बात बराबरी की, ग़ैर-बराबरी की भी

यह एक सुस्थापित मान्यता है कि अगर देर तक चलना हो, तो सबके साथ-साथ चलना चाहिए, और जाना, दूर तलक हो, तो अकेले ! तो एक स्वाभाविक जिज्ञासा हो सकती है कि अकेले ही जाना ठीक है, या सबके साथ ? कोई निश्चित और स्थिर नीति, हो नहीं सकती, ये परिस्थितियों पर निर्भर करता है। 

कोई वैवाहिक समारोह है, उत्सव कई दिन चलेगा तो सबके साथ जाना ही, शोभनीय, रास्ते भर, गाते बजाते जाइये, समय बेहतर बीतेगा। कोई अपना, एक्सीडेंट हो गया है, दूर शहर में, यथाशीघ्र मदद की जरूरत है, तो भी, ऐसे ही जायेंगे, क्या ? सपरिवार, गाते बजाते ? शायद नहीं, हो सकता है, पत्नी को भी, पीछे -पीछे ही आने को कह कर, अकेले निकल लें।

एक और उदाहरण, एक्सप्रेस वे पर, कल्पना करें, एक ही लेन है, तो ट्रैफिक की रफ्तार, सबसे धीमा वाहन ही तय करेगा। भले आपकी कार, पलक झपकते, डेढ़ सौ की रफ्तार पकड़ सकती हो, अगर कोई ट्रैक्टर ट्राली भी लाइन में है तो उसी की रफ्तार, अधिकतम, और बाध्यकारी होगी, भले आपकी फ्लाइट छूट रही हो, या आप डाक्टर हों, और कोई रोगी, ऑपरेशन के लिये, आपकी ही प्रतीक्षा में हो, जीवन-मरण का सवाल हो।

तो उपाय के रूप में, एकाधिक लेन बनाई जाती हैं, तेज रफ्तार, हल्के वाहनों के लिए एक, भारी वाहनों के लिए एक, और महत्व दोनों का ही है, अपना अपना, काम किसी के विना चल पाना, आसान नहीं। दोनों ही साथ-साथ चल सकते हैं, अपनी अपनी इष्टतम रफ्तार से, अपनी अपनी लेन में। बराबरी की जिद में, अगर विवेक को ताक पर रख, लेन का अनादर किया, और एक दूसरे की लेन में, जबरन घुसे तो व्यवस्था ही चौपट होने में, संशय कोई नहीं।

प्रशासनिक व्यवस्थाएँ भी, ऐसे ही आवश्यकताओं, और भूमिकाओं, के दृष्टिगत निर्धारित की जाती हैं। एक मित्र हैं, अपने, कभी जिला जज भी हुआ करते थे, डिक्टेशन के लिए, स्टेनो को प्रायः सामान्य से पहले बुलाते, कभी कभी लापरवाही में, और अक्सर ट्रैफिक में फंसकर लेट भी हो जाते, स्टेनो को इन्तजार करना होता। एक दिन, वो खुद, लेट हो गया तो जज साहब ने, क्लास ले डाली। उसने फौरन बराबरी के अधिकार की याद दिलाई, और कहा कि आप भी तो लेट होते हैं, मुझे कुछ भी, कैसे ही कह सकते हैं ?

उन्होंने बड़े प्यार से, मुस्कराते हुए, समझाया कि देर होना, कोई अनहोनी बात नहीं, उचित-अनुचित किसी भी कारणों से, होती ही रहेगी और पहले आने वाले को वेट भी करना होगा। किसका वेट करना, कम गलत होगा ? साहब, तो मैं ही हूँ, ना ? तो मेरे कर्तव्य, और इसीलिये अधिकार भी, अधिक हैं, वरिष्ठतानुक्रम की मूल अवधारणा भी, यही है। 

ट्रेन कब चलेगी, कब रुकेगी और कितनी देर, किस रूट से जायेगी, यह काम इन्जन का, डिब्बों की भूमिकाऐं, अनुसरण मात्र की, और यह व्यवस्था की बात है, अहंकार की नहीं। जज होने के नाते, विशेष परिस्थितियों में, कभी-कभार, असाधारण व्यवस्थाएं भी करनी पड़ती हैं, कोर्ट की टाइमिंग, अवकाश के दिन, असाधारण सुनवाई आदि आदि। इन निर्णयों का दायित्व, और अधिकार मुझे है, कार्यालय का कर्तव्य है, सहयोग और अनुपालन। 

ऐसे समझो कि, इंजन से सीधे सम्बद्ध कर्मी, पायलट, को-पायलट, टिकट एक्जामिनर, गार्ड आदि अलग तरह से व्यवस्थित होते है, ट्रेन के अनुसार। स्टेशन मास्टर, बिजली पानी की व्यवस्था, स्वास्थ्य सुरक्षा, प्रतीक्षालय व्यवस्था कर्मी आदि, अलग तरह से। ट्रेन से जुड़े कर्मियों की व्यवस्था, और नियंत्रण, नियत कालीन, स्थापित स्थिर, कर्मियों की तरह नहीं की जा सकती, नहीं की जानी चाहिए। ये आपका कर्तव्य भी है, विशेषाधिकार भी, सेवा-सम्बद्ध अपेक्षा भी। 

मेरे निकट स्टाफ, ड्राइवर, गनर, वैयक्तिक सहायक/स्टैनो के रूप में, आप खुद भी, के लिए, मेरी सहजता सुविधा से सामंजस्य बिठाना, उपयोगी बात है, समय लचीला रखना होता है, आवश्यकता, और भूमिका के अनुरूप, आम कार्यालय कर्मियों से इतर। हर कर्मी की अपनी विशिष्ट भूमिका होती है।

बराबरी की बात, हर बार, बराबर नहीं होती, स्टेनो बाबू ! सही बात तो, यही है !!

 




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