपने आप 👍




Institute you passed out of, ... & You !




A great institute, will cast you into a wonderful mindset, will clean, polish and arrange your thought channels, but even it can not meddle with the ingredients. It doesn't have that power 😃

Only you can do that, with your perseverance, with the support of the environment, family, office and beyond and the grace of Almighty.... 👆

Remember that, ... Always ! and also that,

"कर्मण्ये वाधिकारस्ते .... 👍

जीवन की कहानी - तेरी मेरी कहानी

 


एक प्यार का नगमा है, मौजौं की रवानी है,

जिन्दगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी... (साभार 🙏)  

जी हॉं, बेशक !

इसे लिखें भी, खुद ही, अपने ही हाथों से,

और हॉं, बीच-बीच में चैक भी करते रहें, जहॉं ठीक लगे, जरूरी लगे, सुधारते भी चलें, फिनिश़ अच्छी मिलेगी !

👍

कोई भूला बिसरा - मगर कैसा कैसा

 





चलो, एक बार फिर से, अजनबी बन जायें हम दोनों ...

और मजा ये, कि इस बार, पहले से जाने हुए भी होंगे 😜

About Blog : How to reach the field of action, explore, contribute and plan ahead, a revisit !



 एक काल्पनिक घटना से अपनी बात कहने की कोशिश करता हूँ, सुदूर दुर्गम क्षेत्र से, जहाँ लोगों को नजदीक और अच्छे से दुनियाँ और उसकी तरक्की को देख पाने का अवसर नहीं हो पाया, कोई दृढ़ संकल्पी, तमाम मुश्किलों और तकलीफों से पार उतर, वायु सेना को चुना गया। ट्रेनिंग बाद, पासिंग आउट उत्सव में, उसने अपने बुजुर्ग मां-बाप को भी आमंत्रित किया।

नियत दिन, जब दर्शकों में उसके अपने जन्म दाता भी शामिल  थे, उसने हवाई जहाज उड़ाने में, अपने सर्वश्रेष्ठ कौशल का प्रदर्शन किया। क्या रफ्तार, क्या फुर्ती, क्या ऊंचाई, क्या कलाबाजियां, क्या नियंत्रण... सारा मैदान तालियों के शोर में डूब गया। उसे सर्वोच्च सम्मान उपलब्ध हुआ। अवसर मिलते ही, वह माता पिता के पास आया, पैर छुये और पूछा कि उन्हें कैसा लगा ? पिता तो चुप रहे, मगर माता से ना रहा गया, 

"खानदान कौ नाम कद्दौ बेटा, इत्ती तारी, सब ताईं, इत्ती वाह वाह, नजन्न लगै, बेटा, छाती चौड़ी है गई। ऐसे ई खूब तरक्की करौ 🤚, दिन दूनी, रात चौगुनी !

वैसे एक बात बोलें बेटा, उड़ाय तौ लेत हो, पर अबई लहकत है, डगमगात बहुत है, धीरे धीरे हाथ रमा हुइ जैये तो फिर सीधे चलन लगौगे ! का है कि डर लगत है, गिरि गिराय परौ तो चोट लगैगी,  सो लगैगी, नुकसान अलग । सो नैंक हाथ पांय बचाय कै"

बात हंसी-मजाक की हो सकती है, मगर देखें तो एक मां की ममता, गौरव और बेटे का हित चिन्तन अपने चरम पर है। अलग बात है कि उन्हें एक परिवेश विशेष का अनुभव, और वैसी समझ उपलब्ध नहीं हो पाई, कुछ संयोग, कुछ हालात। उनका अपना दोष, ना बराबर, और जो कुछ रहा भी हो तो अपनेपन के चमकते सूरज की चकाचौंध में, टिकता कहाँ है।  

