सबका होना, दर-असल, एक मिथ है। जो सबके होते हैं, वास्तव में, किसी के नहीं, होते !
सोचिये, आपके
हैं अगर, तो वक्त-ए-
जरूरत, क्या आपके साथ
होंगे ? आपका साथ देंगे ?? कैसे देंगे, आपके विरोधी के साथ भी तो हैं, ना (सबके साथ हैं ?) तो वो कट लेंगे। किसी भी मुगालते में
मत रहिये, वैसे
वे आपके विरोधी के साथ भी नहीं होंगे, इन्हें आप के साथ भी,
तो होना है ना ?
शायद आप का आशय है, आप सब के, या फिर किसी के भी, साथ में भी, हो सकते हैं, विरोध में भी । आप समर्थन, या फिर विरोध, गुण-दोष के आधार पर करते हैं, व्यक्तिगत नहीं, वर्गगत नहीं, और गुण-दोष तो मिली-जुली, बदलती रहती बात। व्यापक अर्थों में निष्पक्ष, या निर्गुट !
निष्पक्ष होना बड़ी बात, गौरव की बात। भेड़-चाल नहीं, ना किसी वर्ग का अन्ध-समर्थन, ना अन्ध-विरोध। अपने मूल्य, अपनी मान्यतायें, सामूहिक समर्थन की अनिवार्यता भी नहीं, कोई ना भी हो तो, एकला ही सही। वैसे अगर बात में दम हो, और संकल्प में दृढ़ता, तो कारवाँ बनते, देर भी नहीं लगती।
और तटस्थ होना, उसे क्या कहते हैं, न्यूट्रल ? क्षमा करें, इससे तो, आपके डरे हुए होने की ही ख़बर मिलती है। मैं बूढ़ा, डूबन डरा, रहा किनारे बैठ... पचड़े में, नहीं पड़ने का। तार बिजली का, पाॅजिटिव होगा, बिजली देगा, निगेटिव होगा, बिजली लेगा, ए सी का फेज़ होगा तो लेता-देता रहेगा, और न्यूट्रल ?
माफ़ करें, न्यूट्रल में तो करेंट होता ही नहीं, किसी ना किसी के साथ लगता है तो काम चलता है उसका, वर्ना लोग, बेहिचक कपड़े धो धो कर सुखाते हैं उस पर ! सामान बांधने के काम भी, खूब ही आता है। ख़तरे जोख़िम से दूर, मगर परिस्थिति ये, आदर के साथ नहीं देखी जाती।
गौरव की बात तो, कतई नहीं...
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