विडम्बना ही कहें कि जमाने में, "संतुलन" को महत्वानुक्रम में यथोचित स्थान, अभी तक तो उपलब्ध नहीं हो सका। सिवाय इसके कि जब किसी का टोटल बंटाढार हो चुका होता है, तब हम कहते हैं, बैलेन्स आउट हो गया बेचारे का। सोचा समझा न सही, पर है यथार्थ !
बैलेंस, खरे सोने में तांबे का, यानी कीमती होने के बीच काम
के भी होने का, आदर्शों के व्यावहारिक और
प्रासंगिक भी होने का.... कितने ही उदाहरण । विस्तार के सापेक्ष संक्षिप्त होने का
भी, । कुल मिला कर, अतियों के बीच इष्टतम के
चुनाव का।
अति-तम
की धारणा काल्पनिक है, अस्तित्वहीन, और संतुलन की आवश्यकता सतत
उपस्थित, अनिवार्य। वैसे संतुलन स्थिर
नहीं, परिवर्तनशील है, समय, स्थान, व्यक्तियों और परिस्थतियों
के अनुसार बदलता भी/ही रहता है।
उजाले
का गुणगान, तो हर कोई करता है। आज मेरी
कोशिश है कि आपकी दोस्ती अंधेरे से भी कराऊँ। सही से देखें, तो ये एक दूसरे के विकल्प
नहीं, सम्पूरक हैं । एक का लोप, दूसरे को भी ले ही डूबेगा, कोई और रास्ता है ही नहीं।
दुश्मन नाम की चीज, सोचें अगर रहे ही ना, तो दोस्त का कोई अर्थ बचेगा
भी। दुश्मनी का ना होना ही, दोस्ती
है।
अगले
दिन की सुबह कैसे हो पायेगी, अगर
बीच में रात से गुजरना ना हो। इन्सान का दिल फैलता है, फिर सिकुड़ता है तो ही धड़कन
बनती है, और ये क्रम, बारी-बारी जब तक होता रहता
है, तभी तक जीवन। पतंग कोई उड़ती
नहीं, अगर आप ढील ही देते जायें, बीच बीच में खिंचाव भी परम
आवश्यक है। हे देवियों, अपने
अपने देवों को, केवल खींच कर रखने से काम
बनता नहीं, बीच बीच में, राहत भी जरूरी है।
जरूरी
है कि आप हमेशा सटीक सही ना ही हों, गर्व
रास्ता देख लेता है। अच्छा है कभी-कभार गलत भी करें, सही ही करने के तनाव से
मुक्त हो जायेंगे, विनम्रता बनी रहेगी और किसी
से गाहे बगाहे कुछ गलत हो भी जाय, तो
दिलो दिमाग में बर्दाश्त की गुंजायश भी।
याददाश्त
अच्छी हो, फायदे की बात है, मगर कुछ बातें भूल जाना भी
शुभ। यानी संतुलन, क्या याद रखने जैसा है के
साथ-साथ, क्या छोड़ना भी योग्य, मूल्यवान है। आप पढ़ें लिखें, शिक्षित और योग्य बनें, हर कोई चाहता है, मगर तराजू एक तरफ झुकती ही
जाये, तो कितने ही लोगों का
पारिवारिक जीवन नर्क होते खूब देखा है। तभी तो कोई दुआ करता है
पढ़े
लिखों को, थोड़ी-थोड़ी, नादानी दे मौला !
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