एक जहाज, मैं भी उड़ा रहा हूँ  आजकल। दर्शक, कुछ कौतूहल, कुछ कृपापूर्वक प्रोत्साहित करने खुद आये है, प्रायः आते ही हैं। बहुत लोग ऐसे हैं कि जिन्हैं खबर ही नहीं हो पाई है अभी तक, और यही प्रयास, ऐजेन्डे पर सबसे ऊपर है। पाती हर तरफ, और दूर दूर तक जाये, ऐसा अनुरोध आपसे तो हो ही रहा है, स्वयं मैंने भी इधर व्हाट्स एप पर, ब्राडकास्ट की मदद ली थी।

प्रतिफल तो मिला, उम्मीद से ज्यादा मिला, मगर देखने में यह भी आया कि बहुतों के पास, इच्छा तो भरपूर है, मगर बोध की शक्ति नहीं है। वैसा अनुभव का अवसर, कभी हो ही नहीं पाया उन्हें। कुछ भाषा भी कभी कभार मुश्किल हो जाती है, उन्हें पता ही नहीं, कि ब्लाग है क्या, और वहाँ पहुँचें कैसे, और करें क्या ? अन्तिम पैरा, सार ही कहें, उन्हीं को समर्पित, जो जाने को आतुर तो हैं, रास्ते से अनजान हैं।

तो साहब, भले सब भूल जायें पर इतना भर याद रखें कि ब्लाग, यानी एक जगह, वाचनालय जैसी, जहाँ मेरे लिखे, और लिखे जा रहे सारे वक्तव्यादि, एक ही जगह, करीने से लगे मिलेंगे। जब मन हो, आ जायें। मेरा ही बनाया है तो आपको पता है क्या मिलने वाला है, और क्या नहीं मिलने वाला है। आपको सुविधा है कि आप सुझाव, या फिर कोई  आलोचना, या सादा सी टिप्पणी भी वहां, खुद लिख सकें। आप किसी खास टापिक की फर्माइश भी कर पायेंगे। अगर आप फौलो, या सब्सक्राइब का विकल्प चुनें तो नई पोस्ट होते ही आपको खबर भी अपने आप मिलेगी।

ब्लाग तक पहुँचने का रास्ता, बहुत ही आसान है। नीले रंग की लाइन देख रहे हैं ना, जिसके नीचे रेखा खींचकर, उसे अलग सा दिखाया गया है। उसे अपनी उंगली से टैप करना है, बस, हो गया। अगले ही पल आप ब्लॉग पर होंगे। प्रायः हर रचना के साथ, एक तस्वीर भी है, टैप करें और हो गया। रचना प्रस्तुत है,। वापस जाइये, कोई और तस्वीर पर टैप करिये, वो खुल जायेगी। है ना आसान ?

फिर भी असुविधा हो तो, हम हैं ना ? संकोच ना करें, ना आने में, ना आने में सहायता लेने में। आप आमंत्रित हैं। एक बार के लिये आग्रह, दोबारा के लिये... आपका मन। आयेंगे तो अहो भाग्य, नहीं आयेंगे तो भी आभार, पहली बार तो आये ही थे ना, उसी के लिये 😀

Embarrassment Diffused ? No Idea ??


 चलते फिरते:


गये किसी रविवार को, एक डॉक्टर साहब हैं, उनका जन्मदिन हुआ। मित्र भी हैं, सम्बन्ध भी मानते हैं और असल से कम नहीं निभाते, भले आधी रात आजमा लो।


फोन किया, तो उठा नहीं, मैसेज छोड़ दिया। आम तौर पर ऐसे में, उनका वापसी फोन जरूर आता है, यथाशीघ्र। क्षमा भी मांगते हैं, कारण भी बताते हैं और अपेक्षित भी करते हैं। 


पहली बार ऐसा हुआ, कि ऐसा नहीं हुआ, और कारण, हमारे बधाई संदेश पर उनसे आई हुई, कोई ऐसी वैसी क्लिप। ऐसी वैसी, मतलब ऐसी वैसी, हालांकि चन्द सैकन्ड्स की, और फिर सन्नाटा, घटाटोप !


ये तो थी पृष्ठभूमि, नीचे साझा कर रहा हूँ, वार्तालाप, माइनस क्लिप। ठीक है  ?

