प्रारब्ध और पुरुषार्थ, यानी भरोसे, भगवान के !


"होइ है वही, जो राम रचि राखाको करि तर्क, बढ़ावै साखा !"


गोस्वामी तुलसीदास की यह प्रसिद्ध चौपाई, पुरुषार्थ का महत्व कम करती हुई, प्रतीत होती है। यदि सारा कुछ ही, पूर्व नियत है, तो प्रयासों की आवश्यकता ही क्या है ? अनुतोष, अगर प्राविधानित हैं तो मिलकर ही रहेंगे, अन्यथा प्रयास कितने भी किए जाएं, प्राप्ति तो होनी नहीं।


क्या सचमुच ? कि आप बीज भी ना डालें खेत में, और फसल लहलहाने लगे ?? आशय, यह अधिक उपयुक्त लगता है कि बहुत बार, अच्छा बीज हो, समय से रोपने और धूप, हवा, पानी की समुचित व्यवस्था के बाद भी, ऐसे कारणों से, जो अप्रत्याशित होते हैं, नियन्त्रण से परे होते हैं, उपलब्धिथाँ, अपेक्षाओं, और आशाओं से पीछे रह जाती हैं। ऐसे विपरीत कारकों का ही, संयुक्त नाम, दुर्भाग्य है।

यह भी कि, अनेक बार, यह संयोग, सकारात्मक भी हुआ करते हैं। आपने योजनाएं ही, ना भी बनाई हो, आपको हवा भी ना हो, घटनायें, एक के बाद, एक, ऐसी होती चली जाती हैं जो परिणामों को आशातीत सफल, बना डालती हैं। नियन्त्रण, इन पर भी आपका, कोई नहीं, आपने आहूत भी नहीं की होतीं, इन्हीं को, समेकित रूप से, सौभाग्य कहा जा सकता है।

इस प्रकार, बीजारोपण, यानी उद्यम, अनिवार्य हुआ, और पालन-पोषण के इष्टतम प्रयास भी, मगर नमन, उन कारकों को भी, जो ना आपके संज्ञान में हैं, ना नियन्त्रण में। इन्हें विधि का विधान भी कह सकते हैं। आप परीक्षा दें, सर्वश्रेष्ठ दें अपना, परन्तु मूल्यांकन का अधिकार, उपाधि और सिद्धि का अधिकार, आपसे परे, उसके पास, जिसका ज्ञान, और सामर्थ्य, और क्षमता, आपके पास नहीं।

परीक्षा में, प्रतिपर्ण से, प्रतिभाग ही मूल्यवान, परिणाम की चिन्ता, आपको नहीं करनी चाहिए, इसलिए कि, जो आपके हाथ में नहीं, उसे दिमाग में लिए-लिए घूमने का भी, कोई सार नहीं। गोस्वामी जी की चौपाई का इतना ही, और यही आशय है। इसी बात को, भगवान श्रीकृष्ण ने, गीता में, इस तरह, अभिव्यक्त किया है:

"कर्मण्ये वाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन:... "

एक और पक्ष भी, विचारने योग्य है, यह कि ग़र हाथ दिखाने जायें, किसी ज्योतिषी के पास, तो दायाँ हाथ ही देखता है ना ?, या तो बायाँ, अगर आप वाम हस्तीय हैं, अर्थात सक्रिय हाथ। आखिर क्यों, लकीरें तो दोनों ही हथेलियों में होती हैं ?

मान्यता है कि जन्म के समय, हाथों की लकीरें, एक समान होती हैं। सक्रिय हाथ की लकीरें, समय के साथ, बदलती जाती हैं, पुरुषार्थ भी अपना प्रभाव डालते हुए, लकीरों को ही बदलते हुए चलता है, और यही प्रमुख, यही सार्थक, यही प्रासंगिक।

"क्यूँ हथेली की, लकीरों से हैं आगे, उंगलियाँरब ने भी, क़िस्मत से आगे, आपकी मेहनत रखी"


और, अन्ततः

"तकदीर के खेल से, निराश नहीं होते,

जिंदगी में ऐसे, कभी उदास नहीं होते,

हाथों की लकीरों पर, अन्धा भरोसा कैसा,

तकदीर तो, उनकी भी हुआ करती है,

जिनके हाथ ही नहीं होते।"

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