माँ-बाप कहीं नहीं जाते, प्रेमी-प्रेमिका भी कहीं नहीं जाते, दोस्त भी कहीं नहीं जाते, हर वो व्यक्तित्व, जो घनिष्ठ है आपका, कहीं नहीं जाता, तो दोस्त से घनिष्ठ, और कौन ? और ऐसे लोग, आस-पास ना होते हुए भी, आस-पास ही होने की अनुभूति, प्रायः दिया करते हैं, इसमें अनहोनी कैसी ?
मुझे भी, खुद, आप लोगों के साथ ही होने की अनुभूति हुई, तो गलत क्या ? और मै कल्पना को, मूर्त रूप दे सकता था, सो दे डाला। कोई चार-पाँच फेक थे, समय, कुल एक दो घण्टे, इतनी बड़ी साज़िश थी नहीं, जितनी कुछ लोगों को लगी कि, झूठ-मूठ हाजिरी लगवा लेंगे। क्या सचमुच ?
अभिनेता प्राण का, ये बहु-प्रचलित संस्मरण है कि एक आयोजन में, एक बुजुर्ग महिला ने उन्हें, सरे-आम, खूब बुरा भला ही नहीं कहा, कई थप्पड़ लगा डाले, इसलिए कि किसी फिल्म में, उनके खलनायक की भूमिका से, वो बेहद नाराज चली आ रही थीं । प्राण ने उनके पैर छुए, और ये वक्तव्य उनका, बहुत समय तक, चर्चा में रहा कि, उनके प्रति, उस महिला का यह व्यवहार, यथार्थ में, उनकी अभिनय क्षमताओं की सर्वाधिक मूल्यवान, और महत्वपूर्ण, पहचान और पुरस्कार था।
मेरा भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। 'आया नहीं से-आ नहीं सका' के विवाद से इतर, मेरी विशुद्ध सृजनात्मक कोशिशों से, आहत वही हुए, जिन्होंने इसे सचमुच का मान लिया, और फिर यथार्थ, उनसे सहन नहीं हुआ। मेरी स्पष्ट मान्यता है कि नाराज, अपने ही होते है, गैरों का, और गैरों से, तो लेना देना भी क्या ? नाराजगी, नजदीकियों का ही, सुबूत हुआ करती हैं।
तो भावनाएं, जिस जिस की भीआहत हुई, गले लग कर क्षमा माँग लेंगे, फेक की नहीं, ना आ पाने की। अगली बार थोड़ी और कोशिश कर के देखेंगे, होगा क्या, कौन जाने, हाथ में है ही, किसके ? खुशी खुशी वापस हों लें, नहीं तो फिर से मिलने, आयेंगे कैसे ! ध्यान रखी, अपना, और अपनों का, और मेरा भी !
🙏👋
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