पहला दिन -

"डा साहब, नमस्कार 🙏


आपको फोन कर रहे थे, भूल गये थे कि छुट्टी का दिन है, सुबह देरी से हो सकती है।


कुछ खास नहीं, ध्यान गया कि आपका जन्मदिन है, तो बधाई देने का मन हो आया।


कुबूल हो, बधाई भी, आशीर्वाद भी, और शुभकामनायें भी 👍"

**********

क्लिप का आ टपकना, और फिर सन्नाटा

**********

अगले दिन -

"आखिर जन्मदिन था आपका, डाक्टर साहब, साल में एक बार तो आता है, तो हक पूरा-पूरा बनता है आपका, जैसा मन हो, वैसे मनायें, जो चाहें, प्रसाद में बांटें 😜


कुछ शौक, सार्वजनिक नहीं होते, और सच यही है कि आपके सान्निध्य में हर बात सहज नहीं होती, सम्बन्ध ही ऐसा है। 😀


मुझे मालूम है, यह चूक ही हुई है । वैसे, कोई इतनी बड़ी बात भी नहीं। अपराध बोध से, कृपया मुक्त हो जायें। मैं, खुद कर रहा हूँ। सोचता था जन्मदिन पर, उपहार क्या दें, यही सही 👍"

Surviving the SYSTEM

 


An erstwhile colleague approached me last night, seeking advice, convinced and willing to help his confidante, under transfer, but how?  

"Ek chiz bataiye, jaise kisi ka transfer hua hai aur use relieve na karna ho to uska process kya hai ?"

And thus, I responded:

"You should've shared full details.

Transfers are serious policy matters of Government, often initiated by interested, powerful forces, who won't let them go uncomplied with, under pretext of discipline and subordination. If not done tactfully, the protector may have to run for cover, himself.

Key is never to confront head on, but to deviate, or side pass it. Monitoring of compliance, seldom extends beyond about a month, and idea is to let this crucial time pass. Nobody bothers later.

The more sensible, and easy is to request is, to seek time, extension of relieving and joining deadlines, on the pretext of some innocent, yet inevitable and adequately justifiable reasons. Having provided firm ground, the key authority can be persuaded to go along, or look the other way. 


Just a matter of time. 😀"

Love stories from IITR

 

"You cant marry my daughter because you are not an Engineer but just a jobless Arts graduate"
He was heart broken when he heard this from the father of the girl he loved. The year was 1934 & this story is from Punjab (now in Pakistan).
He promised both the girl & his father that he will become an engineer & then ask for her hand.
He found out about IIT Roorkee (then Thomason College of Engineering) & decided to prepare for the entrance exam. He studied day & night for over a year, when the results came, he was the only one from Punjab who got selected, probably the oldest in the class.
He had no money, studied on borrowed books when his classmates were sleeping & graduated with flying colours. The govt offered him a job of an engineer.
He went back to meet his girl only to find her dad had passed away & her family did not want her to get married to him. But the girl put her foot down & decided she will not get married to anyone else.
It took a few years for her family to agree & they got married after 8 years of courtship.
The certificate that he got 82 years ago when he graduated is still with me. I owe my existence to my grandparents love & this piece of paper. It is a gentle reminder that love can make anything possible.


Credits: Sandeep Kochar, from Linked IN.

INSTINCT - Elections


अगले साल चुनाव होने जा रहे हैं, अपनी यू पी में।

वैसे तो आपको पता ही होगा। सोचा, अगर ध्यान न गया होगा उधर तो सोच रहे होंगे, ये हवायें एकाएक तेज क्यों चलने लग पड़ीं, मंच रोशन होने लग गये। लोग रातों-रात जागरूक और संवेदनशील कैसे हो गये। कुछ नहीं साहब, हितबद्ध लोग सक्रिय हो गये हैं।

हितबद्ध तो आप भी हैं, तो आपको भी जाग ही जाना चाहिए और अपने हिस्से का प्रतिभाग भी करना ही चाहिए। ये फर्ज है आपका। आप प्रचार प्रसार करें, किसी का विरोध, किसी का समर्थन करें, वाद-विवाद में शामिल हों, या ना हों, आप जानें, मगर उदासीन ना हों, और वोट तो अवश्य ही दें।

