अन्धी दौड़, जीवन की !

इसे
बहुत समय नहीं हुआ, अपच ने जीना दूभर कर रखा था। अफ़ारा, डकार, कुपित वायु, उदर शूल, जाने क्या क्या। खाना देखते ही, उबकाई सी आती थी। यूँ, इन लक्षणों के कारक, बहुत गम्भीर भी हुआ करते हैं, मगर अपने मामले में, फ़कत इतना कि किसी खाने में स्वाद, थोड़ा जरूरत से, बहुत ज्यादा गया था।

बड़ी बीमारियों के उपचार, या तो होते ही नहीं, होते हैं तो प्रत्यक्ष और स्पष्ट। ये छोटी, अस्पष्ट सी तकलीफें ही होती हैं कि कन्फ्यूजन विकट, कि बीमारी आखिर है क्या ? और ये भी, कि इसमें करें क्या ?? कहते हैं, पाचन सम्बन्धी विकारों में, आयुर्वेद कारगर, तो होता है, मगर वक्त लगता ही है। अपने आगरा वाले डाक्टर साहब, लगातार, एक ही बात कह रहे थे, पेट को दो आराम, खाना फिलहाल बन्द, इंतजार शुरू।

बात में दम निकला, आराम आता गया धीरे धीरे, और समझ आया कि फसाद की जड़ है, असंयम। थोड़ा सा, रुक के चलने का। कहते भी हैं, आप जो खाया करते हैं, कुल जमा एक तिहाई ही, आपके शरीर के काम आता है, बकिया दो तिहाई, आपके डाक्टर के परिवार के 😂 मोटा मोटा, भूख से, जरा सा कम खाओगे तो बेहतर रहोगे। अब ध्यान रखने लगा हूँ, तो आराम से हूँ, अभी तक तो यही।

बोलें तो इस विचार के निहितार्थ, व्यापक, और बहुत काम के हैं। भूख की सीमा होती है, स्वाद की कहाँ ? उपलब्धियों को गिना जा सकता है, और सपनों को ?? जरूरतें पूरी हो सकती हैं, अरमान नहीं। रमाकान्त जी कहा करते हैं, आपकी जरूरत कोई 6'×3', बाकी घर में तो ऐश्वर्य, शो-ऑफ रहता है, इसीलिए घर, पचास कमरों का हो, तो भी छोटा लग सकता है।

"सांई इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाए,

मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु ना भूखा जाए।"

साधु से आशय, सुपात्र से, और बात भूख मिटाने की हो रही है, जरूरत की हो रही है, सर्वोचित की हो रही है, मगर हमें खाने को कम, दिखाने को ज्यादा चाहिए, और वो है थैला, रबड़ का। जैसे जैसे भरता है, फैलता भी जाता है, साथ-साथ, हमेशा जगह, बची की बची। ऊपर से, प्रतिस्पर्धा और शुरू हो जाती है रहना तो है, सबसे आगे, और हर एक को, विक्षिप्तता की भी कोई सीमा होती है ? लोग दौड़े जा रहे हैं, बस अन्धाधुन्ध, और मज़े की बात, मंजिल का, अता-पता ही नहीं !

दौड़ने की सीमा, होती है मगर। चाहें तो क्षमता कहें, किसी की कम, किसी की ज्यादा, मगर होती सबकी है। आप, हांफते हांफते गिर जाते हैं, एक कदम भी और आगे जाना, दूभर, और सहारे को ? यार, दोस्त, परिवार, सद्भाव, सब तो आपा-धापी में पीछे छूट गये। और साथ जो भी पाया है, उसे भी आगे ले जाना, असम्भव। चाहें तो किसी को देकर जायें, लेने को राजी हो अगर, वरना तो छोड़कर ही जाना पड़ेगा। आपके बहुत काम काम का, रहा है भी नहीं।

आप पीछे मुड़कर देखने लगते हो, आखिर क्या खोया, क्या पाया ? पछताने का मन होता है, पर अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियां चुग गई खेत !

अगर, आपको अवसर है, तो रुक कर, दम लीजिये, साँसें बटोरिए, और एक बार फिर से सोचिए, इस रास्ते की कोई मंजिल भी है। याद रहे, सार सफर में होता है, आनन्द से बीते, सुख से बीते, यही हासिल। मंजिल, यानी सफर की समाप्ति, अच्छा था, अच्छा नहीं भी था, मतलब कोई नहीं। बीत गया, सो बीत गया, वापस अब आने वाला नहीं।🙌

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