दुकानदारी


वो भद्र महिला
शापिंग पर निकली हुईं थींजैसे हर ख़रीदार होता हैबेहतर सामानकमतर कीमत में। उन्हें कोई सामान भा गयाकीमत पूछी। दुकानदार ने बताया, 'नाइन्टीन', इन्होंने सुना, 'नाइन्टी'। 
 
फौरन निगोशियेटिंग मोड एक्टिवेट हो गयाइन्होंने ऑफर दे डाला, "कहाँ भैय्याहम पहली बार खरीद रहे हैं क्या हमें सब पता हैकौन सामान कितने का मिलता है। पैंतालीस का लगाओतो बोलो ?"
 
दुकानदार मुस्करायाऔर बोला, "मगर बहन जीमैंने तो उन्नीस ही मांगे हैंनाइन्टीन !"
 
महिला सकपकाईंलेकिन अगले ही पलउन्होंने खुद को सँभाल लियाऔर बोलीं, "वोही तोलग तोमुझे भी रहा था। मगर भैय्यापैसे बढ़ाकर तो आप मांगते हो। दस से ज्यादामैं तोदेने से रही"
 
व्यापक देखें तो हम सभी की प्रायः यही सोच है। व्यवस्थाओं को भले ना जानेंना समझेंहमारी अपेक्षायें पूरी कभी नहीं होतींमगर । बच्चा फर्स्ट आया तो रैंक का मलालऔर रैंक आई तो टॉप क्यों नहीं हुआ। इस बात से कोई मतलब नहीं कि मेहनत तो पास होने भर के लिये भीकितनी ही करनी पड़ती है।
 
तो हम दुकानें बदलते रहते हैंमोल-भाव करते रहते हैं। इसी लालच का फायदाकुछ चालाक दुकानदारझूठे सच्चे वादे करके उठाया करते हैं। कौन सा सपनाआपको दिखाते नहींऔर कौन सा पूरा ही करते हैं। उन्हें अपना उल्लू सीधा करना होता हैआपको उल्लू बना कर।
 
मूल बात किहर चीज की कीमत होती है। फ्री लंच जैसा यहाँ कुछ कभी नहीं होताऔर अगर कोई वादा करता है तो या तो लंच की जगह आपको मिलना है बाबाजी का ठुल्लूया तो कीमत वसूली जाती हैआप ही सेघुमा फिरा केऔर इतनी कि आप सोच भी ना पायें।
 
अपनी बात कहूँ  तो मुझे ऐसी दुकानें पसन्द हैं जहाँ कीमतों में साफ सफाई होती हैलाभ युक्तियुक्त होता हैमगर अनिवार्य रूप से शामिल होता है। दुकानदारईमानदार होता हैअपनी नीतियों पर स्थिरशिष्टआपकी खुशामद करेया ना करेजरूरत से ज्यादा विनम्र होया ना भी हो।
 
इन्हें राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी देख सकते हैं। दुकानदार हुये राजनीतिक आकाऔर खरीदारआम जनता 😀

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