वोट किसे दें, जो भी आपको ठीक, या फिर सबसे कम खराब लगे। वोट अवश्य दें, और सोच समझकर दें, बस इतना ही आव्हान है मेरा, पाने वाला कोई भी हो। मैं राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं, इसलिए मेरी पसंद नापसंद मेरा निजी मामला, ना प्रभावित होना, ना किसी को प्रभावित करने का प्रयास, हां, पसंद से वोट अवश्य !


चिरकाल से उक्ति चली आ रही है "सत्यमेव जयते", अर्थात अन्ततः जीत सत्य की ही होती है। विजेता के पक्ष में जाना, बुद्धिमानी भी है, श्रेयस्कर भी और लाभप्रद भी, मगर मुश्किल है, सत्य की पहचान। सबसे ज्यादा तरक्की, इन्सान की इसी में हुई है कि सच उपलब्ध ना हो सके तो, मुश्किल बहुत होता है ना, झूठ को ही सच बना लिया जाये। झूठ इतनी कुशलता से, कि सच को खुद अपने पर विश्वास ना हो। बहुत बार, पैकिंग जानदार हो तो, कन्टेन्टस बेमतलब हो जाते हैं।

कुछ तरकीबें हैं। हितबद्ध को सच, प्रायः दुर्लभ होता है। देखना कि प्रचारक के जीवन-यापन के वैकल्पिक साधन हैं क्या ? उसकी जीवन शैली के अनुरूप, आय के साधन ?, या तो फ़िर उसकी रोजी-रोटी-दाल सब राजनीति से ही है। निर्भरता से हितबद्धता होती है, और फिर सब स्वार्थ। विश्वसनीयता समाप्त हुई। उसकी राजनीतिक योग्यता, पात्रता अर्जित है या वंशानुगत ? वैसे किसी राजनीतिक वंश में जन्म होना कोई पाप नहीं, मगर विरासत हटाकर कुछ बचे ही ना, तो पात्रता संदिग्ध।

आप कहेंगे निष्पाप, निष्कलंक लोग मिलते किधर हैं, तो सही है कि नहीं मिलते। नम्बर देती है जनता, और मतलब उसके भी हैं, जायज नाजायज दोनों, तो सौ में सौ तो, असम्भव ! स्वयं भगवान भी नहीं पाये। अगर वही लक्ष्य है तो असफल हुआ वह भी, जो बहुत करीब पहुंचा, और वो भी जो बहुत दूर रह गया और वह भी, जिसका ना प्रयास था, ना इरादा। असफल सभी हैं, मगर एक बराबर नहीं। अन्तर समझना और उसे चुनना, जो तुम्हारी अपनी नजर में, लक्ष्य के सबसे नजदीक पहुँचा हो, और वह लक्ष्य, मन्तव्य और संकल्प से जन-कल्याण कारी हो।

आपको हार्दिक शुभ कामनायें 👍, आपका दिन शुभ हो 🙏

The comparison



उस दिन मैच चल रहा था, भारत-श्री लंका का, कुछ मेहमान, चन्द दोस्त, और जिकरा हो पड़ा महिला क्रिकेट का। फलाँ फलाँ खिलाड़ी तो, बिल्कुल लड़कों जैसा खेलती है। घरों में भी अक्सर सुनने को मिल जाता है, हमारी बेटी नहीं, बेटा है, ऐसे ही पाला है हमने इसे, लोग गर्व से बताते हैं।

प्रशंसनीय सोच ? मुझे तो नहीं लगता। तुलना, दुखदाई होती है, अगर तो कमतर के लिए तिरस्कार ले कर आती है, और कोई तो कम निकलेगा ही। और औचित्यविहीन, कोई संगति ही नहीं। कारण, परमपिता ने दो प्राणियों को एक सा बनाया ही नहीं, आम और सेब के बीच कैसी तुलना ? कोई तैरने में पारंगत है तो कोई दौड़ने में, तो कोई उड़ान कमाल की भरती है, और आपको तुलना करनी है ?

