हर किसी के जीवन में, गुरु भी, और शिष्य भी, उतना ही अनिवार्य रूप से, पाये ही जाते हैं जितने कि पुरखे, और वंशज। यद्यपि शिष्य और वंशज, उतने अनिवार्य भी नहीं, इसलिए कि आपकी इच्छा, और प्रयासों के, अधीन भी होते हैं।
गुरु बोलें तो वह, जिसे आप से अधिक आना, आपको स्वीकार हो, जिससे आप, कृतज्ञता के साथ ग्रहण कर सकें, और जो, उदारता के साथ, आपको दे भी सके। ईमानदार हो, और आपके ही हित का विचार करे, खुद के हित से भी, पहले। शिष्य वह, जिसे, यही सब गुण, आपमें दिखाई देते हों।
तो जरूरत पड़े तो व्यक्ति, हर ऐरे-गैरे के पास, थोड़े ही पहुँच जाता है, अपने गुरु से मदद लेता है। गुरु मदद भी करता है, अनुश्रवण भी, आकलन भी, और यही मूल्यवान होता है, सफलता-असफलता की कसौटी भी। यही निश्चित करता है कि आप अपने किए पर, उत्सव करें, या मातम।
वास्तविक गुरु, भाग्य से उपलब्ध होते हैं, और स्वयंभू, खाँम-खाँ टाइप के, दुर्भाग्य से। इन्हें कोई बुलाने नहीं जाता, इन्हें, आवश्यक रूप से, खास कुछ आता जाता भी नहीं, अहं और स्वार्थ, इनके लिए सर्वोपरि, इनका फेवरिट शौक, समीक्षा करना और नम्बर देना, मकसद आपको कमतर, और इस तरह खुद को बेहतर, साबित करना।
विडम्बना ही कहें कि, नीर-क्षीर विवेक के अभाव में, हम ऐसे ढोंगियों को चिन्हित नहीं कर पाते, वास्तविक गुरुओं का अनादर कर बैठते हैं, और इनके प्रपंच में उलझ कर, अपना अहित करते ही चले जाते हैं। और पता चलते चलते, अक्सर देर, बहुत हो जाती है।
तो सलाह, या आकलन का संज्ञान लेने से पहले, इतना विचार अवश्य करना चाहिए कि, कोई व्यक्ति, परामर्श के उपयुक्त भी है, गुरु होने लायक है ? अगर नहीं, तो उसके दिए नम्बर, बिना देखे, कूड़ेदान में जाने लायक। वो कहते हैं, ना, "चार लोग क्या कहेंगे ?" चार के चार, इसी वर्ग से आया करते हैं, प्रायः !
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