महाभारत में एक पात्र हुए हैं, धृतराष्ट्र। जन्मांध, भाग्य कहें, या नियति, जीवन भर, आधे-अधूरे होने का मलाल रहा उन्हें, मगर कोई करता भी क्या ?
फिर उनका विवाह हुआ, गांधारी से, वे अन्धी नहीं थीं, कोई मजबूरी भी नहीं थी, मगर अन्धा होना, चुना उन्होंने, आँखों पर पट्टी ही बाँध ली, प्रेम की पराकाष्ठाकहें, या कर्तव्य बोध की, या क्रोध की, हताशा की, मूढ़ता की, दोनों ही, इस बार चुनाव से, अन्धे हो गये।
"अन्धे अन्धा ठेलिया, दोऊ कूप पड़न्त !"
चुनाव ठीक रहा होता तो, शायद दुर्योधन को 'दुर्योधन' होने से रोक ही लेते, कौन जाने ?
संग-साथ के नाम पर, यही अपेक्षा, अभी भी जिन्दा है। कुँए से बाहर रहना, ताकि साथी अगर गिर ही जाये, तो निकाल पाने की सम्भावना तो, जीवित बनी रहे,आसान नहीं।
भावनायें, अक्सर औचित्य पर, भारी पड़ा करती हैं 😃
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