और बेटियों का जन्म, कोई बेटा बनने के लिए हुआ है, ये भी कोई जीवन लक्ष्य हुआ। बेटियों की नैसर्गिक क्षमता, बेटों जैसा काम करने में नहीं, वो काम करने की है जो बेटे, करना तो दूर, सोच भी नहीं सकते। देर सवेर, हमें अलग-अलग तरह की कुशलताओं के मध्य परस्पर महत्व को संतुलित करना ही होगा। शुभति शीघ्रम !

और तुलना-बराबरी भी कैसी कैसी ? अभी किसी ने लिखा है कि आप रोटी डाइनिंग टेबल पर बैठ कर खाते हो, उसके लिये अन्न पैदा करने वाला किसान, खाना खेत में, जमीन पर उकड़ू बैठ कर खाता है। भूल जाते हैं, और मेरा दावा है, कि जो स्वाद, जो आनन्द, जो तृप्ति उस किसान को खेत में, खाना खाकर मिलती होगी, आप को डाइनिंग टेबल पर, सपने में नहीं मिलेगी। क्या हाथ में है और काहे की ख्वाहिश ? 

सौदा कामयाब हो भी गया, तो फायदा, सौभाग्य मुझे दूर दूर तक नहीं दिखता। अच्छी नींद के लिये, गद्दों की मोटाई नापने लग पड़े तो आसार चिन्ताजनक हैं। सुख महत्वपूर्ण हो सकता है, साधन सुविधायें नहीं। वे अधिक से अधिक सहायक तो हो सकते हैं, पर्याय समझ लिया तो बड़ी चूक हो गई । तभी कहता हूँ कि समाज को आनंद, सुख, आदर, सम्मान और अनुकरणीयता के मापदंडों पर पुनर्विचार का समय आ चुका है। अब और देरी, शुभ नहीं।

तुलना हो, प्रतिस्पर्धा हो तो जैसी चलते समय, दोनों पैरों के बीच होती है। केकड़े वाली हुई, तो बन्टाढार निश्चित 😀, वैसे अधिकांशतः आजकल हो यही रहा है 🙏

कल की ही बात !

 


कल का दिन, बहुत खास रहा। 


मेरी सदा, बहुत कानों तक पहुँची। स्नेह तो बरसा, मगर कुछ अपने आहत भी हुए । आहत हमेशा अपने ही होते हैं, जितने करीब, उतनी गहरी चोट। गैरों के लिये तो आप होते ही कहाँ है, जो फर्क पड़े। गलती हुई, या गलतफहमी, दर्द हकीकत है, और खेद, बनता ही बनता है।


बोलें तो, मैं विशुद्ध धार्मिक व्यक्ति हूँ। यद्यपि, धर्म की मेरी अवधारणा 'सामान्य' नहीं,


घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूँ कर लें।

किसी रोते हुये बच्चे को हँसाया जाये।।


मैं समर्पित आस्तिक भी हूँ, पवनपुत्र मेरे आराध्य हैं। मगर उनसे साक्षात्कार के लिए, मुझे कहीं जाना नहीं होता। वो तो हमेशा मेरे अन्दर, मेरे दिल में ही रहते हैं, हर जगह मेरे साथ-साथ ही आते जाते हैं, और बच्चे सा संरक्षण, देते ही रहते हैं, अनवरत !


