जल्दी तो, चलो ठीक, मगर काहे को ?

अरे, ये अपने आनन्द साहब, हैं ना ? वैसे तो, हर तरह से इक्कीस, बाईस ही होते हैं, अपुन से, बोलें तो, परम आदरणीय, मगर स्नेह भी करते हैं, इसलिए गाहे-बगाहे चुटकी भी ले लेने की, घृष्टता कर लेते हैं।


उस दिन, साथ-साथ ही, जाना था कहीं पर, सो उनका फोन आया,"चौहान साहब, ठीक बारह बजकर, तीस मिनट पर, आपके दरवाजे की घंटी बजाऊंगा, तैयार रहें, सीधे निकल लेंगे।"

मैंने भी मज़ाक किया,"जैसा भी कहें, वैसे आपकी घड़ी में, इस समय, कितने बज कर, कितने मिनट हुए हैं ?"

ख़ैर, मैं कुछ मिनट रहते ही तैयार हो गया तो लिफ्ट के सामने ही, प्रतीक्षा करने लगा। यथा समय, लिफ्ट का दरवाजा खुला, अन्दर आनन्द साहब खड़े थे, बाहर आने की, जरूरत ही नहीं हुई, हम, साथ-साथ हो लिए, वहीं से। मगर चुटकी का मौका तो था, और चूके, सो चौहान कैसा ?

"आनन्द साहब, ये जो मिनट-मिनट बचाते हैं, आप, इसे इकट्ठा करके, करते क्या हैं, आख़िर ?"

उत्तर नहीं, विषय महत्वपूर्ण है, विचारणीय भी। अगर युक्तियुक्त कारण है, आपके पास, किसी को अस्पताल पहुँचाना है, कहीं आग लगी है, यथाशीघ्र बुझाना है, फ्लाइट, या परीक्षा छूट जाने का जोखिम है, तो बात समझ में आती है। एयरपोर्ट पहले से पहुंच कर, वेट ही करना है, अग़र, फ्लाइट तो, अपने टाइम पर ही उड़ेगी, फिर भी ?

होता यही है। आपको बेतरतीब, और बेतहाशा, दायें, बायें, आयें, शांये, गाड़ी भगाते, रैड लाइट जम्प करते, पलक झपकते, नई लाइन लगाते, और जाम, अक्सर इन्हीं उलायतियों की वजह से लगा करते हैं, बिना ढूंढे, हर तरफ नज़र आयेंगे, और उचित कारण, अधिकांश के पास नदारद। भूल जाते हैं, कि आनन्ददायक, तो सफर ही होता है, और शिक्षाप्रद भी। मंजिल पहले से पहुंच जाना, आगे लाइन्ड-अप, कुछ ना हो तो, बोरियत के सिवा, कुछ भी नहीं।

युवाओं का, फिर भी समझा जा सकता है, ऊर्जा, और संसाधन ओवरफ्लो कर रहे हैं, मगर बुजुर्ग भी ? गाड़ी पुरानी हो, तो स्टीयरिंग में प्ले आ ही जाती है, ब्रेक भी हल्के लगते हैं, घिसे-पिटे टायरों में, हवा रुकती ही नहीं। सुनाई, कम देने लग पड़ता है, चैतन्य रह पाता नहीं ड्राइवर, जान-जोख़िम हजार, फिर भी खाँम-खां का रिस्क ? काहे को ? पहले जल्दी करो, टाइम बचाओ, फिर उसी टाइम को काटने के, उपाय ढूंढो, शिकायत कि, आपकी सुनने को, समय किसी के पास नहीं।

तो धीमे होने में भी, बुराई कोनी। सफर का आनन्द लेते चलें, धीमे धीमे, हर तरफ देखते-भालते-एन्जाॅय करते। पूरा दिन लगे, तो लगे, दिन व्यतीत भी हो जायेगा, पता भी नहीं चलेगा। शिकायत, ना आपको, ना आप के को, यही सच है, स्वीकारना शेष। हाँ, अगर हैं बेहतर उपयोग के विकल्प, तो जल्दी भी ठीक, जल्दबाज़ी नहीं, मगर फिर भी।

इन्जीनियर से पूछो, चलो हम, बिना पूछे बता देते हैं, रफ्तार, जरूरत से ज्यादा, तेज हो तो गाड़ी पैट्रोल भी ज्यादा खाती है, गरम भी ज्यादा होती है। और ऊपर से, गाड़ी पुरानी हो तो टंकी से लीकेज भी बहुत होता है, पिल्फरेज भी, इसीलिए पैट्रोल इफरात में, रहता भी नहीं। सँभाल के खरचने में ही, समझदारी है !

At ease ! आराम से !!

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