अब सामने वाले के दिल में, अगर कोई और है। भूमिका वही है, भावना वही है, फिर तो अपनी ही बिरादरी का ना हुआ। शक्ल अलग हो, कुछ बड़ी बात नहीं, जरूरी भी नहीं, अलग कार से चलता हो तो भी क्या, जाना तो सबको वहीं है । परमपिता की फोटोकापियां, नहीं होतीं, और कोई कर भी ले तो किसी काम की नहीं होती। समझ समझ की वात है। 


पूजा स्थलों के वर्तमान स्वरूप, और उपयोग से मेरी सम्पूर्ण सहमति नहीं, यद्यपि इतना सही है कि जब कोई स्थान, या प्रतीक, जब नियत और चिन्हित हो जाता है तो उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव, आगन्तुकों पर अत्यंत सकारात्मक और प्रभावकारी होता है, विचारों के बिखराव को रोकता है, और वातावरण में जैसे सान्निध्य की एक अनुभूति, पवित्र-पावन सी,  सहज ही उपलब्ध होती है।


परमपिता से मेरा सम्बन्ध व्यक्तिगत है, सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं, और मुझे जो भी प्राप्त है, उसी का प्रसाद है। जो मन हुआ, सब कुछ मिला हो, ऐसा नहीं है। अबोध के हाथ, उस्तरा कौन देता है ? जो मिला, उसकी कृपा, नहीं मिला, उसका संरक्षण। 


अब तो सैटिंग हो गई है, बिना कहे सुने ही सब होने लगा है, असीम कृपा 🙏

इक रोज़ - ख़ासमखास !

 




ईद-उल-अज़हा के मुकद्दस मौके पर, अपने सभी मुस्लिम दोस्तों को दिली मुबारकबाद !


कहा जाता है कि आज के दिन, अपने किसी अजीज़ की कुर्बानी का रिवाज है। बाहर जो भी करें, या ना भी करें, मेरी आरजू है कि तलाश, इस बार अपने अन्दर से ही शुरू करें। कुर्बानी लायक कितने ही जनावर, आपको वहाँ छुपे-छुपे ऐश करते मिलेंगे। मिसाल के लिये, नफरत, बेइमानी, खुदगर्जी, जहालत, काहिली... वगैरह वगैरह।


आप कहेंगे, अजीज भी तो होना चाहिए ! तो साहब, मानें ना मानें, अच्छाई के मुकाबिल, बुराई हमेशा से ही, आसानी से, और अन्दर तक, घर बनाती आई है, और अजीज भी होती ही है, किसी की जाहिर, किसी की राज़ 😀। तो इस बार अन्दर से....


यह काम, गैर मुस्लिम भी कर सकते हैं। अन्धेरे से उजाले की तरफ जाना हो तो मजहबी महूरत क्या देखना।


और हाँ, यहाँ संग-साथ के चक्कर में ना पड़ जाना। इस रास्ते जाना ही काफी। अकेले हो तो भी, काफिला बनते देर लगती है ? 👍

Interactive Highlights 200721


नमस्कार 🙏,

आज मेड अवकाश पर है, वैक्सीन लगवाने गई है, तो धर्म पत्नी पर काम का बोझा, थोड़ा एक्सट्रा है।

दूध को आप से उबलने छोड़ दो, तो नियंत्रण बाह्य होते देर नहीं लगती, तो यह प्रक्रिया, अपनी निजी देखरेख में, सम्पादित कराने का अनुरोध हुआ है।

चुनांचे, दूध उबलते देख रहा हूँ, और सोच भी रहा हूँ कि उबलने से तात्पर्य है, एक निश्चित तापमान तक पहुँचना, आयतन बढ़ने लगता है जिसे सीमांत पर रोक देना। यही कर्तव्य है, धर्म है, योग्य है । कतिपय हानिकारक जीवाणुओं के शमन में, सहायक होता है।

फिर लगता है कि तापमान छूना भर पर्याप्त नहीं, इतने भर से जीवाणुओं का बाल भी बांका हो, कोई जरूरी नहीं। उस तापमान पर, जरूरत भर, रुकना, और जीवाणुओं का समूल नाश सुनिश्चित करना, आवश्यक होना चाहिए। कितना ? नो आइडिया !

अपने यहाँ, अनेक जीवन वैज्ञानिक भी होगें ही। कोई विद्वान प्रकाश डालना चाहें 😀

ये अपुन का स्टाइल है। पूछना है कि दूध कितनी देर उबालना चाहिये ?


1.

"हर चीज का एक बैलेंस होना बहुत आवश्यक है ज्यादा उबाल भी खतरनाक साबित हो सकता है और बिल्कुल शांत रहना भी खतरनाक साबित हो सकता है इसलिए किसी भी चीज को नष्ट करने के लिए जो कि आप को नुकसान पहुंचाती है थोड़ा उबाल भी जरूरी है बट उस उबाल पर कंट्रोल होना भी बहुत जरूरी है🙏🏻"

"आदर्श जवाब, सरकारी सा। छानने बैठो, तो उपयोगी ? उससे क्या ??"


2.

"जीव वैज्ञानिक जो भी कहें, सम्भवतः महामहिम की आपसे इतनी सी अपेक्षा है कि दूध में उबाल भी आये और भगोने की मर्यादा रेखा को पार भी न कर सके। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कुकिंग रेंज की knob  का प्रयोग निर्बाध रूप से किया जा सकता है।

वैधानिक चेतावनी-

न्यूटन या जेम्स वाट बनने के चक्कर में यदि दूध उबाल कर बाहर गिर गया तो महामहिम के मन का उबाल अत्यंत घातक होगा। 😊😛😛

जीवाणु संहार हेतु एक उबाल काफी है। 😌"

"यथार्थ ! वैसे जिज्ञासा, भावी संदर्भ हेतु, और दूध उबाल कर सुरक्षित रख देने के बाद ही प्रकट की गई थी 👍"

"😊😌"

"पिछले दिनों, जाते जाते कुकर की सीटियाँ, तीन तक गिनने के निर्देश मिले थे। मैंने तो अट्ठाइस तक गिनीं, फिर आनी ही बन्द हो गईं। इसके बाद भी नाराज़गी, अभी तक समझ नहीं आई 🤔"


3.

"उबालना खुदगर्ज़ वयवस्था है जो इंसान ने बनाई है । वरना दूध को तो कच्चा ही गृहण किया जा सकता है"

"केवल ताजा दूध, दीपक जी, तत्काल निकाला गया !"

"We want to hold or hoard, which nature want immediate use"

"Won't disagree. Natural is catering for immediate needs. We wish to insure future, too. That leads to hoarding, imbalance and many more complications, that we are paying so dearly for"


जरा सोचिए

 जरा सोचिए




यहाँ की आपा-धापी से पिण्ड छुड़ाकर, भागते दौड़ते, आप ऊपर, परम पिता के पास पहुँचें। बांहें फैलाये, गले लगा कर वो आपका स्वागत करें, और पूछ ही बैठें, 


"और, स्वर्ग में आनन्द तो आया न ?" 😀

खुशी की बात !



चन्द लम्हे खुशियों के, यानी क्षण आनन्द के, सुख के, बाबा के मोल। आजकल मिलते ही कहाँ हैं ? भाग्य की बात !


आपको जब मिलें तो जी भर के जीना, एक एक बूंद पी लेना, उत्सव मनाना। बार बार कहाँ ही होता है, मगर एक काम और भी करना, कारण भी खोजने का प्रयास करना। आसान नहीं है, मगर करना जरूर !


अगर सफल हुये, तो सौभाग्य, उपाय मिल गया। जब मन हो, इसी रास्ते चल देना। मगर कठिनाई भी है, एक तो ऐसे रास्ते स्थाई नहीं होते, अच्छे रास्तों पर, टूट-फूट कुछ ज्यादा ही जल्दी होती है। और फिर, रास्ते पर बार-बार आना जाना हो तो फिर वो नया कब रहता है, आदत होती जाती है और असर कम होता जाता है। एक दिन, बेकार !


वजह, अगर ना मिल पाये, तो निराश होने की नहीं, परम संतोष की बात है। परम सौभाग्य 👌। अगर सच में, अकारण है तो वह शाश्वत होगा। कारण ही नहीं, तो समाप्त क्या होगा, यह आपके साथ-साथ, हमेशा हमेशा रहने वाला है। आप पार हुए !


नैनं छिदंति शस्त्राणं, नैनं दहति पावकः ... 👍

THE QUEUE....